संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा: छल प्रपंचों की कथा-भाग (4)

गुजरात और कठियावाड़ के राज्य

गुजरात और काठियावाड़ के कई राजवंश प्रारंभ में कभी राष्ट्रकूटों के तो कभी गुर्जर प्रतिहारों के सामन्त रहे थे। परंतु राष्ट्रकूटों तथा गुर्जर प्रतिहार वंश के दुर्बल हो जाने पर वहां भी कई स्वतंत्र राज्य वंशों ने शासन करना आरंभ कर दिया था। इनमें अनहिलपाटक का चौलुक्य राज्य और सौराष्ट्र का सैंधव राज्यवंश प्रमुख हैं। अनहिलपाटक को आजकल अन्हिलवाड़ा कहा जाता है। सौराष्ट्र के सैंधव राज्य वंश की राजधानी भूताम्बिलिका (वर्तमान भुमिली) थी। इन दोनों राज्यवंशों के कई राजाओं ने देर तक शासन किया। जिनके विषय में पर्याप्त जानकारी हमें इतिहास से मिलती है।

उत्तर पश्चिमी भारत के राज्य

कन्नौज के पतन के पश्चात उत्तर पश्चिमी भारत में भी कई राज्यवंश उभर कर ऊपर आए। इनमें उत्तर पश्चिमी भारत का हिंदू शाही राज्यवंश सर्वप्रमुख हैं। गुप्तवंश में इस राज्यवंश को गुप्त शासकों ने उभरने नही दिया था। कश्मीर के राजा ललितादित्य ने भी इन्हें अपने अधीन रखा, पर अब अवसर आते ही इन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। इसके शासक कल्लर या लल्लिय का राज्यक्षेत्र काबुल तक फेेल गया था। यद्यपि 870 में काबुल को अरब सेनापति याकूब ने जीत लिया। लल्लिय ने अपनी राजधानी सिंध नदी के पश्चिमी तट पर अटक से 15 मील उत्तर की ओर स्थित उदभाण्डपुर को बनाया था। लल्लिय के पुत्र कमल वर्मा या कमलुक ने अरब अक्रांताओं को कई बार परास्त किया था, वह 904ई. में गद्दी पर बैठा था। इसके रहते अरब के मुस्लिम आक्रांता भारत में घुसपैठ नही कर पाये थे। इसी राज्यवंश में अगले शासक भीमपाल, जयपाल आदि थे। तुर्कों के आक्रमण के समय इस वंश का शासक जयपाल था। वह अत्यंत पराक्रमी था। उदभाण्डपुर से काबुल तक परचम फहराने वाले और देश की स्वतंत्रता के लिए सदा सजग रहने वाले इस राज्यवंश के प्रति भी इतिहास में उपेक्षा भाव अपनाया गया है। आज का काबुल यदि हिंदूसाही राज्यवंश को या उसके जयपाल सरीखे राजाओं को भूलता है तो बात समझ में आ सकती है लेकिन उसे भारत भी भूल जाए, यह समझ नही आता।

सिन्ध का राज्य

सिन्ध का अपना केन्द्र बनाकर अरब के आक्रान्ता भारत के गुजरात, काठियावाड़, राजपूताना और उत्तर भारत के अन्य राज्यों पर आक्रमण करते रहे। जिनका उल्लेख पूर्व में हो चुका है। नौंवी शताब्दी में अरब राज्य भी दो भागों में विभक्त हो गया-मंसूर और मुल्तान में। मंसूर का राज्य सिंध की राजधानी अलोर से लेकर समुद्र तट तक फेेला था जबकि उत्तरी भाग मुल्तान राज्य के आधीन था।

सूर्य मंदिर बना दुर्बलता

मुलतान में उस समय एक प्राचीन सूर्य मंदिर था। भारत वर्ष के गुर्जर प्रतिहार शासकों ने कई बार मुलतान के मुस्लिम शासक को परास्त कर मुलतान को अपने राज्य में मिलाने का प्रयास किया था, लेकिन मुस्लिम शासकों ने सूर्य मंदिर को नष्ट करने की धमकी देकर गुर्जर प्रतिहारों से अपना पीछा छुड़ाने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार एक मंदिर के टूटने का डर हमारे शासकों से मुस्लिम आक्रान्ताओं की रक्षा कराता रहा।

