भारत का वास्तविक राष्ट्रपिता कौन ?- श्रीराम या …. … पुस्तक का नाम : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा: श्री राम

लेखकीय निवेदन

 भारत और भारतीय संस्कृति के विषय में कवि की कितनी सुंदर और सार्थक पंक्तियां हैं :--- 

ज्ञान ही हमने दिया था ज्ञान का भंडार भारत।
आज के इस विश्व का भी है अमर आधार भारत।।
है अमित सामर्थ्य तुझ में मत किसी से याचना कर।
अरे साधक साधना कर ! अरे साधक साधना कर।
चूमता था चरण वैभव भूलता है आज क्यों तू ?
भग्न वीणा के स्वरों में आज फिर से तान भर तू।।
है अमित सामर्थ्य तुझ में मत किसी से याचना कर।
अरे साधक साधना कर ! अरे साधक साधना कर।।

निश्चित रूप से साधना व्यक्ति के जीवन को आदर्श और प्रेरक बनाती है। हमारे आदर्श और प्रेरणा स्रोत श्रीराम का जीवन ऐसी ही उच्च साधना से भरा हुआ था। उनकी वह उच्च साधना हम सबका आज तक मार्गदर्शन कर रही है।
श्रीराम सदियों से नहीं, लाखों वर्ष से भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा का प्रतिनिधित्व करते आ रहे हैं। इतने युगों पूर्व होने वाले इस महान व्यक्तित्व ने भारत के साथ-साथ संसार के लोगों को भी सार्थक और प्रेरक जीवन जीने की प्रेरणा दी है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा के रूप में श्री राम हर काल में स्वीकार्य रहे हैं।
भारत में पिछले कई दशक तक हमने श्री राम मंदिर निर्माण के लिए होने वाली न्यायिक लड़ाई को देखा है। जिसमें अंत में ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा में विश्वास रखने वाले श्री राम की जीत हुई । जिस दिन माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद की लखनऊ पीठ का निर्णय इस मामले में आया उस दिन मैं स्वयं हिंदू महासभा की ओर से वहां उपस्थित था। उसके पश्चात जब सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला आया तो उस दिन श्रीराम में आस्था रखने वाले भारत और भारत के बाहर के करोड़ों लोगों ने खुशी मनाई। लोगों को लगा कि जैसे उन्होंने बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर ली है। उनकी खुशी समाये नहीं समा रही थी। कई लोगों ने न्याय की इस लड़ाई को हिंदू मुस्लिम या मंदिर बनाम मस्जिद की लड़ाई के रूप में व्याख्यायित और स्थापित करने का प्रयास किया। वास्तव में यह लड़ाई भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करने के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई थी। क्योंकि जिस देश की आस्था के प्रतीक महानायक इतिहास पुरुष उसके हाथ से छूट जाते हैं वह देश सभ्यताओं की प्रतियोगिता में कभी अपने आपको स्थापित करने में सफल नहीं हो पाता।

भारत भूमि से आती है राम नाम की सुगंध

यही कारण था कि श्रीराम का मंदिर राष्ट्र मंदिर के रूप में अयोध्या में स्थापित होना चाहिए, ऐसी अपेक्षा हर भारतवासी की थी। इसका एक कारण यह भी था कि श्री राम ने अपने महान व्यक्तित्व और कृतित्व के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवाद में समन्वय स्थापित करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। इस प्रयास से भारत के दिव्य और समन्वयवादी समाज का निर्माण हुआ। जिससे भारत की वैश्विक संस्कृति ने नया स्वरूप ग्रहण किया। उस स्वरूप का परिणाम यह हुआ कि भारत के इस महानायक का सम्मान न केवल भारत में बल्कि संसार के अन्य अनेकों देशों में भी आज तक यथावत बना हुआ है। भारत भूमि की मिट्टी में राम ऐसे रम गए कि हर कण में राम नाम की सुगंध आने लगी ।हर जन को राम ने इतना प्रभावित किया कि वह उसके हृदय में वास करने लगे । भारत के राजनीतिक, सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक प्रत्येक क्षेत्र को श्रीराम ने इतना अधिक प्रभावित किया कि वहां भी सर्वत्र राम की राष्ट्रवादी सोच, राष्ट्रवादी चिंतन और राष्ट्रवादी छवि साफ झलकने लगी। यह अलग बात है कि कुछ पाखंडी धूर्त्तों ने श्री राम के नाम का अपने निहित स्वार्थ में प्रयोग किया। राम भारत के कण-कण में इसलिए रम गए कि वे भारत की संस्कृति का एक अटूट भाग बन गए। यह पहचानना तक कठिन हो गया कि राम स्वयं एक संस्कृति हैं या भारत की संस्कृति राममय है।

