मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना, अध्याय -3(2) किताबी फितरत ने मजहब को मोर लेकर …

इतिहास के मर्मज्ञ विद्वानों का मानना है कि भारत में कभी ब्राह्मणों की एक पतित शाखा थी जिसको शैख के नाम से सम्बोधित किया जाता था । भारत के ब्राह्मणों की यही पतित शाखा ईरान और अरब में आज भी निवास करती है । संस्कृत के अर्व से ही अरब देश बना है, जिसका अर्थ घोड़ा या घोड़े की अश्वशाला से है । अतः अरबिस्तान का अभिप्राय हुआ जहाँ – उत्तम प्रजाति के घोड़े मिलते हैं। वास्तव में भारत की संस्कृत भाषा ने ही सम्पूर्ण भूमण्डल के भौगोलिक स्थानों का नामकरण किया । संस्कृत भाषा से ही इन शब्दों की उत्पत्ति हुई। देश ,काल, परिस्थिति के अनुसार कालान्तर में इन संस्कृत मूलक नामों का अपभ्रंश होकर वही स्थानीय बोलियों के नामों में परिवर्तित हो गए। जिससे हमें ऐसा लगने लगा कि ये नाम इन्हीं भाषाओं के शब्द हैं। हमारा मानना है कि संस्कृत से अलग संसार में जितनी भर भी भाषाएं हैं ये सब की सब बोलियां हैं, जिन्हें महिमामंडित करने के लिए लोगों ने भाषाओं का नाम दे दिया।

संस्कृत ने ही जग में बहायी ज्ञान गंगा,
‘किताब’ ने चलाया यहाँ फ़साद और दंगा।
किताबी फितरत को मजहब ने मोल लेकर,
दुनिया को अपनी खूनी रंगत से है रंगा।।

पूरा अरब प्रान्त भारत की वैदिक संस्कृति से शासित और अनुशासित चला आ रहा था। पर जब वैदिक संस्कृति में जैन और बौद्ध धर्मावलम्बियों के कारण मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ा तो उसके विरुद्ध क्रान्ति करते हुए मोहम्मद साहब के द्वारा अरब की भूमि पर इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ।
एक समाज सुधारक के दृष्टिकोण से पहले वाली व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्ति का बिगुल फूंकना मोहम्मद साहब के व्यक्तित्व का एक बहुत अच्छा गुण कहा जा सकता है। आगे चलकर उन्होंने स्वयं ने या फिर उनके उत्तराधिकारियों ने जिस प्रकार ‘काफिरों’ का नरसंहार करना आरम्भ किया और वैदिक संस्कृति में विश्वास रखने वाले सारे अरब प्रान्त को इस्लामिक क्रान्ति के माध्यम से मुस्लिम बनाने का अभियान चलाया उसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। अच्छी बात यही होती कि आप अपने सिद्धांतों को प्यार प्रीत के साथ लोगों को समझाते और वैदिक दृष्टिकोण से संसार को चलाने के लिए उन्हें प्रेरित करते।
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ राग अलापने वाले लोगों को यह पता नहीं है कि सम्पूर्ण अरब प्रान्त आर्यों की ही भूमि था। जिसे मजहब ने लील लिया और आर्यों से छीनकर इस्लाम को दे दिया या कहिए कि आर्यों को धर्मान्तरित कर अपने रंग में रंग कर इस्लाम को सौंप दिया। ईरान भी आर्यों की ही भूमि था। उसे भी मजहब ने आर्यों के स्थान पर इस्लाम का कर दिया ।परशुराम के पितामह ओर्व ऋषि के नाम पर भी और अरब शब्द की उत्पत्ति होना कुछ वैदिक विद्वान मानते हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि आज के परसिया प्रान्त का नाम भी परशुराम के नाम से ही है। कुछ भी हो इस प्रकार के शब्दों का भारतीय महापुरुषों के साथ समन्वय करके देखने से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इन सभी प्रान्तों में कभी भारत के आर्य धर्म की ही दुंदुभि बजती थी ।
