वैदिक काल के किसानों में राष्ट्रीयता भरी थी कूट-कूट कर

आज मैं अथर्ववेद और यजुर्वेद पढ़ रहा था, वहाँ भूमि सूक्त और कृषि सूक्त के कुछ मंत्रों पर नजर गई, जिसका विश्लेषण आज के लेख में कर रहा हूँ।…

वैदिक काल के किसानों में राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी हुई थी।
पृथ्वी सूक्त के एक मंत्र में किसान कहता है –
“यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोंहतु।
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम्।
अर्थ – हे मातृभूमि ! हम तेरे जिस स्थान को भी खोदें, उसकी उर्वरा शक्ति नष्ट न हो बल्कि उसकी उपजाऊ शक्ति शीघ्र विकसित हो जाए।


हे अनवेषणीय माँ तन-मन तुम्हारे लिए अर्पित है, हम किसी भी प्रकार तुम्हारे मर्म स्थल को चोट न पहुँचाएं।”

अथर्ववेद के भूमि सूक्त का यह मंत्र बतलाने को काफी है किसान और राष्ट्र के बीच माँ और पुत्र का संबध था।…
वैदिक काल में किसान और देश के बीच जो संबंध था उसे आज भी परम्पराओं में ढूँढ़ा जा सकता है –

उत्तर भारत का किसान हल चलाने से पहले वह धरती से प्रार्थना करता है कि हे माँ, तुम्हारे उपर मैं हल चला रहा हूँ, इसके लिए मुझे क्षमा करना।
…. तो वही हमारे बिहार के किसान फसल रोपने से पहले अपने खेत में स्थित भंडार कोने (उत्तर-पश्चिम दिशा) में धरती देवी को पूजा करता है।

किसानों के राष्ट्रप्रेमी होने के कारण ही इस राष्ट्र के निवासियों ने उनकों जी-भर के मान-सम्मान दिया है।
यह मान-सम्मान वैदिक काल से ही चला आ रहा है, जिसे वेद के कृषि सूक्त का यह दो मंत्र पूष्टि कर रहा है – अन्नाना पतये नमः क्षेत्राणां पतये नमः।

यजुर्वेद का यह मंत्र किसानों को अन्नपति कहकर स्तुति कर रहा है… तो अथर्ववेद का यह मंत्र कह रहा है “ते कृषि च सस्यं मनुष्या उपजिवन्ती” अर्थात् जो खेती करते हैं वह सफल जीवन जी रहे हैं।

कृषि सूक्त का एक और मंत्र – यद् यामम् चक्रु: अन्नविद: अर्थात् जो खेती करते हैं उन्हे अन्नविद कहा जाता था।

वैदिक काल में किसानों को अन्नविद और अन्नपति कहकर जो सम्मान दिया जाता है वह आज भी “अन्नदाता” के रुप में जारी है।

प्राचीन काल से चली आ रही एक परम्परा की ओर भी ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा –
भोजन शुरु करने से पहले अन्नपूर्णा देवी को प्रणाम करने और भोजन समाप्त करने के बाद – “अन्नदाता सुखी भव” कहने की इस देश की परम्परा रही है।

किसान शूरू से ही देशप्रेमी रहे इसी कारण किसानों को जी-भर मान सम्मान मिला।

वैदिककाल का किसान कहता था – अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम्।
अभिषाडस्मि विश्वाषाडाशामशां विषासहि।
अर्थात् – अपनी इस मातृभूमि पर मैं विरोधी शक्तियों का पराभव करनेवाला हूँ, प्रशंसनीय कीर्ति वाला हूँ, सब ओर से सब विरोधी शक्तियों को नष्ट करने वाला हूँ।

वैदिक काल का किसान एक ओर अन्नपति था तो दूसरी ओर देश का सैनिक भी था…
वहीं कुछ धूर्त किसानों के वेश में देश विभाजन के नारें और गीत गा रहें है।
उन्हें यह तो पता होना चाहिए कि जो इस धरती को तिरस्कार करता है वह जीवन भर तिरस्कृत जीवन जीता है क्योंकि यह राष्ट्र अनादि काल से ही राष्ट्रप्रेमियों का रहा है।।
✍🏻Sanjeet Singh जी की पोस्ट