राम वैदिक संस्कृति के प्रतीक हैं। राम परमपिता परमेश्वर के निराकार स्वरूप के उपासक रहे। वह सन्ध्या, हवन आदि करते थे। उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र में वैदिक मर्यादाओं को बांधने का ऐसा प्रशंसनीय प्रयास किया। जिससे वे स्वयं और भारत की वैदिक संस्कृति एक दूसरे के पूरक से दिखाई देने लगे।

राम बने क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत

श्री राम के आदर्श राष्ट्रवादी स्वरूप ने भारत के अनेकों क्रांतिकारियों को प्रभावित किया। जैसे श्रीराम ने अपने समय में राक्षसों का संहार करना अपना जीवन ; आदर्श बना लिया था, वैसे ही राक्षस विदेशी शासकों का अंत कर भारत को स्वराज दिलाने का संकल्प लेकर हमारे अनेकों क्रांतिकारियों ने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया । राम के इस प्रेरक, अनुकरणीय और राष्ट्रवादी स्वरूप को नमन करते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने भी उन्हें उचित सम्मान दिया । संविधान की प्रथम प्रति में लंका विजय के बाद पुष्पक विमान में बैठकर जाने वाले श्रीराम, सीताजी व लक्ष्मण जी का चित्र दिया गया है। 
 यह एक आश्चर्यजनक और सुखद तथ्य है कि हमारी संविधान निर्मात्री सभा में सभी संप्रदायों के सदस्यों ने श्री राम के इस चित्र का स्वागत किया था। उस समय किसी को भी इस चित्र के संविधान की मूल प्रति में छपने से आपत्ति नहीं हुई थी । यह अलग बात है कि सांप्रदायिक सोच रखने वाले राष्ट्र विरोधी लोगों ने कालांतर में इस बात का विरोध किया और सरकार ने भी अगली प्रतियों में से श्री राम की के इस चित्र को हटा दिया।

जब श्री राम का चित्र भारतीय संविधान की प्रतियों से हटाया गया तो यह वास्तव में भारत में सांप्रदायिक शक्तियों की जीत थी। उन लोगों की जीत थी जो भारत और भारतीयता में विश्वास नहीं रखते और उन्हें अपमानित करने का हर संभव प्रयास करते हैं ।
हमारे संविधान की मूल प्रति में श्रीराम के साथ-साथ गीतोपदेश करते भगवान् श्रीकृष्ण, भगवान् बुद्ध, भगवान् महावीर आदि श्रेष्ठ पुरूषों के चित्र भी हैं। हमें गर्व है कि हमारे इन अनेकों इतिहास पुरुषों को हमारे संविधान की मूल प्रति में स्थान दिया गया। वास्तव में इस प्रकार स्थान दिया जाना हमारी उस राष्ट्रवादी सोच का प्रतीक था जो हमें मौलिक रूप से अपने इतिहास नायकों के प्रति समर्पित होने का संकल्प दिलाती है।
हमारे इन सभी महापुरुषों ने किसी समय विशेष पर भारत के लोगों को विशेष रूप से प्रभावित किया है ।।श्री राम और श्री कृष्ण जी का व्यक्तित्व तो इतना विशाल है कि वह आज तक भारत सहित सारे विश्व के लोगों को प्रभावित और प्रेरित कर रहा है। जब भारत के संविधान निर्माता श्री राम और कृष्ण को भारत के संविधान की मूल प्रति में स्थान दे रहे थे तो उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि इन दोनों महापुरुषों को भी आने वाले समय में लोग सांप्रदायिकता के नाम पर संविधान की प्रति से बाहर कर देंगे। हमारा मानना है कि इन दोनों महापुरुषों के चित्र संविधान की आने वाली हर प्रति में या प्रत्येक संस्करण में उपलब्ध रहने चाहिए थे। जिससे कि इनके महान व्यक्तित्व से आने वाली पीढ़ियां प्रेरणा लेती रहें ।अपने देश के संविधान में यदि श्री राम का चित्र अंकित किया गया तो इसका अभिप्राय था कि हमारे देश के संविधान निर्माता उन्हें राष्ट्रीय आदर्श के रूप में स्थापित करके देश की आने वाली पीढ़ियों के सामने प्रस्तुत करना चाहते थे। दुर्भाग्यवश देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी सरकारें संविधान के निर्माताओं की इस पवित्र भावना से खिलवाड़ करते हुए भारत की आत्मा को नीलाम कर गई और उन्होंने देश के संविधान से बिना किसी घोषणा के श्रीराम का फोटो हटा दिया।