भारत की वैदिक संस्कृति के इस गौरवपूर्ण इतिहास की हत्या मजहब नाम के इसी महाराक्षस ने की है। जिसे भारत से द्वेष रखने वाले इतिहासकारों और लेखकों ने जानबूझकर गुमनामी के अंधकार में विलीन कर दिया है , जिससे कि भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी अपने अतीत को न समझ सके । यहीं पर यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विश्वव्यापी विस्तार को भी मजहब नाम के राक्षस ने ही आज के सीमित क्षेत्र में रहने के लिए विवश कर दिया है।

मुसलमानों की विशेषता

मुसलमानों के किसी भी देश में रहकर उसके प्रति निष्ठावान होने या ना होने के बारे में विद्वानों का बड़ा स्पष्ट आकलन है कि इनकी यह विशेषता होती है कि जब तक यह किसी देश में 2% होते हैं, तब तक यह बहुत ही शान्त , सहिष्णु और कानून के अनुसार चलने वाले सुसभ्य और सुशिक्षित व्यक्ति के रूप में अपने आपको दिखाने का प्रयास करते हैं। जैसे मुस्लिमों की जनसंख्या अमेरिका ,ऑस्ट्रेलिया, कनाडा , चीन, इटली और नॉर्वे में मुस्लिमों की जनसंख्या अभी 0.6 प्रतिशत से 2% तक की ही है, तो यहाँ पर ये अपने आपको बहुत अधिक सहिष्णु और संविधान के अनुसार चलने वाले नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
मुस्लिमों के बारे में यह भी एक कुख्यात तथ्य है कि जब इनकी संख्या 2% से 5% के बीच हो जाती है, तब ये धर्मावलम्बियों में अपना “धर्मप्रचार” करना आरम्भ करते हैं। धर्म प्रचार के माध्यम से ये लोग अन्य सम्प्रदायों के निम्न वर्ग के लोगों को अपना निशाना बनाते हैं। उन्हें अपने सम्प्रदाय में मिलाकर अपनी संख्या बढ़ाने का प्रयास करते हैं। जिससे कि उस देश या स्थान के जनसांख्यिकीय आंकड़े को बिगाड़ा जा सके। निर्धन वर्ग के लोगों को इस प्रकार अपने सम्प्रदाय में मिलाना इन लोगों के लिए उस समय इसलिए भी आवश्यक होता है कि ये अपनी जनसंख्या में बड़ी तेजी से परिवर्तन करना चाहते हैं। डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन ,स्पेन,थाईलैण्ड ऐसे देश हैं जहां पर अभी भी मुस्लिमों की जनसंख्या 5% से कम है। मुस्लिमों की जनसंख्या यहाँ पर कम होने के कारण ही अभी यहाँ इस्लामिक आतंकवाद अपने भयंकर स्वरूप में दिखायी नहीं देता। यद्यपि यहाँ की सरकारें भी मुस्लिमों के इस प्रकार के खेल को समझ चुकी हैं। यही कारण है कि अमेरिका मुट्ठी भर मुसलमानों की गतिविधियों पर भी बहुत अधिक सावधानी बरत रहा है। वह कोई भी ऐसा खतरा मोल लेना नहीं चाहता जिससे उसके देश का भविष्य बिगड़े।
