इक्कीसवीं शताब्दी शाकाहार की-2

गतांक से आगे…
बढ़ती जनसंख्या हेतु दो समय के भोजन के लिए यह वकालत की जाती है कि मांसाहार ही केवल इसका एकमात्र हल है। लेकिन जब गहराई से विचार करते हैं तब यह मालूम पड़ता है कि जिसे हम समाधान की संज्ञा दे रहे हैं, वास्तव में तो वही सबसे बड़ी समस्या है। भूख के कारण कोई मरता है तो यह सुझाव कुछ समय के लिए तो व्यावहारिक हो सकता है, लेकिन जब उसके भीषण परिणाम सामने आते हैं तब देश और दुनिया त्राहि त्राहि पुकार उठती है।
इक्कीसवीं शताब्दी की दो त्रासदी एक साथ देखने को मिल रही है। पिछले दो हजार वर्षों में मनुष्य की आबादी इतनी कभी नही बढ़ी थी उसका जनजीवन खतरे में पड़ जाए। मनुष्य अकेला इस धरती पर जीवित नही रह सकता। उसे जीवन देने के लिए पृथ्वी पर कुदरत ने अनेक वस्तुएं बनाई हैं, जिन्हें वैज्ञानिक भाषा में पर्यावरण की संज्ञा दी जाती है। कुदरत ने जो कुछ भी बनाया है वह सब मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है। उसमें से किसी वस्तु को कम करने का अर्थ होगा इनसान की मौत को बुलावा देना। खाने, पहनने और रहने के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है, उन्हें तो मनुष्य अपनी निरीह आंखों से देख लेता है, लेकिन उसके लिए करोड़ों वस्तुएं ऐसी हैं जिनको देख पाना और वे उसके अस्तित्व में क्या भूमिका अदा करती है, उसको समझ पाना बहुत कठिन है। मनुष्य को जीने के लिए पहली आवश्यक वस्तु प्राणवायु है। इन दिनों वैज्ञानिकों का कहना है कि वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो रही है। उसे नुकसान पहुंचाने वाले कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है। इसके साथ ही ऐसी अन्य गैसों की मात्रा में भी वृद्घि हो रही है जो पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदायक है। इसके कारण हमारी धरती गरम हो रही है। यदि धरती गरम होती है तो पीने का पानी, जिसे हम मीठा पानी कहते हैं, उसका वाष्पीकरण होता है। यानी आदमी की पहली आवश्यकता संकट में है। पानी का दूसरा नाम जीवन है। इससे जंगल प्रभावित हो रहे हैं। यानी हर भरी जमीन रेगिस्तान बन रही है। वनस्पति के अभाव में जंगल में विचरने वाले पशु और पक्षियों के जीवन की कल्पना नही कर सकते। पीने के पानी के स्रोत मर्यादित होते ही हमारे नदी नालों से लेकर विशाल समुद्र तक प्रभावित होंगे। धु्रवों एवं पर्वतों पर जमीं बर्फ पिघलकर जब समुद्र में जाएगी तो समुद्र के पानी की सतह ऊपर उठेगी, जिससे जमीन के अनेक भाग डूब जाएंगे। यानी हमारी धरती का क्षेत्रफल घट जाएगा। बढ़ती जनसंख्या और ग्लोबल वार्मिंग पर विचार करने के लिए अब तक तीन बड़े सम्मेलन विश्व स्तर पर हो चुके हैं। इन सम्मेलनों का नाम ‘वसुंधरा सम्मेलन’ दिया गया। राष्ट्र संघ के नेतृत्व में संपन्न रियोडीजोइनरो एवं काहिरा के सम्मेलनों की रपट से दुनिया चौंक गयी है।
काहिरा सम्मेलन में विश्व के 180 देश शामिल हुए थे। इन सभी ने मिलकर इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि प्रतिवर्ष दुनिया में नौ करोड़ लोग बढ़ रहे हैं। दुनिया में आबादी न बढ़े, इसके उपाय करने हेतु सत्रह अरब डॉलर खर्च किये जाने की घोषणा की गयी थी। रॉयल सोसायटी द्वारा प्रकाशित एक रपट में कहा गया है कि इस पृथ्वी पर लंबे समय तक जीवन बनाये रखने के लिए जितनी आबादी होन चाहिए उससे हमारी आबादी इस समय एक हजार गुना अधिक है। इस तथ्य पर भीविचार किया गया कि इस समय जितनी जनसंख्या है वह कितनी कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित कर रही है? कितनी ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है? उसे कितने भोजन की आवश्यकता है और वह कितने प्राकृतिक साधनों का दोहन कर रही है? ब्रिटिश कालंबिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक विलिम रीस कहते हैं कि इसका मुख्य कारण हमारी प्रजनन क्षमता है, जो खतरनाक रूप से बढ़ रही है। मनुष्य प्राकृतिक साधनों का दोहन न करके उसका शोषण कर रहा है। वर्तमान स्थिति नही बदली तो ऑक्सीजन और ओजोन दोनों ही कम होती चली जाएंगी। ओजोन की परत में जिस तरह से छेद हो रहे हैं उसने अनेक कठिनाईयों का बढ़ा दिया है। बिना ओजोन की परत के सूर्य का ताप क्या हम सहन कर सकेंगे? ऐसा लगेगा कि दुनिया को जीते जी शमशानघाट पहुंचा दिया है।
इक्कीसवीं शताब्दी आते ही हमने देखा कि सुनामी की लहर समुद्र से उठी और धरती के एक बड़े भाग को लील गयी। सुनामी केवल एक स्थान पर नही आ रही है, उन स्थानों पर भी अब उसकी लहरें उठ रही हैं जहां कभी उसकी कल्पना भी नही की जा सकती। तीन वर्ष पूर्व पूर्वी एशिया के अनेक देशों में यह तांडव देखने को मिला। अब भी वहां से उसका खतरा टला नही है। सवाल उठता है कि इस क्षेत्र में कभी सुनामी नही आई, फिर इस बार ऐसा क्यों हुआ? समुद्र विज्ञानियों का मत है कि समुद्र में रहने वाले जीव समुद्र के नीचे की धरती का संतुलन बनाये रखने में महत्व की भूमिका निभाते हैं। जब समुद्री जानवर कम होने लगते हैं तब यह स्थिति बनती है। क्रमश:

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