श्री राम संसार के पहले समाजवादी थे

यह एक दुखद तथ्य है कि आज के समाजवादी भारतीय संस्कृति के विरोधी होकर कम्युनिस्ट विचारधारा में रंग गए हैं। जबकि कम्युनिस्ट आंदोलन और समाजवाद दोनों अलग-अलग दिशा में सोचने वाली विचारधाराएं हैं। श्री राम के विषय में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के बड़े पवित्र विचार थे ।  डॉ0 राममनोहर लोहिया जी ने कहा है-‘‘राम-कृष्ण-शिव हमारे आदर्श हैं। राम ने उत्तर-दक्षिण जोड़ा और कृष्ण ने पूर्व-पश्चिम जोड़ा। अपने जीवन के आदर्श इस दृष्टि से सारी जनता राम-कृष्ण-शिव की तरफ देखती है। राम मर्यादित जीवन का परमोत्कर्ष हैं, कृष्ण उन्मुक्त जीवन की सिद्धि हैं और शिव यह असीमित व्यक्तित्व की संपूर्णता है। हे भारत माता ! हमें शिव की बुद्धि दो, कृष्ण का हृदय दो और राम की कर्मशक्ति, एकवचनता दो।’’

आज के जिन तथाकथित समाजवादियों को श्रीराम के जीवन और आदर्शों से घृणा है या जो उनका नाम लेना तक सांप्रदायिकता मानते हैं, उन्हें अपने आदर्श नायक राम मनोहर लोहिया जी के उपरोक्त कथन से प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्हें यह समझना चाहिए कि इस देश की आत्मा के प्रतिनिधि के रूप में श्री राम का सम्मान करना भारत की उस मौलिक संस्कृति का सम्मान करना है जो सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखती हैं और वास्तविक समाजवाद को स्थापित करती है। समाजवाद का उद्देश्य है कि समाज को ऐसा परिवेश उपलब्ध कराया जाए जिसमें प्रत्येक व्यक्ति निर्भय होकर अपना जीवन यापन कर सके। जहां पर किसी भी प्रकार का उपद्रव, उत्पात और उग्रवाद ना हो। यदि इस दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो श्रीराम विश्व के पहले समाजवादी थे जिन्होंने संसार को राक्षसों से और उग्रवादी या आतंकवादियों से निर्भय होकर जीने के लिए परिवेश उपलब्ध कराया था। आज के समाजवादी जब कहीं आतंकवादियों ,उग्रवादियों ,समाजविरोधी या देशविरोधी लोगों का समर्थन करते देखे जाते हैं तो संसार के सबसे पहले समाजवादी श्रीराम और इन आधुनिक समाजवादियों की तुलना करके बहुत दुख होता है।
यदि सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो …

 यदि हमारे देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ना होकर उनके स्थान पर सरदार पटेल होते तो बहुत संभव था कि जैसे उन्होंने नअपने जीवन काल में सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार करा दिया था वैसे ही वह बिना किसी न्यायिक लड़ाई के अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने का आदेश कर देते। सरदार पटेल जी के रहते यह भी संभव था कि तब वह स्वयं अयोध्या में जाकर श्री राम मंदिर निर्माण के लिए आधारशिला रखते। 