5% से अधिक जनसंख्या होते ही मुस्लिम लोग सम्बन्धित देशों की सरकारों और सामाजिक संगठनों पर अपना दबदबा बनाना आरम्भ कर देते हैं। तब ये सामाजिक संगठन बनाकर धरना प्रदर्शन कर या अन्य किसी भी ऐसे उपायों से सरकारों पर दबाव बनाने का प्रयास करते हैं जिनके चलते सरकारें उनके दबाव में आना आरम्भ हो जाती हैं। पश्चिम के कई देशों में उन्होंने हलाल का मांस रखने के लिए कई सरकारों को या संगठनों को विवश किया। इन देशों में फ़्रांस,फ़िलीपीन्स,स्वीडन, स्विटजरलैण्ड,
नीडरलैण्ड ,त्रिनिदाद और टोबैगो का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
10% से ऊपर जनसंख्या होते ही मुस्लिम लोग सम्बन्धित क्षेत्र या देश में अपनी शरीयत को लागू कराने की बात करने लगते हैं। तब इनको उस देश के संविधान, संविधानिक मर्यादा और संवैधानिक नियमों में से दुर्गंध आने लगती है ,और यह इस योजना पर कार्य करने लगते हैं कि इस देश के प्रमुख संविधान, नियम और व्यवस्थाओं को परिवर्तित कर शरीयत के अनुसार ढाला जाएगा ,तभी अच्छा रहेगा। अपनी इसी प्रकार की सोच और योजना को सिरे चढ़ाने के लिए धीरे-धीरे ये सम्बन्धित क्षेत्र या देश के कानून को अपने लिए बाधा कहना आरम्भ करते हैं और वहाँ पर निजी कानून को लाकर उसके अनुसार चलने की बात कह कर सरकारों के लिए कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा करने लगते हैं। इसके लिए तोड़फोड़, धरना प्रदर्शन आदि के हथकंडे भी अपनाए जाते हैं। फ्रांस के दंगे, डेनमार्क का कार्टून विवाद और एमस्टरडम में गाड़ियों पर हमला – ये सब कुछ मुस्लिमों की ऐसी ही सोच को प्रकट करने वाले उदाहरण हैं।
मुस्लिम जनसंख्या 20% से ऊपर होते ही संबंधित क्षेत्र या देश में जेहादी बातें होने लगती हैं। मजहबी असहिष्णुता और हत्याओं का दौर आरम्भ हो जाता है। जिससे लोगों को भय और आतंक दिखाकर मुस्लिम बनने के लिए प्रेरित किया जा सके। भारत में ऐसी घटनाएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं तो उसका कारण यही है कि अब मुस्लिमों की संख्या यहाँ अपनी उस सीमा को छू गई है जो जिहाद के लिए अपेक्षित मानी गई है।
जनसंख्या के 40% के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलाने लगते हैं। ऐसी घटनाएं
बोस्निया,चाड, लेबनान जैसे देशों को इस समय बड़ी मात्रा में भुगतनी पड़ रही है, जहाँ पर मुस्लिमों की जनसंख्या 40% से अधिक हो चुकी है। जब इन लोगों की जनसंख्या किसी भी क्षेत्र या देश में 60% के आंकड़े को छूती है तो वहाँ पर सामूहिक आधार पर अन्य सम्प्रदाय या वर्ग के लोगों का ‘सफाई अभियान’ आरम्भ कर दिया जाता है। भारत के कश्मीर में यही हुआ है।
अल्बानिया,मलेशिया ,कतर,सूडान आदि में मुस्लिमों की जनसंख्या 60% से अधिक हो चुकी है जहाँ पर इस प्रकार की घटनाएं नित्य प्रति घटित हो रही हैं। जैसे ही जनसंख्या 80% के पार होती है तो उस स्थिति पर स्थिति में जाती है सफाई बड़े स्तर पर की जाती है, जिसमें सरकारी संरक्षण भी स्पष्ट रूप से मिलता हुआ दिखाई देता है। इस प्रकार अन्य सम्प्रदायों के 20% लोगों के मौलिक अधिकारों को छीनना या उनका हनन करना मुसलमान अपना मौलिक अधिकार समझ लेते हैं।