कश्मीर

कश्मीर में नागककोर्ट वंश का राज्य था। जिसका अंत 855 ई. में माना गया है। यहां का शासक ललितापीड़ एक जयादेवी नामक कन्या के प्रेमजाल में ऐसा फंसा कि उसी के भाईयों द्वारा उसका अंत (855ई.में) कर दिया गया। जयादेवी के भाई उत्पल के लड़के अवन्ति वर्मा ने इस वंश को समाप्त कर उत्पल वंश की स्थापना की। इस वंश में अवन्ति वर्मा (855ई.-883ई.) स्वयं एक प्रतापी शासक था। उसने अवन्तिपुर नामक नगर बसाया तथा नहरें आदि निकालकर जनहित के बहुत से अच्छे कार्य भी किये। अवन्ति वर्मा के बाद उसका लड़का शंकर  वर्मा (855ई.-902ई.) काश्मीर की गद्दी पर बैठा। उसने त्रिगर्त (कांगड़ा) तक अपना राज्य विस्तार किया। इस राजा की मृत्यु के पश्चात उत्पल वंश धीरे धीरे पतन की ओर बढ़ने लगा था। इसके पश्चातवर्ती शासक क्रूर और प्रजा पीड़क सिद्घ हुए, तब ब्राह्मणों की एक सभा ने यशस्कर को कश्मीर का राजा नियुक्त किया। यशस्कर एक योग्य और न्यायप्रिय शासक सिद्घ हुआ। उसने 936ई. से 948ई. तक कश्मीर पर शासन किया। उसके मंत्री पर्वगुप्त ने उसकी हत्या कर दी और राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था। परंतु अगले ही वर्ष पर्वगुप्त की मृत्यु हो गयी तो उसका पुत्र क्षेमगुप्त सिंहासन पर बैठा। वह भी अयोग्य सिद्घ हुआ। 958 ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र अभिमन्यु काश्मीर का राजा बना। लेकिन अभिमन्यु अभी अल्पव्यस्क ही था इसलिए राजमाता दिद्दा ने उसके नाम पर राज्य संचालन किया। दिद्दा महारानी एक योग्य शासिका थी परंतु अपने ही दरबारी तुंग के साथ उसके अनैतिक संबंध थे। इसलिए वह अधिक लोकप्रिय सिद्घ न हो सकती। उसने अपने ही बेटे अभिमन्यु की मृत्यु (972 ई.) हो जाने पर शासन सूत्र अपने हाथों में ले लिया और पूर्ण शासक बनकर राजा करने लगी। प्रेमासक्ता रानी ने अपने पौत्रों को भी मरवा दिया, जिससे कि वह निष्कंटक राज्य कर सकें। 980ई. में वह पूर्ण शासिका बनी थी। 1003 ई. में उसकी मृत्यु हुई तो उससे पूर्व अपने भतीजे संग्राम राज को उसने अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। जिसने कश्मीर में लोहरवंश की स्थापना की। इसने गजनी के विरूद्घ शाही राजा त्रिलोचन पाल की सहायता के लिए महामंत्री तुंग के नेतृत्व में सेना भेजी थी।

(8) पर्वतीय क्षेत्र के अन्य राजा

हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में उस समय राजपुरी दार्वाभिसार, कीर चम्बा, और कुलूत (कुल्लू) में विभिन्न राज्यों की सत्ता स्थापित थी। इसी प्रकार वर्तमान उत्तराखण्ड के गढ़वाल तथा कुमायूं क्षेत्रों के भी अलग-अलग राजा थे। इसी प्रकार अलमोड़ा के बैजनाथ नामक स्थान पर उस समय कार्त्तिकेयपुर नामक नगर था जो कि अल्मोड़ा के राजाओं की राजधानी रही थी।