हमारा ऐसा मानने का कारण यह है कि सरदार पटेल राष्ट्रबोध और इतिहासबोध को नेहरू और गांधी की अपेक्षा कहीं अधिक गहराई से समझते थे। वह इस बात को भली प्रकार जानते व समझते थे कि भारत को यदि वैश्विक सभ्यताओं के संघर्ष में प्रथम पंक्ति में खड़ा करना है तो इसके लिए उसे अपने इतिहास नायकों का सम्मान करना सीखना होगा। जब तक हम ऐसा नहीं कर पाएंगे, तब तक हम अपने आपको एक स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में संसार में स्थापित नहीं कर पाएंगे।
सरदार पटेल महान सोच और महान व्यक्तित्व के धनी थे। जब उन्होंने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार का संकल्प लिया था तो उनके उस संकल्प का विरोध गांधीजी भी नहीं कर पाए थे। यहां तक कि नेहरू मंत्रिमंडल ने भी उसे संसद में पारित हो जाने दिया था। यद्यपि उस मन्त्रिमण्डल में मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कट्टर मुस्लिम मंत्री भी सम्मिलित थे । उस समय सरकार ने सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार को राष्ट्रीय संकल्प की पूर्ति के रूप में देखा था और यह भी मान लिया था कि अब से पूर्व औरंगजेब सहित जिन जिन मुस्लिम बादशाहों, सुल्तानों या आक्रमणकारियों ने भी इस मंदिर को तोड़ा, वह एक राष्ट्रीय अपराध था।
आजादी की सुप्रभात में लिए गए इस संकल्प की परंपरा को आगे बढ़ाने की आवश्यकता थी ,परंतु वह बढ़ाई नहीं गई । उस समय सरदार पटेल के समक्ष सबकी बोलती बंद हो गई थी। इसी को तेजस्वी नेतृत्व और तेजस्वी राष्ट्रवाद कहते हैं। जिसके समक्ष दोगली विचारधारा वाले दोगले लोग शांत हो जाएं और जो वह जो भी करना चाहता है , उसे करने दें। सरदार पटेल ने अपने जीवन काल में नेहरु जी को कभी भी अपना नेता नहीं माना। एक अवसर पर उन्होंने नेहरू जी से कड़े और स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि आप प्रधानमंत्री तो हैं पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि आप सर्वोपरि हैं। इसका अभिप्राय मात्र इतना है कि आप बराबर वालों में प्रथम स्थान पर हैं ,अर्थात मंत्रिमंडल के सभी सदस्य बराबरी का स्थान और सम्मान रखते हैं। प्रधानमंत्री की हैसियत मात्र इतनी है कि वह इन सब मंत्रियों में प्रथम स्थान पर गिना जाता है।