यह ध्यान रहे कि ऐसा उसी देश में हो रहा होता है जहां कभी मुसलमान जब स्वयं 20% से कम थे तो उस समय वह अपने मौलिक अधिकारों का पूर्ण उपभोग कर रहे थे, लेकिन जब दूसरे सम्प्रदाय उसी देश में 20% रह गये तो उनके मौलिक अधिकारों को छीन लेना ही मुस्लिमों का मौलिक अधिकार हो गया। तब किसी अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों की बात करने वाला और सुनने वाला भी उस देश में कोई नहीं रहता, अर्थात पूरा देश ऐसी अल्पसंख्यक आबादी के लिए एक जेलखाना बनकर रह जाता है। ऐसी अवस्था को प्राप्त होते ही कोई भी देश बड़ी शीघ्रता से शत प्रतिशत मुस्लिम बनने की दिशा में आगे बढ़ता है। तब हम बहुत शीघ्र ही यह देखते हैं कि वह देश पूर्णतया मुसलमान हो गया होता है। इस्लाम के गुणगान करने वाले इतिहासकार और कलमकार तब बड़ी शेरदिली से यह लिखते हैं कि यह देश भी इस्लाम के भाईचारे से प्रभावित होकर ‘इस्लाममय’ हो गया और इस प्रकार विश्व में एक और इस्लामिक देश का उदय हो गया है।
अपनी इसी योजना पर काम करते हुए कई देश ऐसे हैं जो अब 80% से अधिक मुस्लिम आबादी वाले हो चुके हैं । इनमें प्रमुख हैं बांग्लादेश (83%)मिस्त्र ( 90%), गाज़ा पट्टी (98%),ईरान ( 98%), ईराक (97%) ,जोर्डन ( 93%), मोरक्को ( 98%) ,
पाकिस्तान ( 97%), सीरिया ( 90%),संयुक्त अरब अमीरात ( 96%)जबकि अफ़गानिस्तान, सऊदी अरब ,सोमालिया, यमन ऐसे देश हैं जहां पर सारी जनसंख्या इस्लाम को स्वीकार कर चुकी है।
( ये सारे आंकड़े डॉ पीटर हैमण्ड की पुस्तक “स्लेवरी, टेररिज़्म एण्ड इस्लाम – द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट तथा लियोन यूरिस – “द हज”में आपको विस्तार से मिल सकते हैं। )
शून्य से सौ तक पहुंचने का यह पूरा का पूरा खेल बहुत सुनियोजित षड्यंत्र के अंतर्गत खेला जाता है। जिसके पीछे केवल और केवल मजहब नाम का राक्षस खड़ा होता है । उस राक्षस को बड़ी सावधानी से छुपाया जाता है। उसके छुपाने के दृष्टिकोण से भाईचारा, शांति ,अमन आदि शब्दों का बार – बार प्रयोग किया जाता है और उनके झांसे में देश के देश ले लिए जाते हैं । जब तक लोगों की आंखें खुलती हैं तब तक पता चलता है कि बहुत कुछ विनाश हो चुका होता है ।
भारत के धर्मनिरपेक्ष नेताओं को मजहब के इस पूरे खेल को समझने के लिए इस्लाम की इस विनाशकारी योजना को समझने की आवश्यकता है। आज जिन लोगों की आंखें खुली हुई हैं वह न केवल पीछे का बहुत कुछ देख रहे हैं अपितु भारत के भविष्य के बारे में भी उन्हें बहुत कुछ दिखाई दे रहा है। समय अभी भी है ,जब देश के लोगों को ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ – की मूर्खतापूर्ण अवधारणा से बाहर निकलकर इस बात को समझ लेना चाहिए कि मजहब ही है जो लोगों को परस्पर बैर रखना सिखाता है।

मजहब ही है दुश्मन मजहब ही है कातिल,
इंसाफ का लुटेरा ढहाता अमनोचैन की मंजिल। जहालत है इसके यहाँ सुकून के फूल खोजना ,
चमन में आग लगाता है नहीं सम्मान के काबिल।।