कृषि का क्या होगा?
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जैसे ही 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा हुई थी, पक्ष और विपक्ष दोनों फ़ौरन आमने-सामने आ गए। एक को समर्थन करना था तो दूसरे को विरोध। अब ये तो सबको पता ही है कि भारत पर समाजवाद ढोने की संवैधानिक मजबूरी है। ये समाजवाद वो राजनैतिक व्यवस्था है जिसके तहत कार चलाने के लिए सड़कें तो बन जाती हैं, लेकिन पैदल के चलने के लिए फूटपाथ कभी बनेगा भी या नहीं, इसकी कोई गारन्टी नहीं होती। जाहिर है ऐसी व्यवस्था में काम कर रहे राजनेताओं को पता था कि इस पैकेज में गरीबों को क्या मिलेगा, ये एक बड़ा सवाल हो सकता है। संभवतः हाल के पांच-छह वर्षों में बदलती व्यवस्था से उन्हें (और उनके टुकड़ों पर पलने वालों को) खासी निराशा हुई होगी।

कहने को भारत एक कृषि प्रधान देश है लेकिन यहाँ भी परिभाषाएँ स्पष्ट नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर एक कपास उपजाने वाले और एक गेहूं उपजाने वाले में जमीन आसमान का फर्क होता है। सब्जियां उपजाने वाले की जरूरतें मक्के की खेती करने वाले से बिलकुल भिन्न हैं। अफ़सोस कि “वन साइज़ फिट्स आल” की नेहरु युग वाले समाजवाद की नीतियों में किसान का मतलब “अन्नदाता” बनाकर उसके नाम पर बस भावनाओं का दोहन किया गया है। जब कपास और गन्ने जैसी फसलों का जिक्र कर दिया है तो संभवतः कुछ लोगों को अंतर का अंदाजा भी हो गया होगा। कपास और गन्ने जैसी फसलें बेचने के उद्देश्य से उपजाई जाती हैं।

इनके किसानों को क्या आप अन्नदाता कहेंगे? नहीं, मूलतः ये व्यापारी है। ये जो फसलें उपजाते हैं, उसमें भारी मात्रा में पानी की जरूरत होती है। इसके अलावा कपास और गन्ने के फसल को सीधा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इसे लम्बे प्रसंस्करण की जरूरत होगी। अब अगर समस्याओं के तौर पर देखें तो गन्ने की फसल जहाँ होती है, वहीँ एक बड़ी लागत से तैयार हुआ चीनी मिल भी चाहिए। अगर मिल दूर है तो वहां तक फसल ले जाने में गन्ना सूखेगा और किसान को कम मूल्य मिलेगा। अगर बिहार में ज्यादा मिल हों भी तो मिल चलाने वाले को कम मुनाफा होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि चीनी मिल से संशोधन के बाद ही रम, बियर जैसी कई किस्म की शराब बनती। अब जब बिहार में ये प्रतिबंधित है तो कोई यहाँ चीनी मिल क्यों लगाएगा? उद्योगपति को कुत्ते ने तो काटा नहीं है जो अपना नुकसान करवाए!

यानि ऐसे कैश क्रॉप, नकदी फसल उगाने वाले को बिहार में खेती करने का कोई फायदा नहीं। ये उस किस्म की खेती होती जिसमें जमीन का मालिक पूँजी लगाता है और मजदूरों के जरिये काम होता है। अगर ऐसी फसलें नहीं हैं तो इसका मतलब है कि खेती से बहुत कम रोजगार पैदा हो रहा है। गेहूं-धान का खेत ज्यादा लोगों को रोजगार नहीं देता। अगर सब्जियों का मामला देखें, तो वो इससे बहुत अलग हो जाएगा। आलू-प्याज जैसी चीज़ों के लिए कोल्ड-स्टोरेज की जरुरत होगी। ताज़ी सब्जियों को प्रसंस्करण के अलावा किसी और तरीके से बचाकर नहीं रख सकते। टमाटर है तो उसका एकमात्र विकल्प प्यूरी-सॉस बनाना होगा। परवल-भिन्डी जैसी चीज़ों के साथ ऐसा कुछ हो सकता हो, तो संभवतः ये शोध का विषय ही होगा।