जब डॉ राजेंद्र प्रसाद का विरोध किया था नेहरू ने

सरदार पटेल संसार से जल्दी चले गए थे। उनकी मृत्यु के लगभग 6 महीने पश्चात सोमनाथ मंदिर में 11 मई 1951 को हमारे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद पहुंचे थे। नेहरू सहित अनेकों धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं ने उनके इस प्रकार वहां जाने का विरोध किया था। परंतु शांति की प्रतिमूर्ति डॉ राजेंद्र प्रसाद पर उनके इस विरोध का कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। सोमनाथ मंदिर में पहुंचे हमारे देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपना ओजस्वी वक्तव्य देते हुए कहा, ‘‘सोमनाथ भारतीयों का श्रद्धा स्थान है। श्रद्धा के प्रतीक का किसी ने विध्वंस किया तो भी श्रद्धा का स्फूर्तिस्रोत नष्ट नहीं हो सकता। इस मंदिर के पुनर्निर्माण का हमारा सपना साकार हुआ। उसका आनन्द अवर्णनीय है।’’
सोमनाथ मंदिर के बारे में महात्मा गांधी जी के भी विचार बड़े अच्छे थे। 25 दिसम्बर 1947 को दिल्ली के बिरला हाउस में एक उर्दू समाचार पत्र में लेख आया था कि अगर सोमनाथ आएगा तो फिर से गजनी आयेगा। किसी मुस्लिम के द्वारा लिखे गए इस लेख से गांधीजी दुखी हो गए थे। उन्हें इस प्रकार का बोलना या लिखना अच्छा नहीं लगा था। तब उन्होंने अपने प्रवचनों में कहा था–”मोहम्मद गजनी ने जंगली, हीन काम किया। उसके बारे में यहां के मुसलमान गर्व का अनुभव करते हैं तो यह दुर्भाग्य का विषय है। इस्लामी राज में जो बुराइयाँ हुईं, उन्हें मुस्लिमों को समझना और कबूल करना चाहिए। अगर यहां के मुसलमान फिर से गजनी की भाषा बोलेंगे तो इसे यहां कोई बर्दाश्त नहीं करेगा।’’
जैसे आस्था सोमनाथ के विषय में गांधी जी ने दिखाई वैसी ही आस्था उन्हें श्री राम जन्मभूमि के प्रति भी दिखानी चाहिए थी। यदि वह ऐसा कर जाते तो निश्चय ही उनका देश पर यह भारी ऋण होता। यह बहुत ही दुख का विषय रहा कि सोमनाथ के प्रति आस्था रखने वाले और गजनी को विदेशी आक्रमणकारी मानकर उसकी निंदा करने वाले गांधीजी के अनुयायी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं और उनकी सरकारों ने श्री राम जन्मभूमि और राम मंदिर के विषय में अपनी सोच और नीति बदल दी। उन्हें भारत में श्रीराम का अस्तित्व या उनका मंदिर निर्माण किया जाना भी सांप्रदायिकता दिखाई देने लगा।
यही कारण रहा कि भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा को भी इन धर्मनिरपेक्ष नेताओं की सरकारों के रहते घुन लगने लगा। हर क्षेत्र में दोगलापन और दोगली नीतियों को लागू किया जाने लगा। जिससे धीरे-धीरे राम, राम की आस्था, राम की संस्कृति , वेद और वैदिक अवधारणाओं की उपेक्षा होने लगी।

हमारी वैचारिक गुलामी बनी रही

जबकि होना यह चाहिए था कि हम श्रीराम की वीरता और शौर्य को अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार बनाकर एक सक्षम, समर्थ और मजबूत बलशाली भारत के निर्माण के लिए संकल्पित होकर आगे बढ़ते । यह संकल्प हमारी राष्ट्रीय चेतना का विषय बनना चाहिए था । जिसके लिए समग्र राष्ट्र समवेत स्वर से सामूहिक प्रयास करता। एक लक्ष्य निर्धारित किया जाता और उस लक्ष्य के प्रति समर्पण का भाव राष्ट्रीय घोष बनता। यदि ऐसा होता ति निश्चित रूप से भारत आज तक विश्व नेतृत्व करने की स्थिति को प्राप्त कर गया होता। यह तब और भी आवश्यक और अपेक्षित हो गया था जब हमारी स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात की बनने वाली सरकारों ने यूरोप के कई देशों को अपने गुलामी के प्रतीकों को ध्वस्त करते हुए देखा।
अपने राष्ट्र के निर्माण में इन देशों के लोग सामूहिक चेतना शक्ति के साथ जुट गए। इतिहास का यह एक तथ्य है कि 1815 में रूस ने पोलैंड को जीता। तब रूस ने पोलैण्ड की राजधानी वारसा के एक चौराहे पर एक चर्च का निर्माण किया।1918 में पोलैण्ड स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पोलैण्ड की सरकार ने रूस निर्मित उस चर्च को अपनी गुलामी का प्रतीक माना। इसलिए पोलैंड की सरकार ने रूस निर्मित उस चर्च को गिरा दिया और वहां पर अपने द्वारा निर्मित चर्च स्थापित किया। जबकि हमारी सरकारों ने ब्रिटिश गुलामी के प्रतीक अनेकों स्थलों – भवनों को ज्यों का त्यों बनाए रखा। यहां तक कि देश की वर्त्तमान संसद भी अंग्रेजों द्वारा निर्मित है । जिसे हम आज तक उसी रूप में प्रयोग कर रहे हैं। इसका अभिप्राय है कि हमारी वैचारिक गुलामी यथावत बनी रही।

