भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय जी की पुण्यतिथि के अवसर पर

आज पंडित मदन मोहन मालवीय जी की पुण्यतिथि है ।आजीवन मां भारती की सेवा में रत रहे ‘ भारत रत्न ‘ उदारमना महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी स्वतंत्रता मिलने से लगभग 10 महीने पहले इस असार संसार से चले गए थे । उनके जीवन पर जितना भी लिखा जाए उतना कम है । उन्होंने प्रत्येक पल मां भारती की सेवा के लिए जिया और पूरा जीवन मां की सेवा में समर्पित कर अपने जीवन को धन्य किया।

उन दिनों शिक्षक अपने छात्रों को विद्यालय में देर से आने पर या अनुपस्थित रहने पर या किसी ऐसे अन्य कारण पर जो अनुशासनहीनता को प्रकट करता हो , अर्थदंड दे दिया करते थे , परंतु उदारमना महामना मदनमोहन मालवीय जी अपने विद्यार्थियों के अर्थदंड को माफ करने में विश्वास रखते थे । उनका यह कार्य उनके सहकर्मी अध्यापकों को अच्छा नहीं लगता था । जिस पर एक दिन उन्होंने मदनमोहन मालवीय जी के पास जाकर उनके इस कार्य की शिकायत करते हुए इसका कारण पूछा ।

मालवीय जी ने शिक्षकों की बातें ध्यानपूर्वक सुनीं। उसके पश्चात बोले, ‘मित्रो ! जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था तो एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का अर्थ दंड लगाया गया था। आप सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्रों के पास दो पैसे साबुन के लिए नहीं होते थे तो दंड देने के लिए छह पैसे कहां से लाता ? इस दंड की पूर्ति किस प्रकार की ? – यह याद करते हुए मेरे हाथ स्वत: छात्रों के अर्थदंड क्षमा कराने संबंधी प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं।’

पंडित मदन मोहन मालवीय जी की अपने उद्दंडी छात्रों के प्रति भी ऐसी उदारता को देखकर शिक्षक निरुत्तर हो गए। वास्तव में जो लोग दीन – दुखी , निर्बल और असहाय लोगों की समस्याओं को गहराई से समझते हैं और छोटों के प्रति क्षमाशील होते हैं , वही ‘ महामना ‘ होते हैं । उनका उदारमना व्यक्तित्व उन्हें इस ऊंचाई तक उठाता है कि लोग उन्हें स्वाभाविक रूप से ‘ भारत रत्न ‘ मानने लगते हैं , और हमारे इस महामना के साथ ऐसा ही हुआ था।

मालवीय का जन्म प्रयाग में 25 दिसम्बर सन 1861 को एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था। मालवा के मूल निवासी होने के कारण इनके परिवार को लोग मालवीय के नाम से पुकारते थे । पंडित मदन मोहन मालवीय जी का देश के हर वर्ग के लोग सम्मान करते थे । उनकी देशभक्ति अनुपम और अद्वितीय थी । उन्होंने भारत को हिंदूराष्ट्र के रूप में स्थापित करने के लिए आजीवन प्राणपण से कार्य किया । भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित महामना जी आजीवन भारत को स्वतंत्र कराकर विश्व का सिरमौर बनाने के लिए संघर्ष करते रहे ।

मालवीय जी की वक्तृत्व शैली भी सबको आश्चर्यचकित कर देने वाली थी । हिंदी , अंग्रेजी और संस्कृत पर उनका समान अधिकार था । उनके प्रति जनसाधारण में असीम श्रद्धा थी । लोग बड़ी सहजता और सरलता से उनसे जुड़ जाते थे और उनके साथ अपने आपको बहुत ही सहज अनुभव करते थे ।

एक अधिवक्ता के रूप में मालवीय जी की तर्कशक्ति भी अपने आप में बहुत ही विद्वतापूर्ण थी । उन्होंने वकालत के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त की थी । उनकी तर्कशक्ति का ही चमत्कार था कि जब चौरी-चौरा कांड के 170 भारतीयों को फाँसी की सजा सुनाई गई तो मालवीय जी ने अपनी तर्कशक्ति के बल पर 151 लोगों को फाँसी से छुड़ा लिया। उनके इस महान तार्किक कार्य ने उनकी प्रसिद्धि देश के बाहर भी फैला दी थी । वह अपने वादों की तैयारी पूर्ण मनोयोग से करते थे और अनेकों विधिक व्यवस्थाओं को पढ़कर जब न्यायाधीशों के समक्ष प्रस्तुत करते थे तो अपने तर्कबाणों से उन्हें निरुत्तर कर दिया करते थे।

