कुरान और हदीस की रोशनी में शाकाहार-६

मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे….
जब से वह अपना यह धार्मिक वस्त्र धारण करता है तब से किसी जीव की हत्या करना मना है। न तो मक्खी, न मच्छर और न ही जूं यानी किसी जीव के मारने पर कड़ा प्रतिबंध है। यदि कोई हाजी जमीन पर पड़े हुए किसी कीड़े को देख ले तो अपने अन्य साथी को उससे बचकर चलने की हिदायत कर। कहीं ऐसा न हो जाए कि उसके पांव के नीचे वह कीड़ा दब जाए। हज यात्रा पूरी होने तक वह दूसरे कपड़े नही पहन सकता और न ही अपने शरीर का कोई बाल तोड़ सकता है। न तो खुशबू लगा सकता है और न ही कोई काम कर सकता है, जिसके लिए सख्ती से इनकार किया गया है यदि कोई जीव जंतु उसे अपने कपड़े पर नजर आए तो वह उसे उठाकर जमीन पर नही फेंक सकता। जब तक उसके शरीर पर यह अहराम है, उसे वह नही मार सकता। जब इसलाम एक जूं तक को मारने का आदेा नही देता तो फिर वह विश्व के किसी भी जीव के मारने की वकालत कैसे कर सकता है। यह सोचने और चिंतन करने की बात है।
‘आईने अकबरी’ में इसका विवरण मिलता है कि अकबर शुक्रवार से रविवार तक मांस का भक्षण नही करता था। जिस दिन कोई ग्रहण होता था उस दिन भी उसके यहां मांसाहार नही बनता था। इसलाम में सूफीवाद मांसाहार का विरोध है। सूफियों का मत है कि सादगीपूर्ण जीवन के लिए मांस खाना ठीक नही है। शेख ख्वाजा मुईनद्दीन चिश्ती, हजरत निजामुद्दीन ओलिया, बू अली कलंदर, शाह इनायत, मीर दाद, शाह अब्दुल करीम जैसे अनेक महान सूफी संत जीवन भर मांसाकार से दूर रहे। उनका यह मानना है कि जीवन में दया करूणा और अल्लाह के प्रति समर्पण के लिए यह आवश्यक है कि तुम अपने भोजन में उस चीज का उपयोग न करो जो तुम्हारे जीवन को तामसिक बनाती हो। वे फारसी भाषा में कहते हैं-
‘ता बयाबिन दार बहिशते अदन जा, शफकतक बनुमाये बा खल्के खुदरा।
-जिसका अर्थ होता है कि यदि तुम स्वर्ग में आने वाले समय में रहना चाहते हो तो दुनिया की जीवित वस्तुओं के लिए संवेदना और सहानुभूति दरशाओ, जिन्हें परमपिता परमेश्वर ने पैदा किया है।
प्रसिद्घ मुसलिम अंत मीर दाद कहते हैं, जो कोई जीवित प्राणी का मांस खाता है, उसे अपने शरीर का उतना ही मांस देकर प्रायश्चित करना होगा। जो कोई दूसरे जीवित प्राणी की हड्डी तोड़ेगा तो उसे भी अपने शरीर की हड्डी तुड़वानी पड़ेगी। तुमने जिसका एक बूंद रक्त भी लिया है, तुम्हें तुम्हारे खून की बूंद से उसका प्रायिश्चत करना पड़ेगा। क्योंकि ईश्वर का यह कानून अजर और अमर है।
महान मुसलिम संत समद मांसाहार की निंदा करते हुए कहते हैं कि धातु में प्राण नही है, वनस्पति में सुप्त स्थिति में है, लेकिन पशुओं में जाग्रत अवस्था में है।
जबकि मनुष्य जाति में उसके प्राण पूर्ण जाग्रत एवं संवेदन स्थिति में हैं।
संत कबीर कहते हैं कि मुसलिमों के लिए यह स्पष्ट कर दिया गया है कि रोजा (उपवास) उस समय टूट (व्यर्थ हो) जाता है जब हमारी जबान से किसी प्राणी के मांस के स्वाद संबंधी शब्द निकल जाते हैं। ईश्वर जब जबार से मांसाहार शब्द व्यक्त करने के लिए इतन सख्ती से इनकार करता है तो फिर उसके खाने का तो सवाल ही पैदा नही होता।
इबादत करते समय मांसाहार को वर्जित किया गया है, क्योंकि इससे शरीर में तामसिकता बढ़ती है, जो ईश्वर के लिए की जा रही एकाग्रता (तपस्या) में बाधक है। इसलिए सभी साधु संतों ने बार बार यह कहा है कि अध्यात्म के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करना है तो मांसाहार से दूर रहना ही पड़ेगा। यदि आप अपने में शांति, सहिष्णुता और संवेदनशीलता पैदा करना चाहते हो और अल्लाहवाले बनना चाहते हो तो अल्लाह की हर चीज को प्यार करो। इसके बदले में वह तुम्हें चाहेगा और प्यार करेगा। आध्यात्मिक प्रगति का मूल मंत्र शाकाहार है।
इसलाम के चौथे खलीफा पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब के दामाद, उनकी पुत्री फातिमा के पति और शिया पंथ के प्रथम इमाम हजरत अली, जो सूफी संत के पितामह कहलाते हैं, उन्होंने अपनी प्रसिद्घ पुस्तक ‘नहजुल बलागा’ जो उनके द्वारा समय समय पर दिये गये धार्मिक भाषणों (खुतबात) का संग्रह है, उसमें कहते हैं कि अपने पेट को जानवरों की कब्र न बनाओ। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यदि तुम्हें मांस खाने की आवश्यकता पड़े तब भी उसे अधिक मात्रा में और प्रतिदिन उसका उपयोग न करो। उनकी दृष्टि जें जबान के स्वाद के लिए मांसाहार वर्जित है। हजरत अली के जीवन से प्रभावित होकर सूफियों ने मांसाहार को त्याग दिया। उनका अपना अनुभव यह है कि आध्यात्मवादी बनने के लिए तामसिक भोजन को छोड़ना अनिवार्य है। इसलिए ईरान से भारत तक के सूफियों में मांसाहार से दूर रहने के दृष्टांत मिलते हैं। भारत में तो अनेक सूफियों ने पशुपालन का काम किया है, जिसे पाल पोसकर बड़ा किया जाए उसके गले पर कोई छुरी किस प्रकार चला सकता है। नागपुर के बाबा ताजुद्दीन गायों से बड़ा प्रेम करते थे।

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