भारत के नेतृत्व ने इतिहास से शिक्षा नहीं ली

ऐसा नहीं है कि भारत में अपनी गुलामी के प्रतीकों को तोड़ने का पुरुषार्थी स्वभाव नहीं रहा। हमारे पूर्वजों ने ऐसी अनेकों मस्जिदों को भूमिसात कर फिर-फिर मंदिरों के निर्माण किया जिन्हें मुसलमानों ने मुगलों या तुर्कों के समय में समाप्त कर दिया था। छत्रपति शिवाजी ने ऐसे अनेकों मंदिरों का जीर्णोद्धार किया था जिन्हें औरंगजेब या उसके पूर्ववर्ती मुगलों ने भूमिसात कर दिया था। जब शिवाजी ऐसा कार्य कर रहे थे तो वह निसंदेह श्री राम के पुरुषार्थी व पराक्रमी व्यक्तित्व से ही प्रेरणा लेकर ऐसा कर रहे थे।
हमारा मानना है कि भारत में राष्ट्रीय चेतना के मुखरित होने का कारण श्री राम की अब से लाखों साल पहले की गई घोर साधना भी रही। जैसे मानव के शरीर में उसकी अंतर्मुखी शक्तियों अर्थात उसकी रोग निरोधक क्षमता के मजबूत होने से उसे बाहरी चिकित्सक के द्वारा दी गई औषधि गुणकारी होती है वैसे ही किसी राष्ट्र की भीतरी चेतना शक्ति के मजबूत होने से ही उसे बाहरी चेतना प्रज्वलित करने में सहायक होती है । पत्थर में यदि आग नहीं होगी तो बाहर से कितने ही रगड़ा लगा लेना वह अग्नि पैदा नहीं कर पाएगा। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे किसी मनुष्य की भीतरी रोग निरोधक क्षमता समाप्त हो जाए या कमजोर पड़ जाए तो उसे किसी बाहरी चिकित्सक के द्वारा दी गई औषधि किसी काम की नहीं होती। राष्ट्र की भीतरी शक्ति को अथवा चेतना को अथवा रोग निरोधक क्षमता को उस देश के राष्ट्र निर्माता महापुरुष अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से, कार्य नीति और सोच से मजबूत और प्रबल करते हैं।

राम नाम का आकर्षण

   श्री राम हमारे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ऐसे ही पुरोधा हैं। भारत वासियों के लिए उनके नाम में ही एक ऐसा आकर्षण है जो हम सबको देश ,धर्म और संस्कृति के प्रति समर्पित होकर रहने की शिक्षा देता है। राम इस देश के प्रत्येक नागरिक के पूर्वज हैं । क्योंकि हम सभी एक ही मूल की शाखाएं हैं। हमारे मूल में श्री रामचंद्र जी का पुरुषार्थ है। उनका शौर्य और साहस है। उनकी नैतिकता मर्यादा और आध्यात्मिक चेतना है । निसंदेह भारत ऋषियों का देश है । भारत देश उन प्रतापी शासकों का भी देश है जो इस देश की संस्कृति के लिए जिए। ऐसे प्रतापी महान शासकों में श्री राम का नाम सर्वोपरि है।
अपने व्यक्तित्व के महान गुणों के कारण श्री राम भारतवर्ष के हिंदू समाज में तो सम्मान और श्रद्धा के केंद्र हैं ही वह भारत से बाहर भी कई देशों में सम्मान और श्रद्धा के केंद्र हैं। कई मुस्लिम देश भी ऐसे हैं जो श्रीराम को अपना महान पूर्वज स्वीकार करने में गर्व की अनुभूति करते हैं। सबसे अधिक जनसंख्या वाला मुस्लिम देश इंडोनेशिया इस प्रकार के देशों में सर्वोपरि स्थान रखता है । जिसमें आज भी रामलीला का मंचन होता है।

