मनोरंजन तक ही सीमित न रहें

हमारे उत्सव, मेले और पर्व

– डॉ. दीपक आचार्य

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देश या दुनिया का कोई सा मेला, पर्व हो या उत्सव, इसकी पूर्ण उपलब्धि तभी है जब कुछ विशिष्ट व्यक्तित्वों या समूहों की बजाय इसकी दृष्टि परिधि में समूचा क्षेत्र हो, क्षेत्रवासी हों तथा स्थानीय लोगों की आत्मीय भागीदारी का व्यापक प्रतिबिम्ब सामने आए।  उत्सव और पर्व मनाने भर की औपचारिकताओं और परंपराओं के निर्वाह मात्र के घेरों से बाहर होने पर ही इसका लाभ समुदाय और क्षेत्र के लिए यादगार रह सकता है।

हर प्रकार के लोकोत्सव में उत्सव से कहीं अधिक मायने रखता है – लोक।  जहाँ यह लोक दिखेगा, वहाँ उत्सव अपने आप में यादगार हो उठता है और इसका आलोक अर्से तक पसरा रहता है। लोक-मन की भागीदारी का सीधा संबंध आँचलिक स्पर्श से है। किसी भी प्रकार के लोकोत्सव में आंचलिकता का समावेश जितना अधिक होगा, उतना ही अधिक उपलब्धियों से भरा होगा उत्सव।

उत्सव का एकमेव मकसद सिर्फ दो-चार दिन के लिए तमाशा पैदा कर लोगों को मनोरंजन करना ही नहीं होना चाहिए बल्कि जो भी आयोजन हो,   उनका उद्देश्य स्थान विशेष की लोक कलाओं, संस्कृति, परंपराओं, सामाजिक परिवेशीय धाराओं, लोक जीवन की उप धाराओं और ऎतिहासिक एवं मौलिक थातियों के संरक्षण के साथ ही इनके संवद्र्धन और इनके माध्यम से साल दर साल आंचलिक विलक्षणओं, विभूतियों, कलाकारों और सृजनधर्मियों को प्रोत्साहन देने का होना चाहिए ताकि उत्सवी परंपराओं के स्थानीयों की भागीदारी तो बढ़े ही, आंचलिक विशेषताओं को जगजाहिर होने,प्रचारित होने तथा स्थान विशेष की सांस्कृतिक गतिविधियों को वैश्विक स्तर पर फलने-फूलने लायक माहौल मिले और आंचलिक खूबियों को अत्याधुनिक परिष्कृत विधाओं के साथ जोड़कर आगे बढ़ने के अवसरों में अभिव्यक्ति हो।

हर स्थान विशेष में अपनी अलग ही तरह की लोक संस्कृति और परंपराएं होती हैं जिनका किसी से कोई मुकाबला नहीं हुआ करता। इन परंपराओं और संस्कृति को उजागर करते हुए इन्हें देश और दुनिया में स्थापित होने के अवसर मिल सकें और आंचलिक गतिविधियों, लोक संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों आदि को प्रोत्साहन मिल सके, तभी औचित्य है विभिन्न प्रकार के उत्सवों और पर्वों को मनाने का।

इन लोकोत्सवों का मकसद जब सिर्फ मनोरंजन तक सीमित होकर रह जाता है तब इनकी यादें बमुश्किल महीना भर संजो कर रखी जा सकती हैं, इसके बाद इनका स्मरण रख पाना सभी तरह के लोगों के लिए न जरूरी होता है, न नख पाते हैं। चाहे फिर वे आयोजक हों या श्रोता-दर्शक। हर क्षेत्र मेंं कई लोक सांस्कृतिक विलक्षणताएं और पारंपरिक हुनर, मौलिक रास-रंग, प्रस्तुतियां आदि हैं जो विलुप्त हो चुकी हैं अथवा विलुप्त होने के कगार पर हैं। हर क्षेत्र में अपार साहित्य संपदा है जिसे संरक्षित किए जाने की जरूरत है।

स्थानीय संस्कृति, लोक कलाओं और साहित्य आदि की मामूली झलक एक-दो दिन दिखा दिए जाने से लोक संस्कृति और परंपराओं का भला होने की बातें सोचना बेमानी की कहा जा सकता है। उत्सवी धर्म के साथ स्थायी भाव की गतिविधियों को शामिल किया जाकर ही हम संस्कृति की रक्षा को आकार दे सकते हैं।

इसके लिए प्राचीन परंपराओं और साहित्य का अध्ययन-अनुशीलन, शोध, किसी एक स्थान पर संग्रहण, लोक संस्कृति तथा पुरातन परंपराओं का प्रतिदर्श दर्शान के लिए व्यापक और उदारवारदी सोच के साथ संग्रहालयों को स्थापित करना आज की जरूरत है। दो-चार दिन का मेला लगाने के साथ ही साल भर के लिए भी कुछ सोचा जाना चाहिए ताकि हम लोक संस्कृति को उत्तरोत्तर और अधिक संरक्षित व विकसित कर सकें।

जहाँ लोकोत्सव और लोक पर्व तथा मेले हो रहे हैं, वे लोक संस्कृति और आंचलिक परंपराओं की दृष्टि से श्रेष्ठ पहल कही जा सकती है लेकिन हमें इन प्राचीन धरोहरों तथा आंचलिक मौलिकताओं और विशेषताओं को उजागर करने तथा इनसे संबंधित सभी क्षेत्रों और लोगाें को प्रोत्साहित करने के लिए ऎसा कुछ करना होगा कि ये गतिविधियां स्थायी भाव प्राप्त कर लें और सिर्फ दो-चार की मनोरंजनप्रधान तमाशेबाजी पर ही केन्दि्रत न रहें।

आज हम सभी को अपने-अपने क्षेत्रों की पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए समर्पित एवं आत्मीय भागीदारी निभाने का प्रण लेना होगा। यह काम सिर्फ कुछ लोगों या समूहों के बूते का नहीं है, यह हमारा है, हमारे लिए है। इन उत्सवों में जितनी अधिक स्थानीयों की भागीदारी रहेगी, उतना अधिक इनका प्रभाव सामने आएगा।

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