बच्चों का बचपन निगल रही है
आज की शिक्षा

डॉ. दीपक आचार्य
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शिक्षा का सीधा संबंध होता है व्यक्ति के पूर्ण निर्माण से। शिक्षा का मतलब यही नहीं है कि हम कमाने या धंधा करने लायक बन जाएं और पैसे गिनने तथा जमा करते रहने की मशीन के रूप में काम में आने लायक हो जाएं।शिक्षा का उद्देश्य हर बच्चे को इस प्रकार तैयार करना है कि वह बुद्धि और बल दोनों से ताकतवर हो। मानसिक और शारीरिक दोनों ही दृष्टि से समर्थ होने के साथ ही मानवीय संवेदनाएं, प्राणी मात्र के प्रति प्रेम, आत्मीयता हो।हम जिस समाज और जिस क्षेत्र में रहते हैं वहां की सेवा करने लायक बनें और समाज के लिए हमारी उपयोगिता हर मोर्चे पर सिद्ध होनी चाहिए।हम अपने घर-परिवार, समाज और क्षेत्र के साथ ही देश के प्रति वफादार बनें तथा हमेशा ऎसे काम करें कि जिससे देश और समाज की उन्नति हो और समाज में हमारी छवि अच्छे नागरिक के रूप में सामने आए।

शिक्षा का उद्देश्य हर व्यक्ति को समाज और देश के लिए जीने और मर मिटने वाले नागरिक तैयार करना है। शिक्षा का मतलब सिर्फ किताबी ज्ञान या स्कूल की दीवारों में गुजारे हुए वर्ष ही नहीं हैं।शिक्षा का अर्थ कमायी के लिए तैयार होने वाली मशीनों का निर्माण भी नहीं है। बल्कि शिक्षा हमारे पूरे व्यक्तित्व का निर्माण करती है। और यह व्यक्तित्व मन-मस्तिष्क और शरीर सभी हिसाब से स्वस्थ और मस्त होना चाहिए।आजकल शिक्षा का मतलब सिर्फ किताबी ज्ञान, रटन्त विद्या और ज्यादा से ज्यादा नंबर और प्रतिशत लाने तक ही सीमित होकर रह गया है। इससे बच्चों के मानसिक और शारीरिक स्तर में खूब अन्तर आ गया है।मानसिक रूप से हम कम समय में जितने अधिक परिपक्व होते जा रहे हैं, उससे कहीं अधिक शारीरिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं और शरीर तथा दिमाग का अनुपाात पूरी तरह गड़बड़ा गया है।स्कूलों में बच्चों को जो आनंद आना चाहिए वह गायब होता जा रहा है। पढ़ाई का जोर इतना ज्यादा है कि घर वाले भी सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई के लिए दिन-रात कोसते रहते हैं और स्कूल वाले भी कभी होमवर्क के नाम पर, कभी प्रोजेक्ट वर्क के नाम पर, और कभी दूसरे-तीसरे आयोजनों, सरकारी-गैर सरकारी रैलियों, कार्यक्रमों और अन्य आयोजनों के नाम पर।किताबों और कॉपियों को बोझ इतना कि रोजाना जब बच्चे स्कूल जाते हैं और आते हैं तब लगता है छोटे-छोटे कुलियो का पूरा संसार चल रहा हो। कई बार तो बच्चों के वजन से ज्यादा बस्तों का बोझ होता है।आखिर हम बचपन पर कितना अत्याचार ढा रहे हैं, यह सोचने की बात है। शिक्षा के नाम पर अरबों-खरबों की धनराशि खर्च हो रही है, शिक्षाविदों की पूरी की पूरी फौज हमारे यहां है, लेकिन इनमें से किसी को बच्चों की चिंता नहीं है, न ही इन लोगों को बचपन बचाने की कोई चिंता है।  हमारे बच्चो का शरीर कैसे बने, इसकी भी फिकर किसी को नहीं है। बच्चों के लिए खेल के मैदान और खाली स्थान ही वे क्षेत्र हैं जहां खेलते-कूदते हुए वे मजबूत शरीर के साथ आगे बढ़ते हैं और शरीर को बलवान बनाते हैं लेकिन आज न खेल मैदान रहे हैं, न खाली जगह।बच्चों के लिए हमने कहीं कोई खेल मैदान या खेलने की जगह ही नहीं छोड़ रखी है।  यही कारण है कि आज हमारे बच्चे कमजोर हो रहे हैं और भरी जवानी में भी बूढ़ापे का असर दिखाई देने लगा है।बच्चों के चेहरे से ओज गायब है, आँखों से तेज गायब है और शरीर से बल।  एक जमाना था जब गुरुकुल से निकला बालक घर-गृहस्थी और समाज से लेकर दुनियादारी के हर प्रकार के कामों में माहिर हुआ करता था।आज बच्चे पढ़ाई में खूब आगे भले ही बढ़ गए हों मगर दूसरे कामों में जीरों होने लगे हैं। कभी जरूरत पड़ जाए तो घर के काम-काज तक ये नहीं कर पाते हैं, दूसरी बातें तो और हैं।बचपन वह नींव है जिस पर व्यक्तित्व का निर्माण टिका हुआ है। लेकिन आज की  शिक्षा ने बच्चों की हवा निकाल दी है।  सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई का भूत हावी होता जा रहा है। शरीर का दम-खम खत्म होता जा रहा है, बचपन के खेल, मौज और मस्ती सब कुछ गायब है।कुछ वर्ष पहले तक जो हँसता-खेलता बचपन अपने आस-पास देखा जाता था, वह अब देखने में नहीं आता। बचपन को संवारने और आनंद लेने के संसाधन गायब हैं, माहौल नहीं है और पढ़ाई का बोझ हर कहीं हावी है।ऎसे में आज की शिक्षा हर तरह से ऎसी हो गई है कि जो बच्चों का बचपन निगल रही है और यही कारण है कि देश का भविष्य कहा जाने वाला बच्चा आज किसी मशीन से ज्यादा नज़र नहीं आता है।देश के बचपन को आज हम नहीं सुधार पाएं तो आने वाली पीढ़ियां कैसी होंगी, इसका अंदाजा लगाना कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है।

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