कंबोडिया, श्रीलंका, चीन, ईरान, नेपाल समेत संसार के कई देशों में राम का नाम बहुत ही श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है। भारत के बाहर भी यदि दर्जनों देशों में श्री रामचंद्र जी का नाम श्रद्धा और सम्मान के लिए साथ लिया जाता है तो मानना पड़ेगा कि उनका व्यक्तित्व अपने समय में अत्यंत विशाल था। श्री राम के नाम का आकर्षण सभी देशों के निवासियों को एक दूसरे से अदृश्य रूप में बांधने जोड़ने का काम करता है। इस प्रकार आज भी श्री राम का नाम विश्व संयोजक के रूप में स्वीकार किया जाना कोई बुरी बात नहीं है। हमारा मानना है कि विश्व संयोजक के रूप में श्री राम को वैश्विक चेतना का प्रतीक स्वीकार किया जाना चाहिए।

संपूर्ण भूमंडलवासियों के सम्मान के पात्र हैं श्री राम

संपूर्ण भूमंडल पर लोग उनका सम्मान करते थे यह तभी संभव हो पाया था जब उन्होंने संपूर्ण वसुधा से राक्षस संस्कृति का विनाश कर देवताओं की वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार करना अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। संसार के लोग उनके प्रति इसलिए भी श्रद्धावान बने कि श्रीराम ने उस समय सभी देशों के लोगों को समान अधिकार देने का महान कार्य संपादित किया। वह सबके मौलिक अधिकारों के लिए लड़ते रहे और उन राक्षसों का संहार करते रहे जो लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रहे थे। आज के पाकिस्तान का लाहौर नामक नगर रामचंद्र जी के बेटे लव के नाम से ही बसाया गया था।
इसके अतिरिक्त श्री राम और रामायण काल से जुड़े अनेकों ऐतिहासिक स्थल आज के पाकिस्तान में स्थित हैं। इतना ही नहीं आज का ताशकन्द भरत के बेटे तक्ष के नाम से ‘तक्षखंड’ के रूप में स्थापित किया गया था। जिससे पता चलता है कि श्री राम का नाम वहां तक भी श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता था। हमारा पड़ोसी देश बर्मा भी रामचंद्र जी के प्रति आस्थावान रहा है । आज भी वहां अनेक लोकगीतों में रामलीला के नाटक खेले जाते हैं।
बर्मा में रामवती नगर राम नाम पर स्थापित हुआ था। वहां के अमरपुर के एक विहार में सीता-राम, लक्ष्मण और हनुमान जी के चित्र आज तक अंकित हैं।

कई देशों में श्री राम को मिलता है सम्मान

जिस समय रामचंद्र जी का जन्म हुआ उस समय रावण का राज्य विश्व के बड़े भूभाग पर था । आज का रूस, चीन, अमेरिका सहित विश्व के अन्य क्षेत्र भी रावण के राज्य के अधीन था । उसके राज्य में जनता बहुत पीड़ित थी । क्योंकि रावण के लोग लोकतांत्रिक ढंग से शासन न करके लोगों के मौलिक अधिकारों का शोषण व हनन कर रहे थे। विद्वानों का यह भी मानना है कि रावण का राज्य मेडागास्कर द्वीप से लेकर ऑस्ट्रेलिया तक के द्वीप समूहों पर भी था। जब रामचंद्र जी ने रावण का अंत कर दिया तो विश्व के जितने भूभाग पर रावण का राज्य था वहां- वहां के लोगों ने रामचंद्र जी के इस महान कार्य पर प्रसन्नता व्यक्त की और उनकी महानता के गीत गाए ।उस समय के विश्व की यह बहुत बड़ी घटना थी। जिसे रामचंद्र जी ने अपने 14 वर्ष के वनवास काल में बनाई गई अपनी विशेष और प्रभावकारी योजना के द्वारा मात्र 14 वर्ष में सफलतापूर्वक परिणति तक पहुंचाया था। उस समय लोगों को यह आशा नहीं थी कि कोई व्यक्ति रावण के राज्य का अंत कर उन्हें लोकतांत्रिक अधिकार प्रदान करते हुए जीवन जीने के अवसर उपलब्ध कराएगा। बस, यही कारण था कि जब उन्हें असंभव कार्य संभव हुआ दिखाई दे गया तो उस असंभव को करने वाले श्री राम के प्रति वह श्रद्धा से नतमस्तक हो गए। तब लोगों ने श्रीराम को राष्ट्रपिता से भी ऊपर भगवान मानकर सम्मान दिया। आजकल हम महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहते हुए लोगों को सुनते हैं। महात्मा गांधी जी के बारे में कह दिया जाता है कि उन्होंने ब्रिटिश शासकों को भारत से भगाया, पर इतिहास की साक्षी ऐसी नहीं है कि महात्मा गांधी के प्रयास से अंग्रेज भारत छोड़ गए थे।
यदि फिर भी एक बार यह मान लिया जाए कि अंग्रेजों ने भारत को गांधीजी के प्रयास से छोड़ दिया था तो भी महात्मा गांधी श्रीराम जैसा महान और पवित्र कार्य कभी नहीं कर पाए कि उन्होंने राक्षसों का अंत संपूर्ण भूमंडल से ही कर दिया हो ? इसके विपरीत गांधीजी राक्षसों के सामने झुकते हुए नजर आते हैं । राक्षसों और मानव जाति के लिए कलंक आतंकवादियों का अंत करना भी गांधी जी पाप समझते हैं। वे अपने जीवन के अधिकांश भाग में उन आतंकवादी अंग्रेजों का गुणगान करते रहे जिन्होंने संसार भर में मानव अधिकारों का हनन करने के कीर्तिमान स्थापित किए । इतना ही नहीं गांधीजी जीवन भर अपना आदर्श औरंगजेब को भी मानते रहे।

