यदि अपील में देरी होती है तो अधिकारी होंगे जुर्माने के हकदार

 

अनूप भटनागर

बताते हैं कि अदालतों में मुकदमे दायर करने के मामले में केंद्र और राज्य सरकारें सबसे आगे हैं। यही नहीं, केन्द्र और राज्य सरकारों के संबंधित विभागों के अधिकारी उच्चतम न्यायालय में अपील या विशेष अनुमति याचिका दायर करने के लिये निर्धारित समय सीमा की अवहेलना करने के मामले में भी सबसे आगे हैं। सर्वोच्च न्यायालय विलंब से अपील दायर करने के मामलों में कई बार सख्त टिप्पणियां करने के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों पर इसके लिए जुर्माना भी लगा चुका हैै।

न्यायालय को भी अब लगता है कि सिर्फ ‘खारिज हुआ प्रमाणपत्र’ प्राप्त करने के लिए ही सरकारी महकमे ऐसा करते हैं। इसलिए उसने भी इन्हें वर्गीकृत प्रमाणित मामलों की श्रेणी में रखना शुरू कर दिया है। ऐसे मामलों में अधिकारी अपनी जवाबदेही से बचने के लिए ऐसा करते हैं ताकि भविष्य में उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा सके और मुकदमे में राहत नहीं मिलने का ठीकरा न्यायालय पर फोड़ा जा सके। न्यायालय ने अब इस तरह के अत्यधिक विलंब के मामलों में सरकारों पर जुर्माना करने के साथ ही इसकी जांच करने और विलंब की जिम्मेदारी निर्धारित करके ऐसे अधिकारियों से यह रकम वसूलने का आदेश देना शुरू कर दिया है। न्यायालय ने अपने आदेशों में यह भी कहा है कि लापरवाह अधिकारियों से धनराशि वसूले जाने का प्रमाणपत्र उसके सामने पेश किया जाए। केन्द्र और राज्य सरकारों पर जुर्माना लगाने के न्यायिक आदेशों का बहुत ज्यादा असर नहीं होते देख अब उच्चतम न्यायालय ने ऐसा निर्णय लिया।

किसी वाद में आदेश या फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में 90 दिन के भीतर अपील करनी होती है। इस अवधि के बाद अपील दायर होने पर विलंब माफ करने का आवेदन किया जाता है। आमतौर पर न्यायालय इस विलंब के लिए माफी का अनुरोध स्वीकार कर लेता है। लेकिन यह देखा जा रहा है कि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से दायर होने वाली याचिकाओं तथा अपीलों में विलंब हफ्ता दो हफ्ता नहीं बल्कि चार-चार साल तक का हो रहा है। न्यायालय बार-बार सरकारों को आगाह कर रहा है कि वह विलंब से अपील या याचिका दायर करने के सरकारी अधिकारियों के रवैये को अपना अधिकार नहीं समझे। सरकार को तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी अपील या याचिका कानून और नियमों के तहत निर्धारित अवधि के भीतर दाखिल की जाए ताकि यह दूसरे वादकारियों के लिए नजीर बने। लेकिन यहां इसका उलटा हो रहा है।

न्यायालय ने नाराजगी के चलते हाल ही में 1356 दिन के विलंब से दायर केन्द्र की एक अपील खारिज करते हुए 25 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया। साथ ही न्यायालय ने कहा कि अगर वह समय के भीतर याचिका दायर करने में सक्षम नहीं है तो उसे समय सीमा की अवधि बढ़ाने का विधायिका से अनुरोध करना चाहिए। केन्द्र सरकार ने पंजाब उच्च न्यायालय के 31 जुलाई, 2017 के फैसले के खिलाफ 1356 दिन के विलंब से याचिका दायर की थी।

इसी तरह से अपील दायर करने में लापरवाही और विलंब के मामले में शीर्ष अदालत ने 23 जनवरी, 2021 को उत्तर प्रदेश और कर्नाटक सरकार पर 25-25 हजार रुपये का जुर्माना किया था। उ.प्र. सरकार ने अपील दायर करने में 502 और कर्नाटक ने 1288 दिन का विलंब किया था। न्यायालय ने जनवरी महीने में ही 1954 दिन के विलंब से अपील दायर करने पर ओडिशा सरकार पर 25 हजार रुपये का जुर्माना किया था जबकि मध्य प्रदेश सरकार को भी 663 दिन के विलंब से अपील दायर करने पर न्यायालय ने जुर्माना लगाया था।

इसी साल फरवरी में न्यायालय ने एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के मई, 2002 के मूल आदेश के 6616 दिन के विलंब से दायर की गयी केंद्र की अपील खारिज करते हुए उस पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। शीर्ष अदालत ने जुर्माने की यह राशि इस विलंब के लिए दोषी अधिकारियों से वसूल कर इसका प्रमाणपत्र पेश करने का भी आदेश दिया था। न्यायालय ने इसी साल अप्रैल में एक आपराधिक मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा 314 दिन के विलंब से अपील दायर किये जाने पर भी नाराजगी व्यक्त की थी। न्यायालय ने जांच एजेंसी से कहा था कि पहले वह इस विलंब की जिम्मेदारी निर्धारित करने के लिए जांच कराये और उसकी रिपोर्ट दे। इसके बाद यह इस अपील को विचारार्थ स्वीकार करने का अनुरोध करे।

दरअसल, केंद्र और राज्य सरकारों की विलंब के कारण दायर अपील खारिज होने का लाभ दूसरे पक्ष को मिलता है। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि इस विलंब में कहीं न कहीं नौकरशाही की मिलीभगत होती है और न्यायालय ने अपने आदेशों में बार-बार कहा भी है कि सिर्फ अपील खारिज होने का प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए ही इतनी देर से इन्हें दायर किया जाता है। बेहतर हो कि सरकार इस ओर गंभीरता से ध्यान दे तथा ऐसे विलंब के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कठोर विभागीय कार्रवाई करे।

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