जब नहीं हो जरूरत

शरीर को विराम दें

– डॉ. दीपक आचार्य

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संसार के प्रत्येक जड़ और जीव को विश्राम की जरूरत पड़ती है और पर्याप्त विश्राम पा लेने के उपरान्त पुनः ऊर्जीकरण की प्रक्रिया संपादित होने लगती है। ऎसा न हो तो इनकी आयु और क्षमता दोनों पर कुप्रभाव होने लगता है और इनका अस्तित्व भी अपेक्षाकृत जल्दी ही नष्ट होने लगता है।

शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्दि्रयों और कर्मेन्दि्रयों के बेवजह उपयोग से इनकी शक्तियों का क्षरण होता रहता है और अन्ततः एक समय ऎसा आता है कि जब कोई न कोई जरूरत का अंग जवाब दे जाता है।  जो लोग जल्दी ही ऊपर जाना चाहें अथवा किसी न किसी अंग विशेष की सेवाओं से वंचित होना चाहें उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अपना जीवन कैसे चलायें। मगर जिन लोगों को अपने शरीर से समाज और देश के लिए काम करने की आवश्यकता है उन सभी लोगों के लिए यह जरूरी है कि वे अपने जीवन में संयम बरतें और शरीर को लम्बे समय तक सुचारू और स्वस्थ बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहें।

योग-व्यायाम और शारीरिक श्रम का अपना महत्त्व जरूर है लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हम ईश्वर के बनाए हुए शरीर से फालतू का काम न लें। शरीर का उतना ही उपयोग करें जितना आवश्यकता है। शरीर के सभी अंगों का समानुपाती उपयोग और व्यवहार जरूरी है और ऎसा होने पर ही शरीर को लम्बे समय तक स्वस्थ, मस्त और उपयोगी रखा जा सकता है। किसी भी एक अंग के अनुपात से अधिक उपयोग से शारीरिक उपयोग और संतुलन में गड़बड़ी का आ जाना अनिवार्य है।  खासकर उन सभी बातों में संयम बरतने की जरूरत है जिनमें हमारे शरीर की ऊर्जाओं का क्षरण होता है।

कई सारे लोग बिना काम के बोलते रहने के आदी होते हैं और उन्हें जमाने भर की बातों को जानने तथा उनके बारे में बोलते  ही रहने की आदत हुआ करती है। इन लोगों के लिए अपने सामने किसी श्रोता का होना वरदान से कम नहीं होता।

ऎसे लोगों के लिए अपने विषयों और क्षेत्रों की कोई सीमाएं नहीं हुआ करती। ये लोग गहरी नींद को छोड़कर दिन-रात बड़बड़ाते रहते हैं, बिना काम के बोलते रहते हैं। इनका साफ मानना होता है कि सामने वाला तभी हमारे अस्तित्व और महानता को स्वीकार करता है जबकि हम ज्यादा से ज्यादा बोलते रहें।

कई लोग तो इस प्रकार नॉन स्टॉप बोलते ही चले जाते हैं कि इनकी अभिव्यक्ति क्षमताओं पर आश्चर्य मानकर इसे चमत्कार की श्रेणी में ही रखना पड़ता है। ऎसे लोग घर-परिवार, रास्ते, कार्यक्रमों, बस-रेल और सभी स्थानों पर बेवजह बोलते ही रहते हैं।

इनके बोलने का कोई अर्थ नहीं होता लेकिन बोलना इनके स्वभाव में ऎसा आ गया है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। हममें से खूब सारे लोग ऎसे हैं जो ऎसे लोगों से परेशान हैं लेकिन इन्हें भुगतने को विवश हैं। जिन लोगों को लगातार तथा फालतू का बोलने की आदत होती है उनके जीवन की उत्तरावस्था ऎसी हो जाती है कि उनके मुँह से बोलना बंद हो जाता है। या तो जीभ लड़खड़ा जाती है अथवा मुँह को लकवा मार जाता है। ऎसा इसलिए होता है कि उनको पूरी जिन्दगी में जितने शब्दों का कोटा बोलने के लिए भगवान ने दिया होता है उन्हें वे निर्धारित समय से पहले ही बेवजह बकवास करते हुए पूर्ण कर लिया करते हैं। इस तरह ये कोटा समाप्त हो जाता है और वे शेष जिन्दगी वाणी के बगैर बिताने को विवश होते हैं।

इसी प्रकार खूब सारे लोग दुनिया भर का सुनने और सुनकर दिमाग में जमा करने के आदी होते हैं। ऎसे लोगों के कान हमेशा चौकन्ने होते हैं और ये दुनिया का वह सब कुछ भपी सुनना चाहते हैं जो नहीं सुनना चाहिए। ऎसे में ये लोग अपने कानों से बेवजह ज्यादा काम लेते हैं और इस कारण उनके कान जल्दी ही जवाब दे जाते हैं।

यही हालत दिमाग की है जिसमें जितना ज्यादा कचरा भरा होता है उतना वह जल्दी थक जाता है और कई बार यह हालत हो जाती है कि दिमाग काम करना बंद कर देता है अथवा अक्सर शून्यावस्था में चला जाता है। इंसान की जिन्दगी में सबसे ज्यादा फालतू का काम आँखों को करना पड़ता है।

हम अपनी पूरी जिन्दगी देखना कभी नहीं भूलते। आँख वह अंग है जिसे सर्वाधिक काम करना पड़ता है। कई स्थान ऎसे होते हैं जहाँ हम चाहें तो आँखों को विराम दे सकते हैं लेकिन हमारी  जिज्ञासाओं का कभी अंत नहीं होता और हम वह सब कुछ देखना चाहते हैं जो संसार में होता है।

इसी प्रकार अन्य अंगों-उपांगों की स्थिति भी है। यह तय माना जाना चाहिए कि जिस अंग का बिना काम के इस्तेमाल किया जाएगा, वह अपनी आयु समय से पहले खो देता है। इसलिए शरीर के अंगों-उपांगों का संयमपूर्वक समानुपाती इस्तेमाल करने की आदत डालनी जरूरी है।

अपने शरीर को संभाले रखने का काम किसी और को नहीं करना है, बल्कि हमें ही करना है और इस बात को हमेशा ध्यान में रखते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि उपयोगहीनता के समय शरीर के अंग-उपांगों को विराम प्रदान करें। किस प्रकार और कहाँ विराम दिया जा सकता है, इस बारे में किसी को समझाने की जरूरत नहीं है।

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