‘राष्ट्रपिता’ के रूप में श्री राम

रामचंद्र जी यदि गांधी जी के स्थान पर होते तो निश्चित रूप से आतंकवादियों और पापियों को आतंकवादी और पापी ही कहकर संबोधित करते और उनके विनाश को अपना जीवन लक्ष्य बनाते । भारत की परंपरा में ऐसे किसी व्यक्ति को राष्ट्रपिता नहीं माना जा सकता जो राक्षसों के अंत को भी पाप समझता हो। भारत में तो उसी व्यक्ति को ‘राष्ट्रपिता’ या ‘भगवान’ माना जाता है जो संसार से पापों का नाश करे और साथ ही साथ पापियों को भी मौत की नींद सुलाने की क्षमता और सामर्थ्य रखता हो।
यद्यपि हम व्यक्तिगत रूप से किसी भी व्यक्ति को ‘राष्ट्रपिता’ नहीं मानते ।क्योंकि वास्तविक राष्ट्रपिता तो वह परमपिता परमेश्वर है जो इस चराचर जगत का निर्माता, पालन कर्त्ता और संहारकर्त्ता है। फिर भी इस लौकिक संसार में परमपिता परमेश्वर की सृष्टि व्यवस्था के अनुकूल कार्यों को संपन्न करने वाले व्यक्ति को ऐसा सम्मान दिए जाने के हम विरोधी भी नहीं हैं। निस्संदेह श्रीराम ने परमपिता परमेश्वर की सृष्टि व्यवस्था के अनुरूप कार्य करते हुए अपना जीवन यापन किया। इसीलिए वह संसार के महानतम व्यक्ति के रूप में स्थापित हुए।
जब श्रीराम ने रावण जैसे राक्षस का अंत किया तो उनकी कीर्ति संपूर्ण जगत में व्याप्त हो गई। यही कारण है कि अनेकों द्वीपों व देशों में उनके नाम की कीर्त्ति आज तक भी किसी न किसी रूप में मिलती है। कई स्थानों पर मुसलमान भी उन्हें अपना पूर्वज मानकर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं और अपने नाम के साथ ‘राम’ शब्द जोड़कर अपने आत्मिक गौरव को प्रकट करते हैं। मलेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ ‘राम-लक्ष्मण’ और ‘सीता’ का नाम बड़े गर्व के साथ जोड़ते हुए देखे जाते हैं।।यहां रामायण को ‘हिकायत सेरीराम’ कहते हैं। ये लोग श्री राम को अपना पूर्वज और महान शासक मानकर उनका सम्मान करते हैं। उनकी मान्यता है कि श्रीराम एक पूर्ण पुरुष थे और उनमें एक भी दोष नहीं था।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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