नेपाल का नागरिकता कानून और भारत के साथ उसके रोटी बेटी के संबंध

सच्चिदानंद सच्चू

सीमा के दोनों तरफ रहने वाले करोड़ों मधेसी इस बार भी पीएम की यात्रा से उम्मीद बांधे हुए थे। लेकिन उनकी समस्या का समाधान इस यात्रा से भी होता नहीं दिख रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक से जिन मधेसियों को उम्मीद थी, उस पर पानी फिर चुका है।

नेपाली प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड की भारत यात्रा से भारत-नेपाल के कूटनीतिक संबंधों पर जो पिछले कुछ वर्षों से बर्फ जमी थी, वह अब पिघलने लगी है। यह सर्व विदित है कि भारत और नेपाल के बीच बेटी-रोटी का संबंध है। इस संबंध पर दोनों मुल्कों के कूटनीतिक रिश्तों पर जमी बर्फ से कोई असर नहीं पड़ता रहा है। असल में यह संबंध कूटनीतिक रिश्तों की परवाह किए बगैर सदियों से फलता-फूलता रहा है और आगे भी फलता-फूलता रहेगा। बेटी-रोटी का यह संबंध दिल्ली और काठमांडू से निर्धारित नहीं होता है। सीमा के दोनों ओर रहने वाले करोड़ों लोगों की आबादी इस संबंध को सींचती रही है। अलबत्ता दिल्ली और काठमांडू के रिश्ते इसमें कभी-कभार रोड़ा अटकाने का काम जरूर करते रहे हैं। सीमा के दोनों तरफ रहने वाली करोड़ों लोगों की आबादी में बहुतायत तराई में निवास करने वाले लोगों की है, जिसे नेपाल में मधेसी कहा जाता है। नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना हुए एक लंबा अरसा गुजर चुका है इसके बावजूद वहां आज भी मधेसियों को दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है। नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू होने से पहले लोगों को यह उम्मीद थी कि इस कानून से मधेसियों को राहत मिलेगी लेकिन इस कानून के लागू हो जाने से यह साबित हो गया है कि नेपाल में मधेसियों के साथ चल रहा भेदभाव का सिलसिला अभी रुका नहीं है।

ये मधेसी ही हैं जो भारत और नेपाल के रिश्तों के बीच की सबसे अहम कड़ी हैं। इनकी जड़ें भारत से जुड़ी हुई हैं सो नेपाल में जब भी भारत विरोधी हवा चलती है, सबसे पहले निशाने पर ये मधेसी ही होते हैं। ऐसी परिस्थिति में मधेसी भारत की तरफ आशा भरी नजरों से देखते हैं कि भारत उन्हें संकट से उबारे। लेकिन भारत एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामले में दखलंदाजी करने से सदा बचता रहा है सो भारत ऐसी परिस्थिति में भी मधेसियों की मदद नहीं करता। पिछले वर्ष जब भारत की ओर से नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी की गई थी, तो भी सबसे ज्यादा परेशानी इन्हीं लोगों को हुई। राशन-पानी के साथ-साथ पेट्रोलियम पदार्थ जैसी बुनियादी वस्तुओं के लिए ये लोग काफी दिनों तक तरसते रहे। नेपाल में भारत समर्थक ऐसे लोगों को भारत का दलाल या भारत का एजेंट कहकर संबोधित किया जाता है लेकिन मुझे यह याद नहीं कि नेपाल में चीन की हवा चलाने वाले लोगों को कभी इस हीन भावना से गुजरना पड़ा हो। ऐसे लोग सत्ता के शीर्ष पर हों या न हों लेकिन समाज में हमेशा सम्मानित ही रहते हैं। हालांकि ऐसे लोगों को भी चीन की विस्तारवादी नीति परेशान करती रही है।