हमारा आशय क्या है

गुर्जर प्रतिहार वंश के पतन के पश्चात भारत में विभिन्न राजवंशों का जिस प्रकार उल्लेख हमें उपलब्ध होता है उसे यहां स्पष्ट करने का या उसका यहां वर्णन करने का हमारा आशय मात्र इतना है कि गजनी के आक्रमण के समय तक भारत की राजनीतिक शक्तियों में विखण्डन तो था पर राष्ट्रीयता का भाव पूर्णत: जीवित था। तभी तो इस्लामिक आक्रांताओं के विरूद्घ वे परस्पर एक दूसरे की सहायता करते रहे। शत्रु हमारी सीमा पर घात लगाये बैठा रहा और हमारे शासक निरंतर तीन सौ वर्षों तक उनके आक्रमणों के प्रति जागरूक रहे। शत्रु ताक में बैठा था कि कब हम सो जाएं और वह अपना काम कर जाए, पर हम थे कि सो ही नही रहे थे। एक तो हम इस तथ्य को स्थापित करना चाहते हैं।

दूसरे जिस गुर्जर प्रतिहार वंश ने अपना प्रतापी विशाल राज्य स्थापित किया और समकालीन इतिहास में राष्ट्रीय एकता का पवित्र स्मारक स्थापित किया उस वंश के साथ इतना अन्याय क्यों किया गया कि उसे अपेक्षित सम्मान और स्थान इतिहास में दिया ही नही गया? यही स्थिति अन्य शासकों की है। जब पूरा भारत स्थानीय राजाओं के राज्य में स्वाधीन था तो 712 ई. में मौहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के पश्चात से गजनी के आक्रमण के समय (लगभग 1000 ई.) तक पूरे भारत को ऐसा क्यों दिखाया जाता है कि जैसे सारे भारत से ही इस काल में राजनीतिक चेतना की बिजली गुल हो गयी थी और सर्वत्र पूर्णत: अंधकार छा गया था। विशेषत: तब जबकि राष्ट्रीय एकता के विभिन्न स्मारक इस काल में बड़े ही गौरवमयी ढंग से स्थापित किये गये थे पूरे भारत वर्ष में फेेले विभिन्न राजवंशों के इतिहास को समेकित करने की आवश्यकता है। जो इतिहासकार ये कहते हैं कि उस समय के भारतीय राजवंशों में परस्पर समन्वय नही था और शत्रु से भिड़कर राष्ट्रीय एकता स्थापित करने का भाव नही था वो अंशत: सत्य हो सकते हैं, पूर्णत: नही। ऐसे लोगों का यह आरोप या धारणा भी है कि उस समय भारत में राष्ट्र ही नही था। इनका यह आरोप या धारणा तो नितांत निर्मूल ही है।

भ्रान्ति निवारण

इन इतिहासकारों का ज्ञान अपूर्ण है। भारत में राष्ट्र प्राचीन काल से रहा है। राष्ट्र एक अमूर्त्त भावना होती है। जिसे उस देश के सांस्कृतिक,सामाजिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मूल्य बलवती करते हैं। विभिन्न राज्यवंशों के रहते हुए भी भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और नैतिक मूल्य बराबर क्रियाशील थे। हां, राजनीतिक रूप से विभिन्न राजवंश परस्पर संघर्षरत अवश्य थे। परंतु वह संघर्ष भी सम्राट बनने के लिए था, जिसका अर्थ था पूरे देश में राजनीतिक एकता लाना, राजनीतिक मूल्यों से अलग जितने ऊपरिलिखित मूल्य हैं वे सब तो कार्य करते रहे पर राजनीतिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी। फिर भी एक बात संतोषजनक थी कि बाहरी आक्रामकों के विरूद्घ अधिकांश राजवंश एक थे और यह भाव भी राष्ट्र होने के भाव को ही इंगित करता है। परस्पर संघर्ष करते करते इन विभिन्न राजवंशों में से कोई राजवंश सम्राट तो नही बन पाया। परंतु लंबे संघर्षों के कारण इनमें परस्पर घृणा का भाव अवश्य विकसित होने लगा। सत्य को स्थापित करने या नकारने में कभी भी अतिरेक नही वर्त्तना चाहिए। न्यायपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना ही उचित होता है। अब तनिक विचार करें कि भारत में यदि राष्ट्र नही था तो कश्मीर का राजा गुर्जर राजा को अरबों के विरूद्घ सहायता क्यों देता? राष्ट्र था तभी तो कश्मीर ने भारत की सीमाओं की चिंता की। हां, कश्मीर का राजा अपने राज्य की सीमाओं के प्रति भी किसी अन्य देशी राजा से यही अपेक्षा करता था कि हमें मत छेड़ना। हम अपनी स्वतंत्रता अलग बनाये रखेंगे। अपनी स्वतंत्रता के प्रति सजग रहना कोई अपराध नही था-केवल एक दोष था और यह दोष भी एक दिन में नही आ गया था, अपितु बहुत दूर और बहुत देर से क्षरण की यह प्रक्रिया चल रही थी।

