संसद और विधान मंडल केवल धन जुगालने का साधन बन गये हैं

बृजेन्द्र सिंह वत्स

लोकतंत्र में संवाद उसके प्राण होते हैं और संवाद स्थल संसद उस का मंदिर, संभवतः इसीलिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष२०१४,भारत का आधिकारिक संवत,शक संवत  १९३६ में जब संसद में प्रथम बार प्रवेश किया था, तो संसद की ढ्योड़ी का वंदन  करके इस लोकतंत्र के मंदिर की अभ्यर्थना की थी और सबको चौंका दिया था। संसद का अर्थ  है कि जनता द्वारा निर्वाचित उनके प्रतिनिधि  तथ्यपरक और बुद्धिमत्ता पूर्वक संवाद के माध्यम से  उनके कल्याण हेतु योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन करें लेकिन आजकल इस संसद में संवाद के स्थान पर अनुशासन हीनता तथा उच्छ्रंखलता चहुंओर व्याप्त है। देखकर क्षोभ होता है कि हमारे प्रतिनिधि कितने वाचाल हैं कि सदन के पीठासीन अधिकारी के निर्देशों को मानने की बात तो क्या, बात सुनने को भी तत्पर नहीं होते हैं। संवाद का स्थान कोलाहल ने ले लिया है।संवाद अर्थात शब्दों का तथ्यों काआदान-प्रदान लेकिन वर्तमान में संसद में केवल आदान ही आदान है, प्रदान करने वाले संसद छोड़कर बाहर खड़े हुए हैं।
 आश्चर्य है कि यह सब माननीय हैं।अपने दायित्व    का पालन न करने के पश्चात भी इन्हें सब सुविधाएं प्राप्त हैं। यह जितनी बार भी चुनकर सदन में जाते हैं वहां अपना दायित्व चाहे पूरा करते हो अथवा नहीं, उतनी ही बार पेंशन के अधिकारी हो जाते हैं  किंतु तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो एक कर्मचारी जो सीमा पर खड़ा हुआ अपने प्राणों को दांव पर लगाकर अपने दायित्व का निर्वहन करने के लिए ३६५ दिन और २४ घंटे कटिबद्ध होता है। इसी प्रकार पुलिस विभाग का प्रत्येक सदस्य ३६५ दिन और २४ घंटे अपने मोर्चे पर डटा रहता है ।एक कर्मचारी कार्यालय में बैठकर अपने दायित्व को पूरी निष्ठा के साथ निभाने के लिए तत्पर रहता है किंतु दुर्भाग्य से  सेवानिवृत्ति पर वह रीते हाथ अपने घर वापस चला आता है। वह अपनी पेंशन के लिए निरंतर सड़क पर संघर्ष कर रहा है लेकिन इन माननीयों ने उस के पक्ष में कोई ध्यानाकर्षण प्रस्ताव सदन में कभी नहीं रखा। यह पेगासस, अडानी जैसे बिंदुओं पर संसद की कार्यवाही को चलने नहीं देते लेकिन कर्मियों की पेंशन के विषय में जैसे इनकी ज़ुबान को लकवा मार जाता है।  इन्हें  उनका चीत्कार सुनाई ही नहीं देता। जिस मणिपुर के बिंदु पर इन दिनों सदन बाधित है , वहां का कर्मचारी भी पेंशन के लिए  आर्तनाद कर रहा है लेकिन उसके रुदन के समय इनके कानों में तेल पड़ जाता है।
संसद के इस विवाद के मूल में मणिपुर की हिंसा है। विपक्ष इस मत पर दृढ है कि प्रधानमंत्री सदन में आकर मणिपुर हिंसा पर अपने वक्तव्य  के द्वारा चर्चा का आरंभ करें ।विपक्ष चर्चा किस नियम के अंतर्गत हो, वह  भी पीठासीन अधिकारी को बता रहा है। संसदीय परंपरा के अंतर्गत चर्चा किस नियम के अंतर्गत हो इसका निर्णय करने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति का है। चर्चा में कौन  प्रतिभाग करे, यह निर्णय करना संबधित दलों का अधिकार है। सरकार की ओर से चर्चा में कौन प्रतिभाग करे, सरकार को ही इसका निर्णय  करना है लेकिन विपक्ष इस बात पर अड़ा हुआ है कि सब कुछ उसके निर्देशानुसार ही होना चाहिए अन्यथा वे सदन को इसी प्रकार  बाधित करेंगे।इस गतिरोध को धार देने के लिए एक दिन विपक्ष काले कपड़े पहन कर सदन में उपस्थित हुआ। पिछले कुछ समय से कांग्रेस के नेतृत्व में  काले कपड़े पहन कर विरोध करना एक परंपरा सी बन गई है। जनतंत्र की राजनीति में काले कपड़ों की कोई भूमिका नहीं हो सकती। ऐसी आशा तो इटली के तानाशाह मुसोलिनी जैसी फासिस्ट शक्तियों से  ही  की जा सकती है। 
मानसून सत्र में मणिपुर हिंसा को लेकर सरकार और प्रतिपक्ष के मध्य गतिरोध है। यह सत्य है कि मणिपुर में हिंसा हुई है किन्तु संभवत: जुलाई माह में किसी के हताहत होने की कोई सूचना नहीं है अर्थात स्थिति पर नियंत्रण पाने में सफलता प्राप्त हुई है । वर्ष १९९३ में मणिपुर में इसी प्रकार का संघर्ष हुआ था, जिसमें लगभग ७५०  जन हताहत हुए थे। केंद्र में उस समय कांग्रेस की सरकार थी। विपक्ष ने आज की ही तरह प्रधानमंत्री से हिंसा पर वक्तव्य देने की मांग की थी । उस समय विपक्ष अपनी मांग पर तो डटा रहा किंतु अराजक नहीं हुआ, परिणाम स्वरूप एक राजनैतिक सोच विकसित हुई और सदन में इस विषय पर चर्चा हुई तथा तत्कालीन गृहमंत्री शंकर राव चव्हाण ने चर्चा पर अपना वक्तव्य दिया।  मानसून सत्र में सरकार को  बहुत से विधायी कार्य करने हैं लेकिन विपक्ष के असहयोगात्मक व्यवहार के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा,अत: सरकार ने इस कोलाहल के बीच में ही सदन में विधेयकों को पारित कराना प्रारंभ कर दिया। सरकार के इस पलटवार से विपक्ष हतप्रभ  रह गया।  इन अत्यंत महत्वपूर्ण विधेयकों पर जहां विपक्ष सरकार की घेराबंदी कर सकता था, वह अपनी हठधर्मिता के कारण इससे चूक गया।
 विपक्षी खेमे में एक हास्यास्पद तथा उहापोह की स्थिति  उत्पन्न हो गई है।  केंद्र सरकार के द्वारा जो अधिकारी दिल्ली शासन में प्रतिनियुक्ति पर भेजे जाते हैं,  सरकार ने एक अध्यादेश लाकर 

