राजनीतिक गोटियां बिछाने में व्यस्त और मस्त हैं हमारे देश के नेता

नरेंद्र नाथ 

2024 आम चुनाव से पहले एक तरफ विपक्षी एकता की कोशिश चल रही है तो कुछेक क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय हसरत भी नए सिरे से जग रही है। ऐसे समय में जब कांग्रेस खुद अपने अंदरूनी संकट से जूझ रही है और तमाम राज्यों में गुटबाजी के कारण कमजोर हो रही है, इन क्षेत्रीय दलों को दायरा बढ़ाने का बड़ा मौका दिख रहा है। कुछ जगहों पर वे बहुत हद तक मजबूत शुरुआत भी ले चुके हैं। इनमें जो दो पार्टियां राष्ट्रीय विस्तार की योजना को सबसे आक्रामक रूप से आगे बढ़ा रही हैं, उनमें से एक है ममता बनर्जी की अगुआई में टीएमसी और दूसरी, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी। दोनों दलों ने पिछले कुछ महीनों में अपनी गतिविधियां अपने मूल राज्य पश्चिम बंगाल और दिल्ली से बाहर काफी तेज कर दी हैं। दोनों की बढ़ती सक्रियता न सिर्फ बीजेपी के लिए चुनौती पेश कर सकती है बल्कि इससे कांग्रेस के लिए भी खतरा पैदा हो सकता है। इतिहास गवाह है कि कई क्षेत्रीय दलों ने विस्तार कांग्रेस की कमजोर हुई ताकत की कीमत पर ही किया है। हालांकि, टीएमसी और आम आदमी पार्टी की ये कोशिशें कितनी कामयाब होंगी, अभी इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
ममता का दिल्ली प्लान
पश्चिम बंगाल विधानसभा में जीत की हैट्रिक लगाने के बाद से ही ममता बनर्जी अपनी राष्ट्रीय हसरत को व्यक्त करने में कोई संकोच नहीं कर रही हैं। उन्होंने न सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने की दिशा में पहल तेज की बल्कि अपनी पार्टी को बंगाल के बाहर फैलाने का ग्रैंड प्लान भी पेश किया। इसमें ममता ने अपने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की भी मदद ली। इन सबका अब जमीन पर असर भी दिखने लगा है। त्रिपुरा में पार्टी ने अपनी उपस्थिति दिखानी शुरू कर दी है। असम में भी उनकी पार्टी ने कांग्रेस की सीनियर नेता सुष्मिता देव को अपने पाले में कर लिया। सूत्रों के अनुसार, अगले कुछ दिन में दूसरे दलों के कई और नेता पार्टी में शामिल होंगे। इस सिलसिले में पार्टी का ध्यान अभी उत्तर-पूर्व पर है। उसका लक्ष्य अगले आम चुनाव में पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों के अलावा प्रदेश के बाहर की कुछ सीटों पर भी गंभीर दावेदारी पेश करना और अगले विधानसभा चुनावों में उत्तर-पूर्व राज्यों में खुद को एक मजबूत विकल्प के रूप में पेश करना है। दरअसल, टीएमसी की इस विस्तारवादी योजना के पीछे की सोच यह है कि कमजोर होती कांग्रेस के बीच ममता बनर्जी उन चंद क्षेत्रीय नेताओं में शामिल हैं, जो नरेंद्र मोदी के सामने एक मुखर विरोधी के रूप में सामने आई हैं। हालांकि ममता ने खुद को अभी तक पीएम पद की दावेदारी से अलग कर रखा है। उन्हें पता है कि इस दिशा में हड़बड़ी दिखाने के अपने जोखिम हैं। साथ ही, ममता के तमाम दूसरे विपक्षी दलों से राजनीतिक समीकरण बेहतर हैं। अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, उद्धव ठाकरे सहित सोनिया गांधी तक से उनके करीबी संबंध रहे हैं।