हालांकि आर्थिक नाकेबंदी के बाद नेपाल के हुक्मरानों को यह बात अच्छे से समझ में आ गई होगी कि चीन के साथ वह चाहकर भी व्यापारिक रिश्तों को मजबूती नहीं प्रदान कर सकता। भारत के साथ जो उसके सहज व्यापारिक रिश्ते हैं, उसे ही मजबूत बनाना होगा। इसके बावजूद भारत और नेपाल के बीच हुई द्विपक्षीय बातचीत से यह मुद्दा गायब ही रहा कि नेपाल में चीन कुछ खास दिलचस्पी लेने लगा है। इन दिनों नेपाल में कई निर्माण कार्य चीन की मदद से चल रहे हैं। यह नेपाल के अस्तित्व के लिए तो खतरनाक है ही, भारत की सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी इसे ठीक नहीं माना जाना चाहिए। हाल के दिनों में नेपाल सीमा पर विदेशी नागरिकों की गिरफ्तारी ने इस मामले में भारतीय पक्ष को अधिक चिंतित किया है। नेपाल दान लेने में अन्य देशों की तुलना में अधिक माहिर रहा है। और यही कारण है कि पाकिस्तान, जो खुद आर्थिक बदहाली की स्थिति में है, ने भी नेपाल में पुल-पुलियों के निर्माण में रुचि दिखाई है। भारतीय सीमा क्षेत्र से जनकपुर जाने वाली लगभग दस किमी लंबी सड़क पर पुल-पुलियों का निर्माण हाल ही में पाकिस्तान सरकार की मदद से हुआ है। इसके लिए वहां से इंजीनियरों की टीम आई थी। पाकिस्तान सरकार द्वारा नेपाल में पुल-पुलियों का निर्माण करना नेपाल में आम बात हो सकती है लेकिन भारत के लिए यह चिंताजनक है। क्योंकि खुली सीमा होने के कारण कोई भी आसानी से भारत में घुस सकता है और हमारी सुरक्षा व्यवस्था को खतरे में डाल सकता है। भारत-नेपाल सीमा पर विदेशी नागरिकों की पहचान जितनी आसान है, उतनी ही मुश्किल है पाकिस्तानी नागरिकों की पहचान करना। क्योंकि पाकिस्तानी यहां आकर अच्छी तरह हिंदी बोलते हैं और नेपाल के तराई क्षेत्र में कुछ दिनों तक रहने के कारण स्थानीय भाषा, मैथिली और भोजपुरी की समझ भी उन्हें आसानी से हो जाती है। ऐसी स्थिति में ऐसे लोगों की घुसपैठ आसानी से हमारे सीमा क्षेत्र में हो सकती है। भारत को नेपाल सरकार के समक्ष इस मुद्दे को गंभीरता से उठाना चाहिए।