अब यहाँ जो बदलाव चाहिए थे वो थे प्रसंस्करण के बाद भी आप कितना जमा कर सकते हैं? लाइसेंस-परमिट राज के दौर में समाजवादी हित में बने, पचास साल पुराने नियम कायदों में एक “एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट” भी होता था। इसके तहत खाने की कई चीज़ों को जमा करने पर “जमाखोरी” के जुर्म में आपको जेल में डाला जा सकता था। जाहिर है इन्हें जमा करने का जोखिम आम kisan तो नहीं लेता। इनमें दालें, खाने का तेल, सरसों जैसे बीज जिनसे तेल निकाला जा सकता हो, ये सब तो शामिल थे ही, इनके साथ-साथ इसमें आलू और प्याज भी आते थे। यानी ये चीज़ें जरूरत के वक्त के लिए जमा नहीं होती। जैसे ही थोड़ी भी कमी हुई, फ़ौरन लाइसेंस-परमिट धारक व्यापारी (जो खुद को कागजों के हिसाब से कृषि उत्पादों की बिक्री करने के कारण किसान घोषित करके टैक्स भी नहीं देता था), इन चीज़ों के दाम बढ़ा सकता था।

संभवतः अब आपको अंदाजा हो गया होगा कि महाराष्ट्र के किसी भूतपूर्व कांग्रेसी नेता की नेत्री पुत्री भी कैसे कृषि से करोड़ों की आय कर पाती हैं और आम किसान जिसे असल में “अन्नदाता” कहा जाना चाहिए था, वो उसी महाराष्ट्र में आत्महत्या करता रहता है। अपने आप को “अन्नदाता” घोषित किये बैठे इन व्यापारियों को उस समय अफ़सोस हुआ होगा जब सरकार बहादुर ने खाने-पीने की चीज़ें, जैसे दाल, तेल, आलू-प्याज जैसी चीज़ों को “एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट” से बाहर कर देने का फैसला किया है। कानून बदल रहा है और आगे इन चीज़ों को कितनी मात्रा में जमा किया जा सकता है, वो लाइसेंस परमिट से मुक्त होगा। इसके साथ ही एक लाख करोड़ को कृषि सम्बंधित इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे कोल्ड स्टोर और फसल काटने के बाद की जरूरतों में निवेश किया जाएगा। इससे कई इलाकों में बदलाव आएगा।

बाकी कृषि सम्बन्धी फैसले और भी हैं लेकिन उसपर कितने लोगों की रूचि होगी ये मालूम नहीं। इसलिए फ़िलहाल यहीं रुकते हैं, आगे फिर कभी! जय राम जी की!
✍🏻आनन्द कुमार

कुबुद्धिधारी और कुतर्की इकोनॉमिस्ट APMC मॉडल की बिहार में हटाये जाने को लेकर तर्क देते है कि इससे बिहार का किसान हानि में है। बिहार को हर चीज खास करके नेगेटिव कहानी के लिए पोस्टर बॉय के रूप में इस्तेमाल करने की यह कहानी बौद्धिक रूप से बेईमानी और तथ्यात्मक रूप से गलत है।

2005-15 के बीच, बिहार की कृषि विकास दर 3.6% के राष्ट्रीय औसत की तुलना में 4.7% थी। 2015 से, भारत का कृषि विकास 2% रहा है, बिहार 7% है!

दुर्भाग्य से, कृषि को परिभाषित करने के लिए केवल गेहूं और चावल का उपयोग करने वाले एक सरलीकृत तरीके का उपयोग किया जाता है। बिहार सब्जियों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक और भारत में फलों का आठवां सबसे बड़ा उत्पादक है!

