आत्मनिर्भरता के लिए जरूरी है

परंपरागत हुनर और स्थानीय काम-धंधे

– डॉ. दीपक आचार्य

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हर क्षेत्र में स्थान विशेष की आबोहवा और पारिस्थिकीय तंत्र के अनुरूप परिवेश और लोक जीवन का विकास होता है। यही कारण है कि देश और दुनिया के तमाम क्षेत्रों में अलग-अलग जलवायु, परंपराएं, लोक संस्कृति, रहन-सहन और विकास का क्रम बना हुआ है और यह आजकल का नहीं बल्कि युगों से चला आ रहा है।

जब तक ये परंपराएं शुद्ध रूप से संवहित होती रहीं, तब तक इनकी मौलिकता और उपादेयता भरपूर बनी रही। लेकिन जैसे ही हमने लोकमानस की जरूरतों का अपने हित में दोहन करने के लिए नए-नए प्रयोगों को अपनाना शुरू किया, विदेशियों को अपने आँगन से लेकर रसोई और दूसरे सभी स्थानों पर निर्बाध आवागमन का आमंत्रण देकर पलक-पाँवड़े बिछाने और अपने स्वार्थ के लिए उनके आगे हर दृष्टि से पसर जाने की आदत डाल ली, तभी से सब कुछ बिगड़ चुका है।

जब से हमने अपनी पारंपरिक शुचिता और शुद्धता में खलल डालनी आरंभ कर दी और इनके मौलिक गुणधर्म को विकृत कर दिया तभी से हमारे लिए समस्याओं का दौर शुरू हुआ है जो उत्तरोत्तर व्यापक प्रसार पाता हुआ मनु सृष्टि को ही लीलने लगा है।

बात हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी से लेकर कार्यशैली और सेहत की हो या फिर अपने काम-धंधों से बरकत पाने और आने वाली पीढ़ियों को सुकून देने के लिए स्थायी और मजबूत आधारों के निर्माण की, हर मामले में हमने अंधानुकरण को इतना अपना लिया है कि हमारी पूरी की पूरी मौलिकता पलायन कर चुकी है और हमारा मन-मस्तिष्क विकारों व कचरे से भरने लग गया है जबकि शरीर कचरे का पिटारा हो गया है जिसमें हाड़-माँस और रक्त से लेकर वीर्य या रज तक सारा कुछ प्रदूषित हो चला है।

अपनी भारतीय संस्कृति और परंपराओं के बारे में हमारी अनभिज्ञता और आत्महीनता ही वह कारण रहे हैं जिनकी वजह से हम अपनी गर्वीली थाती और पुरातन सूत्रों को जान ही नहीं पाए और विदेशी झूठ तथा पाखण्डों को अंगीकार करते चले गए। हमारे लिए भोग प्रधान विदेशी विज्ञापन जीवन का मूलाधार बनते चले गए और विदेशी लोग हमारे लिए पूज्य और आदर्श।

ऎसे में इस मिक्चर कल्चर को आत्मसात करते हुए आज वह दिन आ पहुंचा है जब न हम घर के रहे हैं न घाट के। हमने ऋषि-मुनियों द्वारा प्रवर्तित हर कसौटी पर सिद्ध, महानतम वैज्ञानिक रहस्यों से भरी-पूरी अपनी परंपराओं, परंपरागत हुनर, ज्ञान और बौद्धिक महासामथ्र्य को भुला दिया है और अपना लिया उस आत्मघाती भेड़चाल को, जिसका हश्र सभी लोग जानते हैं।

कुछ मामलों में तो भेड़ें भी हमसे ज्यादा समझदार हैं। वे सिर्फ वही खाती, पीती और व्यवहार करती हैं जो अनुकूल होता है। हमने अपना सर्वस्व लुटा दिया है। ज्ञान से लेकर कर्मयोग के मामले में हम भले ही कितनी डींगे क्यों न हाँक लें, हम हर मामले में नंगे और भूखे हो चले हैं। हमें ज्ञान-विज्ञान से लेकर सेहत की रक्षा, जीविका निर्वाह और जीवन चलाने भर के लिए औरों पर आश्रित रहना पड़ता है।

हममें से कई सारे लोग खूब पढ़-लिख कर भी नाकारा बने हुए घूम रहे हैं। हमें तलाश है उस दिन की जब हमें सरकारी नौकर बनने का गौरव प्राप्त हो जाए। इस गुलामी को पाने के लिए हम कितने कुछ जतन नहीं कर रहे हैं, यह सभी को सोचना चाहिए। न हम खेत में हल चला सकते हैं, न खरपतवार हटा सकते हैं, न कोई काम-धंधा कर सकते हैं। न हम घर के काम करने का सामथ्र्य रखते हैं और न बाहर का।  हममें से कितने सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें चाय, खाना तक बनाना नहीं आता, दूसरी बातें तो और हैं।

हमें अपने परंपरागत कुटीर और घरेलू उद्योग धंधों, वंश परपंरा से चले आ रहे हुनर और काम-धंधों को जारी रखना अच्छा नहीं लगता। हमें शर्म आती है। हमारी जीवनयात्रा में हमने जीवन निर्वाह का कोई छोटा सा लक्ष्य बना लिया है, और इसकी प्राप्ति होने तक हम प्रतीक्षा करने में समय जाया करने में आनंद का अनुभव करने के अभ्यस्त हो चले हैं। हमारी निगाह मंजिल पर है, बीच की यात्रा के लिए जरूरी काम-काज और आत्मनिर्भरता भरी राह पाने में हमें लज्जा का अनुभव होता है।

हमें वह हर काम अच्छा लगता है, वह हर चीज अच्छी लगने लगी है जिसमें पुरुषार्थ नहीं करना पड़े और बिना किसी मेहनत के प्राप्त हो जाए। इन तमाम स्थितियों में हमारी विकृत तथा मिथ्या उच्चाकांक्षी मानसिकता का ही परिणाम है कि आज बेकारी और बेरोजगारी का ग्राफ निरन्तर उछाले मार रहा है और हमारी वो युवा शक्ति भटकने को विवश है जिसमें समाज और देश को बदल डालने तक की क्षमता है।

आज सर्वाधिक आवश्यकता परंपरागत मौलिक हुनर को आत्मसात कर इनके परिष्करण और इनके माध्यम से आगे बढ़ने की है। जब तक समाज में आत्मनिर्भरता के लिए छोटे-छोटे स्तर पर स्वावलम्बनपरक काम-धंधों और परंपराओं को संरक्षण प्राप्त नहीं होगा, हमारा भला नहीं हो सकता। आज हम आर्थिक गुलामी के दौर से गुजर रहे हैं, कल यही परिस्थितियां हमें पुरानी सदियों में भी लौटा सकती हैं। जो समाज या क्षेत्र आत्मनिर्भर नहीं होकर पराश्रित होने लगता है वह दासत्व के सारे द्वार खोल देता है। ऎसे पराश्रित लोगों के भरोसे न समाज सुरक्षित रह सकता है, न देश।

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