अश्वमेध यज्ञ की परंपरा

हमारे यहां अश्वमेध यज्ञ करने की परंपरा रही है। अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार साधु समाज उसी राजा को देता था जिसके राज्य में प्रजा पूर्णत: सुखी, संपन्न और प्रसन्न रहती थी। किसी राजा के राजतिलक के समय वह राजा अपने राज्य की भूमि को तिलक करने वाले पुरोहित को ही दान दिया करता था। फिर वह ब्राह्मण उस दान में ली गयी भूमि को (जिसे राष्ट्र कहा जाता था) पुन: अपने राजा को लौटा देता था। पुरोहित धर्म का प्रतीक था तो राजा दण्ड का प्रतीक था। पुरोहित और राजा का ब्रह्म बल और क्षत्र बल मिलकर राष्ट्र का निर्माण करते थे। अकेले ब्रह्मबल से शासन नही चलता, इसलिए ब्रह्मबल का प्रतिनिधि पुरोहित उस राष्ट्र को राजा को देता था कि तुम क्षत्रबल के द्वारा इसका शासन करो। इससे राजा ब्रह्मबल का प्रतिनिधि बनकर धर्मानुसार शासन चलाता था। धर्मानुसार शासन चलाने वाले ऐसे राजा के राज्य कार्यों की समीक्षा धर्मसभा करती थी और यदि राजा अपनी परीक्षा में सफल हो जाता था तो उसे अश्वमेध यज्ञ की अनुमति दी जाती थी। तब ऐसे राजा के पीछे धर्म की शक्ति होती थी और उसके आभामण्डल के सामने अधिकांश छोटे छोटे राजा स्वयं ही झुक जाते थे। महाभारत के युद्घ के पश्चात सामान्यत: इस उच्च राजनीतिक व्यवस्था में क्षरण होने लगा था। परिणाम स्वरूप राजा अपने राजधर्म से राष्ट्रपति (सम्राट) बनने की भावना उनमें लुप्त हो रही थी और सैनिक अभियानों के प्रजापीड़क कार्यों से वो अपने को ‘राष्ट्रपति’ बनाना चाहते थे। स्पष्ट है कि धर्म की शक्ति तब उनके आभामण्डल से लुप्त होने लगी थी। जिसके कारण संघर्ष की अनैतिकता बढ़ी और उस अनैतिकता ने घृणा का रूप लेकर राष्ट्र की भावना को दूषित व प्रदूषित किया। सत्य को इस प्रकार विवेकपूर्ण ढंग से समझने में ही लाभ है। राष्ट्र की भावना दूषित व प्रदूषित हुई यह कहना ही न्याय संगत है। ये कहना तो सर्वथा अन्यायपरक ही होगा कि भारत में तब राष्ट्र था ही नही। विश्व की सबसे प्राचीन जिस संस्कृति में राष्ट्रोपासना प्रारंभ से ही रही है, उसमें राष्ट्र का अभाव देखना समीक्षक के अध्ययन की कमी को स्पष्ट करता है। यह भी एक बौद्घिक राष्ट्रघात ही है।

क्रमश:

 

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