यह बात भी समझने योग्य है कि जिन देशों का 100% इस्लामीकरण हो जाता है -शान्ति , भाईचारा और अमन वहाँ भी स्थापित नहीं होता । वहाँ जाकर भी इनकी शान्ति का तथाकथित अमृत कलश फूट जाता है और जब फूटता है तो पता चलता है कि उसमें भी अमृत ना होकर वैर का विष भरा हुआ था । जिसका परिणाम हम देखते हैं कि तब लोग जातीय आधार पर लड़ने ,झगड़ने और एक दूसरे की हत्या करने के कामों में लग जाते हैं ।
जिन लोगों को बलात मुसलमान बनाया गया होता है वह बलात मुसलमान बनाने वाले लोगों के विरुद्ध आक्रोश और क्रोध से भरे रहते हैं। जो बलात मुसलमान बनाते हैं वह मुसलमान बनने वालों के प्रति इस भाव से भरे रहते हैं कि यह हमसे नीच हैं ,पहले यह हिन्दू रहे थे , इसलिए इनको साथ लगाना उचित नहीं है। लोगों की मानसिकता होती है कि यह पहले से ही हमारे गुलाम रहे हैं और आज भी हमारे गुलाम हैं। इस प्रकार यह जातीय विद्वेष भाव उन लोगों के बीच कलह और संघर्ष का कारण बन जाता है । इस्लाम के लोगों के इस प्रकार के षड़यंत्र और मानसिकता को समझकर ही पता चलता है कि मजहब ही है जो सभ्यताओं को गटक जाता है।
कुल मिलाकर 100% इस्लामिक जनसंख्या बनाने के उपरान्त भी लोगों को वही दु:ख, कष्ट, क्लेश, पछतावा, अपराध, हिंसा आदि ही मिलते हैं। तब पता चलता है कि जिस शान्ति की खोज में हम निकले थे वह तो यहाँ आकर हमसे और भी अधिक दूर हो गई । भीतर का भटकाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि व्यक्ति एक ऐसी जेल में पड़ा हुआ अपने आपको पाता है कि वह जितना बाहर निकलने के लिए छँटपटाता है उतना ही उसकी यातनाओं में अपने आपको फंसा हुआ अनुभव करने लगता है।
वास्तव में भटकाव से बचाना धर्म का काम है और भटकाव में और अधिक उलझा देना मजहब का काम है। मजहब अज्ञानता, संकीर्णता, पाखण्ड, ढोंग व अत्याचार की माननीय दुर्बलताओं को और अधिक बलवती करता है और संसार में रक्तपात की भावनाओं को बढ़ाता है । जबकि धर्म इन सभी उत्पातों को शान्त कर मानवता का पाठ पढ़ाकर मानव को मानव से ऊपर उठाकर दिव्य और भव्य बनाने की योजना पर कार्य करता है। इस्लाम धर्म की इस भावना से बहुत दूर है।
निश्चय ही इस प्रकार की दयनीय स्थिति से संसार को निकालने के लिए छद्म धर्मनिरपेक्ष नेताओं, बुद्धिजीवियों और मुस्लिम विद्वानों को विचार करना चाहिए। बिना किसी प्रकार के साम्प्रदायिक चिन्तन को अपनाए इन लोगों को इस सच को स्वीकार कर संसार के लोगों को इससे बचाने के लिए गम्भीर प्रयास करने चाहिए। सारे निर्णय, सारी सोच और सारा चिन्तन मानवतावाद पर आधारित होना चाहिए। जहाँ -जहाँ भी मजहबी लोग मजहब के आधार पर लोगों के बीच में हिंसा और द्वेष के भाव को बढ़ाने का काम कर रहे हैं उन्हें समाज विरोधी, देश विरोधी और मानवता विरोधी कार्यो में लगे होने के कारण कानून को सौंपना चाहिए। जबकि जो लोग मानवतावादी चिन्तन को अपनाकर मनुष्य मनुष्य के बीच के भेदभाव और दूरी के विचार को मिटाने में लगे हुए हैं उन्हें मानवता का हितचिन्तक समझकर प्रोत्साहित करना चाहिए।

राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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