भारत को स्वाभाविक रूप से हिंदूराष्ट्र मानने वाले मालवीय जी की मान्यता थी कि प्रत्येक देश तथा जाति के लोग अपने देश में स्वाधीन हों, अपने विचारों को प्रकट करने में स्वतंत्र हों और वे अपने ऊपर स्वयं राज करें। सबको रोजी-रोटी मिले। वे स्वदेशी , स्वभाषा , स्वभूषा , स्वदेश , स्वराष्ट्र , स्वराज्य के उपासक थे । उनका मानना था कि हम अपने देश में अपने ऊपर स्वयं राज करें। पराधीनता की बात स्वप्न में भी नहीं सोचनी चाहिए। उनका यह भी मानना था कि जो लोग इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं उन्हें भारतीय धर्म अर्थात हिंदुत्व का स्वाभाविक रूप से सम्मान करना चाहिए ।

मालवीय जी ने सन् 1913 में हरिद्वार में गंगा पर बांध बनाने की अंग्रेजों की योजना का विरोध किया था। तब अंग्रेज सरकार ने महामना के साथ समझौता किया था। इस समझौते में गंगा को हिन्दुओं की अनुमति के बिना न बांधने व 40 प्रतिशत गंगा का पानी किसी भी स्थिति में प्रयाग तक पहुंचाने की शर्त सम्मिलित थी। मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक बड़ी गौशाला बनवायी । गंगा से वह असीम प्रेम करते थे। गंगा के प्रति अपनी असीम श्रद्धा व्यक्त करते हुए वह गंगा की धारा को विश्वविद्यालय के भीतर भी लेकर आए थे जिससे कि विश्वविद्यालय का पूरा प्रांगण सदा पवित्र रहे । महामना जी के द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भारतीय स्वाधीनता संग्राम के युग में प्रेरणा एवं शक्ति के अजस्र स्रोत के रूप में भी अपनी भूमिका निभा चुका है।

पंडित मदन मोहन मालवीय ने भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं को देश में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्थापित करने और देश में वैचारिक क्रांति के माध्यम से सांस्कृतिक पुनरुत्थान करने की दिशा में भी विशेष कार्य किया । उनकी वाणी में, विचारों में और मान्यताओं में उस सांस्कृतिक उत्थान की झलक मिलती है। जिससे उनके युग के अनेक राष्ट्रवादी अनुप्राणित हुए थे। मालवीय जी के कार्यों के मूल परिकल्पना इसी प्रवृति से उपजी। उन्होंने भारत वासियों में भारतीयता के प्रति अनुराग उत्पन्न करने का अप्रतिम कार्य किया ।उनके लिए भारत सर्वप्रथम था और कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व की भांति वह किसी भी स्थिति में विदेशी संस्कृति को भारत के संस्कृति से श्रेष्ठ धर्म मानने को तैयार नहीं थे।

मालवीय जी भारत को सुसंस्कारवान बनाकर शिक्षा क्षेत्र में अग्रणी बनाने के पक्षधर थे । अपनी इसी सोच को सिरे चढ़ाने के लिए उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय सहित अनेकों विद्यालयों की स्थापना की ।

मालवीय जी ने 4 फरवरी 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए उन्होंने देश के कोने-कोने से धन-संग्रह किया। मालवीय जी सन् 1919 से 1939 तक इसके कुलपति रहे। शारीरिक दुर्बलता के कारण अन्तत: उन्होंने त्यागपत्र देने का निश्चय किया तथा विश्वविद्यालय न्यायालय ने उनका त्यागपत्र स्वीकार करते हुए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् को विधिवत कुलपति निर्वाचित किया।

शारीरिक अस्वस्थता के चलते भी वह अपने विद्यार्थियों को शिवाजी , महाराणा प्रताप की रोचक और वीरतापूर्ण कहानियां सुनाते थे । जिससे उनमें अपने देश के प्रति समर्पण का भाव उत्पन्न हो सके। साथ ही वह गीता के बारे में भी छात्रों को विशेष जानकारी देते थे और प्रत्येक रविवार को गीता पर विशेष प्रवचन का कार्यक्रम भी रखते थे ।

घोर पौराणिक होकर भी उन्होंने आर्य समाज के महान नेता स्वामी श्रद्धानंद के साथ बहुत ही सुंदर समन्वय स्थापित किया । इन दोनों ने मिलकर हिंदू महासभा के माध्यम से देश की सेवा की । दोनों महारथियों ने अपनी मान्यताओं को एक दूसरे के आड़े नहीं आने दिया और राष्ट्र के विषयों पर मतैक्यता स्थापित कर सफलतापूर्वक कार्य करते रहे। जिससे आज के आर्य समाज व पौराणिक समाज के लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए।

उनकी धारणा थी कि ‘मनुष्य के पशुत्व को ईश्वरत्व में परिणत करना ही धर्म है। मनुष्यता का विकास ही ईश्वरत्व और ईश्वर है और निष्काम भाव से प्राणी मात्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची आराधना है।

22 जनवरी 2016 से उनके नाम पर एक ‘महामना एक्सप्रेस ‘ नामक रेल भारत सरकार ने चलाई है । प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें ‘भारत रत्न ‘ से भी सम्मानित किया है।

12 नवंबर 1946 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

आज उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर हम उन्हें अपनी भावपूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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