हिंदू महासभा करेगी बिहार की राजनीति को जातिवादी सोच से मुक्त, दी जाएगी राष्ट्र निर्माण को प्राथमिकता : श्रीनिवास आर्य

भारतवर्ष में बिहार और उत्तर प्रदेश दो बड़े राज्य हैं , दुर्भाग्य की बात है कि यह दोनों ही जातिवादी राजनीति के लिए विख्यात माने जाते हैं । बात यदि बिहार की करें तो यहां तो स्थिति और भी अधिक खराब है । बिहार की राजनीति में जाति हमेशा से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है।  स्वतंत्रता के उपरांत प्रारंभ से ही बिहार राजनीति में जातिवाद की गंदगी से पीड़ित रहा है ।
श्रीकृष्ण सिन्हा के कार्यकाल में भूमिहारों और राजपूतों के बीच जातिगत संघर्ष देखा गया, क्योंकि दोनों ही राजनीतिक रूप से सबसे प्रमुख जाति थी । उस समय पिछड़ों की उपेक्षा की गई और किसी भी दल ने उन्हें निर्वाचित होने और चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के योग्य नहीं समझा । प्रारंभ में सवर्ण जाति सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, और मतदाता स्वतंत्रता आंदोलन के साथ समकालीन उच्च जाति के नेताओं की संबद्धता के कारण, उन्हें गांधी और नेहरू के समान देखते थे।
यह वह समय था जब पूरा देश खाद्यान्न की कमी और व्यापक गरीबी की व्यापकता जैसी समस्याओं का सामना कर रहा था। बिहार जैसे राज्य बुरी तरह प्रभावित थे और उन्हें बीमारू राज्य के रूप में इंगित किया गया था। आजादी के पूर्व से ही पिछड़ी जातियां अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ रही थीं।1930 के दशक में यदुनंदन प्रसाद मेहता, जगदेव सिंह यादव और शिवपूजन सिंह द्वारा त्रिवेणी संघ की स्थापना उच्च पिछड़ी जातियों में बढ़ती जागरूकता के संकेत थे। कांग्रेस के बेहतर संगठनात्मक ढांचे और आम जनता पर स्वतंत्रता सेनानियों के प्रभाव के कारण “त्रिवेणी संघ” कांग्रेस के खिलाफ बुरी तरह से हार गई थी। 
बिहार आंदोलन से पहले के दशक में कृषि जातियों में मुख्य रूप से कोइरी और यादव जाति के बीच राजनीतिक उग्रवाद का उदय हुआ था। जगदेव प्रसाद जैसे नेता बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए उभरे। ऐसा कहा जाता है कि उन्हें पिछड़ों के बीच सर्वोच्च नेता के रूप में पहचाना जाता था। जगदेव प्रसाद की हत्या पिछड़ी जाति के लिए कांग्रेस से प्रस्थान थी। इसे कांग्रेस में उच्च जाति के गुट द्वारा करवाया गया राजनीति से प्रेरित हत्या के रूप में देखा गया था। । इस ऊंची जाति के धड़े ने बाद में सतीश प्रसाद सिंह के असामयिक इस्तीफे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो बिहार के पहले पिछड़ी जाति के मुख्यमंत्री थे। चौथे और पांचवें विधानसभा चुनावों में राजनीतिक सत्ता के लिए उच्च जातियों और उच्च पिछड़ी जातियों के बीच खींचतान देखी गयी , जब एक छोटी सी अवधि में आधा दर्जन मुख्यमंत्री आए और गए।
वास्तव में जातिवादी सोच जब राजनीति में होगी और प्रभावी हो जाती है तो वह संपूर्ण राज्य का या देश का समुचित विकास नहीं होने देती । जातिवादी सोच के राजनीतिज्ञ अपनी जातिगत संकीर्णता से बाहर नहीं निकल पाते । इसलिए अखिल भारत हिंदू महासभा प्रारंभ से ही जातिवाद को देश के लिए घातक मानती आई है । बिहार में जातिवादी सोच को समाप्त कर यहां पर समरसता से भरे हुए हिंदू समाज और राष्ट्रीय समाज का निर्माण करना हिंदू महासभा की प्राथमिकता है।

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