उनकी नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार दिल्ली सरकार से वापस ले लिया है। अब संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत एक विधेयक संसद में प्रस्तुत होना है। इस पर दिल्ली के चतुर सुजान मुख्यमंत्री केजरीवाल तिलमिलाए हुए हैं और राज्यसभा में इस अध्यादेश के स्थान पर आने वाले विधेयक को पराजित कराने के लिए पूरे विपक्ष से प्रार्थना कर रहे हैं। संभव है कि जब यह पंक्तियां सृजित हो रही हों तब सरकार इस विधेयक को सदन के पटल पर रख रही हो। विपक्ष के सामने एक बहुत बड़ी दुविधा है कि वह अन्य किसी भी विधेयक पर चर्चा व मतदान में सम्मिलित नहीं हुआ तो इस विधेयक पर सदन में कैसे उपस्थित हो सकेगा?दिल्ली के विधेयक को गृह मंत्री अमित शाह प्रस्तुत करके चर्चा का आरंभ करेंगे और यदि कोई चर्चा होती है तो उसका उत्तर देंगे। अर्थात यहां प्रधानमंत्री कहीं नहीं दिख रहे हैं जबकि विपक्ष अड़ा हुआ है कि प्रधानमंत्री सदन में आकर अपना वक्तव्य प्रस्तुत करें। इसके अतिरिक्त विपक्ष द्वारा सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी लाया गया है। विपक्ष का कहना है कि वह इसके माध्यम से प्रधानमंत्री को सदन में बोलने के लिए विवश कर देगा । अब स्पष्ट है कि अविश्वास प्रस्ताव पर तो प्रधानमंत्री को चर्चा का उत्तर देना है। चर्चा का प्रारंभ तो प्रस्ताव रखने वाले गौरव गोगोई को ही करना होगा।जिस बिंदु पर विपक्ष निरंतर सदन को बाधित करता रहा है, वह लक्ष्य क्या उसे प्राप्त हुआ है ? लगता है विपक्ष अपनी अतार्किक रणनीति के कारण अपने बुने हुए जाल में स्वयं ही फंस गया है। उसने अनायास ही अविश्वास प्रस्ताव रखकर प्रधानमंत्री को अपने विरुद्ध एक घातक अस्त्र प्रदान कर दिया ।अविश्वास प्रस्ताव पर अंतिम भाषण प्रधानमंत्री का होगा और वे सभी बिंदुओं पर अपनी बात कहेंगे। एक तरह से विपक्ष ने उन्हें २०२४ के चुनाव प्रचार का धरातल प्रदान कर दिया है।
संसद की कार्यवाही पर भारत के करदाता से अर्जित धन व्यय होता है। वह कर दाता जो अपने प्राण हथेली पर रखकर देश की सुरक्षा के लिए सीमा पर अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए सन्नद्ध खड़ा है। वह ठेला खींचने वाला जो अपनी क्षुधा को शांत करने के लिए वृद्धावस्था में अपने रक्त व स्वेद को एकाकार करके कुछ अर्जित कर रहा है तथा खरीदारी करने पर कर दे रहा है लेकिन जब वह देखता है कि उसके तथाकथित प्रतिनिधि प्रश्नकाल, शून्यकाल जहां वे उससे संबंधित समस्याओं को उठाकर उनका समाधान करा सकते हैं। यह उनकी उसके प्रति, प्रतिबद्धता है परंतु वे उस प्रतिबद्धता का निर्वहन करते नहीं दिखते और उस समय वह करदाता ठगा सा रह जाता है । उस कर दाता का एक प्रश्न है कि संसद में जो व्यवधान उत्पन्न करते हैं, क्या वे इस अवधि का वेतन व भत्तों का त्याग करने का उदाहरण भी प्रस्तुत करने का साहस करेंगे? क्या काम नहीं तो वेतन नहीं का सूत्र यहां प्रयोग में लाया जाएगा? संसद और विधान मंडलों में कुछ न कुछ अनुशासन और सीमाएं तो रेखांकित की ही जानी चाहिए। जनता को भी उसके धन को मैं निर्ममता से उड़ाने वाले सांसदों और विधायकों पर निकटता से दृष्टि रखनी चाहिए तथा अगली बार उन्हें निश्चित पाठ पढ़ाना चाहिए। संसद और विधान मंडल केवल धन जुगालने का साधन बन गये हैं। अब तो भारत के करदाता को इससे छुटकारा मिलना ही चाहिए।

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