आत्मसंयम अपनाएँ

तनाव दूर भगाएँ

– डॉ. दीपक आचार्य

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हममें से कई सारे लोग ऎसे हैं जिन्हें जीवन में कई बार यह महसूस होता रहा है कि अब जमाने में गुणग्राही लोग खत्म होते जा रहे हैं और सिर्फ ग्राही-ग्राही और सर्वभक्षी लोगों का ही बोलबाला है। बात अपने क्षेत्र में समाज सेवा की हो या अपने-अपने कर्मक्षेत्रों की।  हर तरफ गुणग्राही लोगों की कमी राष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है। इस स्थिति में समाज के लिए उपयोगी, श्रेष्ठ और निष्काम जीवन जीकर समुदाय व क्षेत्र के लिए कुछ कर गुजरने का माद्दा रखने वाले लोग हाशिये पर आते जा रहे हैं।

मुख्य धारा में ऎसे-ऎसे लोग आ रहे हैं जिनका ध्येय कर्मयोग से कहीं ज्यादा पुरुषार्थहीन हैं, चापलुसी और मुद्रार्चन, हरामखोरी, विघ्नसंतोषी वातावरण बनाना और अच्छे लोगों को तंग करना ही रह गया है। इन विषम स्थितियों में निकम्मे और नालायकों की मौज बन पड़ी है लेकिन कर्मयोगियों की तरह समर्पित होकर काम करने वाले लोगों की मौत ही आ गई है।

इसीलिये कहा जाता है कि चंद लोगों के पुण्यों और कुछ लोगों की काम करने की प्रवृत्ति के कारण ही सब कुछ चल रहा है वरना टीवी के कार्यक्रमों की तरह कितने ही ब्रैक आ जाते और समाज-जीवन की रफ्तार जाने कभी से थम जाती। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है। जो  लोग अच्छे काम करते हैं उन्हें हमेशा यह शिकायत बनी रहती है कि उनके कामों की तारीफ भले न की जाए, कम से कम अच्छे कामों में कोई टाँग तो न अड़ाए।

इससे भी बढ़कर एक शिकायत यह बनी रहती है कि नाकारा, नालायक, नुगरे, भ्रष्ट, बेईमान और विघ्नसंतोषियों को वे लोग श्रेय देते हैं, संरक्षण देते हैं और सुविधादाता साबित होते हैं जो इन पर नियंत्रण रखने और इन्हें मर्यादाओं के यमपाश में बांधे रखने के लिए मुकर्रर हैं।

यही कारण है कि समाज की दो धाराओं में असंतुलन बढ़ता जा रहा है। नदी के दोनों तटों में अंतर आता जा रहा है, पाट बड़े होते जा रहे हैं और नदी उथली। इन विषमताओं की वजह से समाज के अच्छे लोगों का मन खिन्न और दुःखी होने लगता है और उनमें पलायन तथा वैराग्य की स्थितियां उत्पन्न होने लगती हैं।

चंद नालायकों की वजह से समाज का बहुत बड़ा उपयोगी एवं श्रेष्ठ समूह आत्मकेन्दि्रत और कच्छप मनोवृत्ति का हो जाता है। यह स्थिति न समाज के लिए हितकर है, न देश के लिए। आज इन्हीं सम सामयिक विषमताओं की वजह से सज्जनों में तनाव घर करता जा रहा है। कई बार नैष्ठिक कत्र्तव्यनिष्ठ लोगाें की उपेक्षा की जाती है, किसी न किसी प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है। फिर ऎसे खूब सारे लोग हमारे आस-पास भी हुआ करते हैं जो गलती से इंसान बन गए हैं, ये लोग भी समाज में प्रदूषण फैलाने वाले खर-दूषण बनकर लोकमन की शांति पर खुरपियां चलाते रहते हैं और बिना किसी वजह से सिर्फ अपने घृणित स्वार्थों को पूरे करने के लिए षड़यंत्रों और गोरखधंधों का सहारा लेते हुए आत्ममुग्ध होकर अपने संप्रभु होने के अहंकार को परिपुष्ट करते रहते हैं।

जब भी हमारे सामने ऎसी परिस्थितियां आएं, काम की पूछ न हो रही हो, दुष्टों का तमाशा न रुक रहा हो, हरामखोरों और कमीनों को कहीं न कहीं से प्रश्रय मिल रहा हो, चारों तरफ से हम नालायकों और कृतघ्नों से घिरने लगे हों, तब आत्मसंयम की आराधना का मार्ग अंगीकार करना चाहिए।

जो कत्र्तव्य कर्म अपनी क्षमता और शरीर के सामथ्र्य से हो सकता हो, न्यूनतम सीमा तक ले आएं और सामान्य कर्म का निर्वाह इस प्रकार करते रहें कि हम पर उदासीनता या शिथिलता का कोई लांछन न आए। कर्म के प्रति  अतिरेक श्रद्धा अथवा कर्म से संबंधित लोगों के प्रति अतिशय रागात्मक अंध भक्ति का परित्याग कर दें,  किसी की शिकायत न करें, इसके लिए खूब लोग हैं जिन्हें मरते दम तक यही काम करना है। ये लोग नरक में जाएंगे तब भी शिकायतों और खुराफातों की वजह से जाने-पहचाने जाएंगे।

खुद का भला चाहें तो सौंपा गया हर श्रद्धाहीन कर्म करते हुए औपचारिकता का निर्वाह करते रहें, अपनी ज्यादा अक्ल , श्रम और समय जाया नही करें। बचत की जाने वाली इस ऊर्जा का उपयोग उधर करें जिधर इसकी कद्र होती है।

अपने मौलिक चिंतन और रचनात्मक समाजसेवी कार्यों की दिशा पकड़ लें और उसमें रमना आरंभ कर दें। यह तय मानकर चलें कि जहाँ गुणग्राही और नीर-क्षीर विवेक वाले लोग नहीं होंगे, वहाँ किसी के गुणों का आदर संभव नहीं है।  और यों भी आजकल वे लोग रहे ही कहाँ जिनमें औरों को परखने का हुनर था। अब तो लोग अपना ही अपना सोच कर सब कुछ करने लगे हैं।

व्यक्तित्व को निखारने और समाज की सेवा का इतिहास रचने के अनन्त अवसर और अपार संभावनाएं हैं उनका भरपूर इस्तेमाल करें और अप्रत्याशित, आशातीत आनंद और आत्मतोष पाएं। उन लोगों को भूल जाएं जो आपको याद नहीं करते।

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