2015 -21 के बीच BIHAR का सकल घरेलू उत्पाद 13.17%, जो राष्ट्रीय औसत से अधिक है।

पंजाब कृषि विकास दर हासिल करने के लिए क्या करना है, इसका मानदंड नहीं है। 2005 से 2020 का कृषि विकास दर इंटरनेट पर उपलब्ध है। पंजाब और दूसरे राज्यों की तुलना कर लें फिर बताये की कृषि विकास दर में कौन कहां है।

मैं तो कहता हूँ कि सिंचाई और बिजली जैसी समस्याओं के बावजूद बिहार में कृषि विकास दर सराहनीय है। सही मायने में APMC तभी तक सफल है जब सरकार सहयोगी हो लेकिन कृषि उत्पाद की खरीद की एक सीमा होती है और सरकार के हाथ बंधे है। भारत के किसी भी राज्य में रआज्य सरकारों के द्वारा पूर्ण कृषि उत्पाद का खरीद नही किया जा रहा है ना किया जा सकता है।

यह आंदोलन निहायत ही ब्लैकमेलिंग है खास करके जब आप देखते है कि सरकार बदलाव लाने के लिए तैयार है। पंजाब के किसानों को यह हठी व्यवहार छोड़ना चाहिय।

बाकी विपक्ष पर क्या कहें जिस समय वे विपक्ष है उनका काम है मौके का फायदा उठाना।
✍🏻ठाकुर गुंजन सिंह

गुड़ से समझें इस किसान आंदोलन को..
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यह जो हम गुड़ खाते हैं, इसका अधिकतम भाग यदि अपन कहें कि किसानों के बीच “आपसी अविश्वास” का फल है! तो आपको अजीब सा लगेगा।

वो क्या है, किसानों के जारी आंदोलन में बहुसंख्य किसान “भूस्वामी किसान” हैं और इनके पीछे आढ़ती। लेकिन इस कथित किसान आंदोलन में “अधिया या बंटाईदारों” का प्रतिनिधित्व और आवाज शून्य है। जो करीब दो-तिहाई वास्तविक किसान है। लेकिन इनका कोई रिकार्ड नहीं है, क्योंकि इनको किसी तरह का कानूनी संरक्षण नहीं है। ना बंटाईदारों की कोई कानूनी या संवैधानिक परिभाषा है, इस वजह से इनका कोई रिकार्ड नहीं है।

वो जो शुरुआत में “गुड़” का उदाहरण दिया…उससे समझिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा में वास्तविक किसान ना के बराबर हैं। इन इलाकों में एक एकड़ का किराया 30 से 50 हजार वार्षिक है। ज्यादातर खेती बाहरी लोग आकर करते हैं। बौद्धिक लोग इसे sub tenency या दूरवर्ती किसान बोलते हैं।

गुड़ की बात को आगे बढ़ा रहा हूँ। जो दूरवर्ती किसान गन्ने की खेती बंटाई या अधिया पर लेता है, वो अपना गन्ना, गन्ना मिल को नहीं देना चाहता। क्योंकि मिल से गन्ने का मूल्य किसान खाते में आता है, यानी भूस्वामी के खाते में। ऐसे में बंटाईदार को अपने श्रम के मूल्य को पाने के लिए भूस्वामी के पीछे भागने की बजाय उत्पाद का मूल्य खुद साधना पसन्द करता है। ताकि जो भी लाभ-हानि हो, उस पर उसका नियंत्रण तो रहे। इस वजह से गुड़ बनाता है।

मुजफ्फरनगर के चरथावल कस्बे की पड़ताल की तो पता चला मुश्किल से बीस साल पहले तक कस्बे में 300 से 400 कोल्हू थे, आज कठिनाई से दस से बारह मिलेंगे।

