खौफभरे लम्हों की कलमबंद स्मृतियां

डॉ. सुभाष रस्तोगी

विभाजन निस्संदेह इस उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी भयावह त्रासदी थी, जिसमें लगभग डेढ़ करोड़ लोग उजड़े, आठ से दस लाख लोग नृशंस कत्लोगारत का शिकार हुए। इन्सानियत इतनी शर्मसार हुई कि उसे मुंह तक छिपाने के लिए ठौर नहीं मिला। प्रत्येक धर्म, संप्रदाय, मजहब की इसमें बराबर की भागीदारी थी। भारतीय उपमहाद्वीप की इस महात्रासदी के रोंगटे खड़े कर देने वाले इस हौलनाक सच को अपनी बहुचर्चित कृति ‘वे 48 घंटे’ में दर्ज?करने के बाद भी डॉ. त्रिखा को विभाजन के संताप से मुक्ति नहीं मिली है। उनकी सद्य: प्रकाशित दस्तावेज़ी कृति ‘विभाजन गाथाएं’ लेखक की उसी मानसिक उद्विग्नता का नतीज़ा है। वजह डॉ. त्रिखा से ही जानें, ‘यह एक अलग किस्म की विभीषिका थी। यह केवल विश्व इतिहास का सबसे बड़ा ‘माइग्रेशन’ ही नहीं था, ऐसा कभी नहीं हुआ था जब सेनाओं, सरकारी अधिकारियों, कर्मियों सभी को विकल्प चुनने का अवसर मिला। मगर लगभग ढाई करोड़ लोगों को पूछना तो दरकिनार, समय पूर्व सूचित करना भी उचित नहीं समझा गया।’

भारतीय उपमहाद्वीप की इस महात्रासदी की यातना की भुक्तभोगी पीढ़ी अब प्राय: विलुप्त होने के कगार पर है, तब ऐसे में त्रिखा को एक प्रतिबद्ध लेखक होने के नाते लगा कि इस पीढ़ी की स्मृतियों को अब कलमबंद किया ही जाना चाहिए। इतिहास को फुर्सत नहीं थी, इस पीढ़ी की स्मृतियों को कलमबंद करने की क्योंकि आदि-आदि की यातना तक पहुंचने तक इतिहास की कलम की स्याही प्राय: सूख जाया करती है। इस सबकी कैफियत अब लेखक से ही जानें, ‘एक लम्बे अंतराल के बाद उन्हें लगा था, मन के दबे कोनों में दुबकी स्मृतियां कलमबंद हो जाएं तो विशेष जिंदगी चैन से जी पाएंगे। यह भी एक अजब मानसिकता है। कोई भी व्यक्ति खौफ भरे लम्हों की स्मृतियों को जीवन के अंतिम मोड़ पर संजोकर नहीं रखना चाहता। मगर उन्हें भुला पाना भी तो असंभव होता है।’

लेखक ने अपनी नवीनतम कृति ‘विभाजन गाथाएं’ में सार्दूल सिंह विर्क, स्व. गणपतराय त्रिखा, शेख अनवर अली, अमर सिंह, कुलदीप राय त्रिखा, मेहता मेहर चंद, उदयभानु हंस, सियालकोट का नायर परिवार, मोहम्मद तुफैल उप्पल, कंवल नैन शर्मा, नानक चंद, भाई जगमोहन, आढ़ती मतिदास, स्व. सुनील दत्त, स्व. खुशवंत सिंह, वीरांवाई कालड़ा, प्रख्यात क्रांतिकारी स्व. क्रांति कुमार की बेटी श्रीमती उर्वशी शर्मा, रामप्रकाश जी बत्रा, श्रीमती वीणा शर्मा, दास्ताने बूटा सिंह, रोशनदीन, अर्शद मुल्तानी, डॉ. खुशी मुहम्मद खान, मलिक मुहम्मद असलम, व्यापारी रामचंद्र, प्रो. वीएन दत्ता, मुहम्मद आशिक्र राहीत, शौकत रसूल, प्राणनिविले, रक्षत पुरी, प्रो. शौकत अली, गीतकार डा. धवन व लोकगायक पुष्पा हंस की स्मृतियों को कलमबंद किया। लेखक ने यह सब स्मृतिगाथाएं इतनी आत्मीयता और जीवंतता से दर्ज़ की हैं कि हर्फ़-दर-हर्फ़ ऐसा प्रतीत होता है?कि लेखक जैसे इन सब का प्रत्यक्षदर्शी रहा हो। डॉ. आयंगर की डायरी का भी इसमें उल्लेख है। एक गौरतलब तथ्य जो उभरकर सामने आता है वह यह कि विभाजन न इधर कोई चाहता था, न उधर कोई चाहता था। ये गाथाएं उन प्रभावितों की हैं जो विभाजन की त्रासदी के 67 वर्ष?बाद भी उन विभीषिकाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाए हैं। ये सब ज्यादातर सामान्यजन हैं, इसलिए इनके बयान ज्यादा विशिष्ट और तथ्यपरक हैं।

मानवीय इतिहास की इस सबसे भयावह त्रासदी के इन भुक्तभोगियों के बयान इस बात का साक्ष्य हैं कि कुछ सिरफिरे मुसलमान हथियारबंद युवकों से उनके मुसलमान मित्रों ने ही उनके प्राणों की रक्षा की थी। पाकपटन शरीफ के लेखक के पिता स्व. गणपत राय त्रिखा भी इन्हीं प्रभावितों में से एक थे। उन्हें तथा उनके पूरे परिवार को उनके पिता का अंतरंग मित्र अली अहमद खान मानेका अपनी जान को जोखिम में डालकर उनके साथ 36 घंटे पैदल चलकर सुलेमानकी तक छोडक़र गया था और लेखक को, जिनकी उम्र उस वक्त मात्र तीन वर्ष थी, उसने अपने कंधों पर बिठाया हुआ था और मानेका के दूसरे हाथ में एक बंदूक थी।

दरअसल दर्जनभर ‘बड़े लोगों ने’ तबाही की यह स्क्रिप्ट लिख दी थी और इन ‘बड़े लोगों ने’ अपने स्तर पर जमीनी हकीक़त का सही-सही आकलन करने का कोई प्रयास ही नहीं किया था।

मोहम्मद अली जिन्नाह की हठधर्मिता इसका सबसे बड़ा कारण थी। समग्रत: डॉ. चन्द्र त्रिखा की नवीनतम कृति ‘विभाजन गाथाएं’ किसी दस्तावेज़ से कम नहीं है।

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