…. तू भी बोल उठेगा – इदम ब्रह्म

“हे मनुष्य ! जिस दिन उस परम सत्य का साक्षात्कार तुझे हो जायगा तो निश्चय से तू भी बोल उठेगा ‘इदं ब्रह्म’। पुरुष के विषय में कहने लगेगा ‘यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है’।”



तस्माद् वै विद्वान् पुरुषमिदं ब्रह्मेति मन्यते।
सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते।।
-अथर्व० ११।८।३२

ऋषिः – कौरूपथिः।
देवता – अध्यात्म, मन्युः।
छन्द: – अनुष्टुप्।

विनय – सब ज्ञानी लोग कहते हैं कि यह पुरुष ब्रह्म है। क्या तुम जानते हो कि वे ऐसा क्यों कहते हैं ? इसका कारण यह है कि सब-के-सब देवता हमारे शरीर में आये हुए हैं और सब देवों का देव परमदेव परमेश्वर ही हमारे अन्दर है । सूर्य, वायु, अग्नि आदि सब देव हमारे शरीर में ऐसे अपना घर बनाकर आ बैठे हैं जैसे कि अपने गोष्ठ में, गोशाला में, गौएँ यथास्थान बैठी हुई होती हैं। सचमुच हमारा देह देवों का घर बना हुआ है। सूर्य देवता हमारे चक्षु को, ज्ञान को, ज्ञान के विस्तृत कोष को अधिकृत करके आ बैठा है और उसके साथ सम्पूर्ण और द्युलोक के सब देवता समाये हुए हैं। वायु देवता हमारे प्राण में, मनोमय सहित हमारे प्राणशरीर में ठहरा हुआ है और उसके साथ सम्पूर्ण अन्तरिक्ष लोक और अन्तरिक्ष के सब देव आये हुए हैं। और अग्नि देवता हमारे शेष स्थूल शरीर को सँभालकर बैठा हुआ है और उसके साथ समस्त पृथिवीलोक तथा पृथिवी के सब देव विराजे हुए हैं। इस तरह यह सब त्रिलोकी, त्रिलोकी के सब भुवन और भुवनों के सब-के-सब तैंतीस, तीन सौ तीन या तीन हजार तीन देवता इस शरीर में आये हुए हैं। सचमुच सब ब्रह्माण्ड ही इस पिंड में है। इसमें आश्चर्य ही क्या है ? जब वह परमदेव हमारे अन्दर है तो उसकी सम्पूर्ण विभूति, उसका सम्पूर्ण विश्व क्यों न हमारे अन्दर होगा ? वास्तव में सब-कुछ हमारे अन्दर ही है और मनुष्य को जब भी कभी सब-कुछ की प्राप्ति होगी तो अपने अन्दर से ही होगी। बाहर कुछ नहीं है। बाहर तो केवल हमारे अन्दर की छायामात्र है, अस्थिर छायामात्र है। इसलिए हे मनुष्य ! जिस दिन इस परम सत्य का साक्षात्कार तुझे हो जायगा तो निश्चय से तू भी बोल उठेगा ‘इदं ब्रह्म’ । पुरुष के विषय में कहने लगेगा ‘यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है’।

शब्दार्थ – (तस्मात्) इसी कारण (वै) ही (विद्वान्) ज्ञानी लोग (पुरुषं) इस पुरुष को (इदं ब्रह्म इति) ‘यह ब्रह्म है’ ऐसा (मन्यते) मानते हैं। क्योंकि (अस्मिन्) इस पुरुष-देह में (सर्वा हि देवताः) सब-की-सब देवताएँ (गावः गोष्ठे इव) जिस तरह गोशाला में गोएँ बैठी होती हैं उसी तरह (आसते) आ विराजी हुई हैं।
१. वृहदा० उ० ९।१।१


स्रोत – वैदिक विनय। (कार्तिक ४)
लेखक – आचार्य अभयदेव।
प्रस्तुति – आर्य रमेश चन्द्र बावा।

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