वैसे सच यह भी है कि राष्ट्रीय राजनीति में आने की यह उनकी पहली कोशिश नहीं है। 2016 में राज्य में मिली जीत के बाद भी उन्होंने ऐसी कोशिश की थी, लेकिन तब वह प्रयास कोई आकार नहीं ले सका था। उस वक्त ममता बनर्जी के राष्ट्रीय राजनीति में वाया हिंदी पट्टी पहुंचने के प्रयासों की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगता था कि उन्होंने बाकायदा हिंदी सीखना भी शुरू कर दिया था। ज्योति बसु के बाद ममता बनर्जी पहली गैर-कांग्रेसी नेता हैं, जिनकी राष्ट्रीय दावेदारी पश्चिम बंगाल से निकलती दिख रही है। 90 के दशक में पश्चिम बंगाल से लेफ्ट के दिग्गज नेता और देश में सबसे लंबे समय तक सीएम रहने वाले ज्योति बसु भी राष्ट्रीय राजनीति में आए थे। उन्हें बिना किसी कवायद के तीसरे मोर्चे का नेता और पीएम बनने का मौका भी मिला था, लेकिन पार्टी ने उन्हें इजाजत नहीं दी। बाद में ज्योति बसु ने इसे एक राजनीतिक भूल कहा। उनके बाद ममता बनर्जी ही ऐसी नेता हैं जिनमें राष्ट्रीय राजनीति में खुद को आजमाने की इच्छा अभी से दिख रही है।
केजरीवाल का प्लान 2.0
अगले कुछ महीने अरविंद केजरीवाल के लिए भी अहम हैं। पिछले कुछ सालों से दिल्ली से बाहर पैर जमाने में जुटे केजरीवाल की पार्टी आप अगले साल की शुरुआत में पंजाब के अलावा उत्तराखंड और गोवा में चुनौती पेश करने के अलावा उत्तर प्रदेश में भी दांव लगाने को तैयार है। पंजाब में पार्टी ने बतौर राजनीतिक दल खुद को स्थापित कर लिया है। इसके अलावा अगले साल के अंत में गुजरात में भी पार्टी ने पूरी ताकत से लड़ने का ऐलान कर दिया है। गुजरात में पिछले दिनों स्थानीय निकाय के चुनाव में उसके असर दिखाने के बाद वहां भी संभावना दिखने लगी है। अरविंद केजरीवाल अगर इन विधानसभा चुनावों में छाप छोड़ने में सफल रहे तो 2024 में फिर स्थानीय से राष्ट्रीय की ओर बढ़ने का एक और प्रयास आक्रामक रूप ले सकता है। दिल्ली से बाहर विस्तार करने के लिए आम आदमी पार्टी ने इस बार दिल्ली मॉडल ऑफ गवर्नेंस को सबसे अहम सियासी दांव बनाया है। दरअसल, इससे पहले भी आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर पांव पसारने की दो कोशिशें कर चुकी है।
आठ साल पहले 2013 में जब उन्हें दिल्ली में पहली चुनावी सफलता मिली, तब उनकी और उनकी पार्टी के पास जल्दबाजी में राष्ट्रीय राजनीति में छाने का लोभ आया। वैकल्पिक राजनीति के नाम पर 2014 आम चुनाव में पार्टी ने बिना जमीनी तैयारी के करीब 400 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा और सबसे अधिक जमानत जब्त कराने और हारने वाली पार्टी बन गई। फिर 2017 में पंजाब, गोवा विधानसभा सहित कुछ राज्यों के चुनाव में उतरी। इस बार उसने पंजाब में जरूर चुनौती खड़ी की, लेकिन इसके अलावा दूसरे राज्यों में पूरी तरह से विफल रही। 2020 में केजरीवाल ने साबित किया कि दिल्ली पर उनकी पकड़ बनी हुई है। तब से आम आदमी पार्टी ने सुनियोजित तरीके से राज्य दर राज्य विस्तार की शुरुआत की। कुल मिलाकर अगला साल साबित करेगा कि 2024 से पहले बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने की होड़ में कांग्रेस के अलावा और कौन-कौन से दल अपने राज्यों की सीमा से आगे निकलकर सामने आते हैं।

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