बीस-तीस साल पहले वास्तविक भू स्वामी या उनके परिवार स्वंय गुड़ बनाते थे, आज Absentee landlordism की संख्या ज्यादा हो गई। यानी वो किसान जो जमीन किराए पर देते हैं, खुद चंडीगढ़,मेरठ, मुंबई या दिल्ली में रहते हैं। गन्ने के खरीदार अब मिल मालिक हो गए हैं। सरकार गारंटर बन गई। एक तरह से समाज की जरूरत नहीं रही। कुल मिला कर देखें, अधिकतर राज्यों ने अपने हित में खेती-किसानी MSP नीति बनवाई। ना कि बंटाईदारों के हित में। बंटाईदारों को तो आज तक “कानूनी परिचय” तक नहीं मिला।

इससे समाज का आपसी विश्वास खत्म सा हो चुका है।

आज जो भी थोड़े बहुत कोल्हू चल रहे हैं, गुड़ बन रहा है, वो भी बंटाईदारों के खुद के नियंत्रण में चल रहे हैं। बंटाईदार चला रहे हैं। भू स्वामी तो आज शायद ही कोल्हू से गुड़ बनाते मिलें कहीं !
बंटाईदार खुद का कोल्हू चलाते हैं, क्योंकि उनको को डर है, यदि मिल को दिया तो पैसा भूस्वामी के खाते में जाएगा। उसके पीछे दौड़ने से अच्छा है खुद गुड़ बनाकर बेच लो। जो कुछ मिले, वही भला।

अब मुद्दा यह है, बंटाईदार के अधिकारों को लेकर जारी किसान आंदोलन में गज्जब का सन्नाटा क्यों है। आपराधिक सन्नाटा। आंदोलन करने वाले किसानों का असल ख़ौफ़ अंबानी-अडानी से नहीं हैं। असल ख़ौफ़ बंटाईदार से हैं। यदि उनको कांट्रैक्ट राइट्स मिल गए तो भू स्वामी की “तानाशाही” का क्या होगा ? यदि बंटाईदारों को “कानूनी संरक्षण” मिल गया तो भू स्वामियों” का क्या होगा ?

बिहार में एक प्रयास हुआ था। बंटाईदारों के “न्यूनतम हित” की रक्षा के लिए “देबू बंधोपाध्याय कमेटी” की सिफारिश के ज़रिए। लेकिन नीतीश की इस कोशिश के खिलाफ बिहार का भूस्वामी प्रचंड विरोध के साथ खड़ा हो गया तो कमेटी को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

कुल मुलाकर मुद्दा यह है, बरतानवी औपनिवेशिक महालवारी, रैयतवारी, स्थायी बंदोबस्त के मॉडल से निकल के भू स्वामी वैश्विक बाजार के लिए तैयार होना चाहते हैं या नहीं ? या फिर सरकारी सड़क या शहरीकरण का इंतजार करेंगे, ताकि खेत बेच परमानेंट पलायन कर सकें ?

लेकिन यह तो तय है, ज्यादातर भूस्वामी अब वास्तविक किसान रहे नहीं। ट्रैक्टर वगैरहा पर चढ़ फोटो खिंचवा कर सोशल मीडिया पर डालने वाले अधिकांश भूस्वामी हैं। वास्तविक किसान नहीं। और बिना “दूरस्थ किसानों, बंटाईदारों” के हितों की कानूनी व्याख्या, कानूनी रक्षा किए बिना भूस्वामी भी इस मकड़जाल से निकलने वाले नहीं। आने वाला भविष्य बंटाईदारों के हाथ है। वो ही वास्तविक “अन्नदाता” हैं।

बंटाईदारों को स्वीकार करें भू स्वामी। इनको साथ लीजिए। इसी में आपका सुखद भविष्य है। देश का भी।

यह भी तय है,मोदी यदि इन कानून पर अड़े रहे तो उनका निष्ठावान वोट बैंक बनने के लिए विशाल सामाजिक पूंजी प्रतीक्षा कर रही है।

एक बात और..अपन न कोई ज्ञानी हैं, ना ही कृषि विशेषज्ञ। जो कुछ भी लिखा..वास्तविक समाज में देखा। महसूस किया। वही लिखा। यह भी कह सकते हैं, वामपन्थ ने जो सपने ‘केवल” दिखाए। मोदी उन्हें असल जमीन पर उतार रहा है।
✍🏻सुमन्त भट्टाचार्य

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