प्रधानमंत्री प्रचंड की भारत यात्रा के बाद यह तो तय है कि ‘काला पानी’ सीमा विवाद के बाद दोनों देशों के रिश्तों में जो तल्खी आई थी, वह कुछ कम होगी। नेपाल अपने लिए कुछ अतिरिक्त सहुलियतें जुटाने में कामयाब होगा। प्रचंड, जिन्हें आमतौर पर चीन का समर्थक माना जाता रहा है, उन्हें भी चीनी मदद के बाद श्रीलंका के दिवालिएपन ने जरूर कोई न कोई सबक दिया होगा। शायद यही कारण है कि अबकी बार प्रचंड ने प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले चीन जाने की बजाय भारत आना अधिक श्रेयस्कर समझा। इसलिए सीमा के दोनों तरफ रहने वाले करोड़ों लोग इस यात्रा को आशा भरी निगाहों से देख रहे थे।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि सीमा के दोनों तरफ रहने वाले करोड़ों मधेसी इस बार भी पीएम की यात्रा से उम्मीद बांधे हुए थे। लेकिन उनकी समस्या का समाधान इस यात्रा से भी होता नहीं दिख रहा है। नागरिकता संशोधन विधेयक से जिन मधेसियों को उम्मीद थी, उस पर पानी फिर चुका है। क्योंकि नागरिकता विधेयक में संशोधन के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की गई है। भारत से ब्याहकर नेपाल गई लाखों बेटियां आज भी नागरिकता के लिए नेपाल में दर-दर की ठोकरें खा रही हैं। स्थायी नागरिकता नहीं होने के कारण उन्हें वहां कई तरह की बुनियादी सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है। हाल ही में नेपाली सांसद सीता देवी यादव के मामले ने मधेसियों को हैरान-परेशान किया था। वे सांसद तो बन गईं लेकिन स्थायी नागरिकता नहीं होने के कारण उन्हें नेपाल के मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। सीता देवी यादव का मायका मधुबनी जिले का एक सीमावर्ती गांव है। सीता देवी जब 15 वर्ष की थीं तब उनकी शादी अपने घर से महज छह किमी दूर नेपाल में करा दी गई। उनके पति चंद्रकांत यादव नेपाली कांग्रेस के कद्दावर नेता माने जाते थे जिनकी हत्या 2000 साल में कर दी गई थी। वे नेपाली कांग्रेस से सांसद निर्वाचित हुए और वहां के मंत्री भी बने। उनकी हत्या के बाद सीता देवी नेपाली राजनीति में सक्रिय हुईं और नेपाली कांग्रेस से सांसद निर्वाचित हुईं। इसके बावजूद उन्हें मंत्री बनने से इसलिए रोक दिया गया क्योंकि उनके पास नेपाल की स्थायी नागरिकता नहीं थी। नेपाल ब्याह कर लाई गई भारतीय बेटियों के लिए नेपाल सरकार अस्थायी नागरिकता देती है, जिसकी मान्यता महज सात साल की होती है। सात साल के बाद भारतीय बेटियों को वहां जो नागरिकता दी जाती है, उसे अंगीकृत नागरिकता कहते हैं। वंशज नागरिकता की तुलना में अंगीकृत नागरिकता में कई अधिकार कम होते हैं। नए संशोधन के हिसाब से नेपाल ब्याह कर लाई गई विदेशी बेटियों को नेपाल में लगातार सात साल रहना होगा और इसके बाद उन्हें अंगीकृत नागरिकता दी जाएगी। सात साल की इस अवधि को ‘कूलिंग पीरियड’ कहा गया है।

नेपाल का यह कानून भारत-नेपाल के बेटी-रोटी संबंध को भी प्रभावित कर रहा है। दोनों देशों के बीच होने वाले विवाह के आंकड़ों में कमी आने लगी है। भारत के लोग यह नहीं चाहते कि शादी के बाद उनकी बेटियों को नागरिकता को लेकर फजीहत उठानी पड़े। दूसरी तरफ तस्करी और घुसपैठ को रोकने के लिए सीमा पर बरती जा रही चौकसी से भी लोगों का मन खट्टा होने लगा है। क्योंकि सीमा पर बरती ज रही चौकसी ने बारातियों की आवाजाही पर अंकुश लगाने का काम किया है। इसके लिए दोनों तरफ के सुरक्षा बल समान रूप से जिम्मेवार हैं। असल में ‘बेटी-रोटी’ के इस संबंध को दिल्ली और काठमांडू शिफ्ट करने की कोशिश की जा रही है। इस संबंध को वहीं रहने देना चाहिए, जहां उसे होना चाहिए। दिल्ली और काठमांडू इस रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने का काम करे। नागरिकता कानून जैसे जो बाधक तत्व हैं, उसे मिलकर सुलझाएं और इस संबंध को फलने-फूलने दें। आम और खास के बीच भारत-नेपाल का यह संबंध सदियों पुराना है। सीता और राम के संबंध जैसा। यह संबंध जितना मजबूत होगा, जितना प्रगाढ़ होगा उतना ही बढ़िया है। इन संबंधों के कारण ‘काला पानी’ जैसी तल्खियां खुद-ब-खुद दूर होती जाएंगी।

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