लियानमेन नरसंहार के 34 साल/* *मानव स्मृतियां हर साल कम्युनिस्टों को बेनकाब करती हैं*

कम्युनिस्टों की तानाशाही, बर्बर हिंसा को याद करना इसलिए जरूरी है

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आचार्य विष्णु हरि सरस्वती

लियानमेन स्कवायर जनसंहार के कोई एक दो वर्ष नहीं बल्कि पूरे 34 वर्ष हो गये। मानव स्मृतियां दो-चार साल में ही धूमिल हो जाती हैं और इतिहास बन जाती हैं। पर लियानमेन स्कवायर जनसंहार की स्मृतियां इतिहास तो बनी हैं पर सुखद यह है कि लियानमेन जनसंहार मानव स्मृतियों में आज भी उपस्थित है। हर साल लियानमेन जनसंहार की मानव स्मृतियां ताजी हो जाती हैं और उन हजारों युवकों व छात्रों को श्रद्धांजलियां अर्पित की जाती हैं जो इस जनसंहार में बलिदान हुए थे, जिन पर बदूक की गोलियां ही नहीं बल्कि रेल गाड़ियां चली थी, टैंक चले थे और प्रेक्षापास्त्र चले थे।
आम तौर पर निहत्थे और शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करने वालों और अपनी मांग करने वालों पर सेना के टैंक नहीं चलते हैं, सेना के प्रेक्षापास्त्र नहीं चलते हैं। लियानमेन स्कवायर जनसंहार की इस बरसी पर भी दुनिया भर में लोकतंत्र के बलिदानियों को याद किया गया, कहीं संगोष्ठियां आयोजित की गयी तो कहीं प्रदर्शन हुए, विरोध में सभाएं आयोजित की गयी। लेकिन दुखद बात यह है कि इस बरखी पर भी विरोध प्रदर्शनों को न केवल रोका गया बल्कि विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने वाले लोकतंत्रवादियों को गिरफ्तार कर जेलों में डाला गया। हांगकॉग में लोकतंत्र वादियों को गिरफ्तार कर चीनी जेलों में डाला गया।
दुनिया में अभी भी ऐसी तानाशाहियां बची हुई हैं जो लोकतंत्र की कब्र पर बैठी हुई हैं और मानवाधिकार की कब्र खोदती है, जिनके लिए अतंराष्टीय चार्टर की कोई कीमत या बाध्यता नहीं होती है। ऐसी तानाशाहियों में कम्युनिस्ट तानाशाही और मुस्लिम तानाशाहियां हैं। चीन और उत्तर कोरिया में जहां कम्युनिस्ट तानाशाहियां हैं वहीं दुनिया के लगभग 60 देशों में मुस्लिम तानाशाहियां कायम हैं। इन तानाशाहियों को कैसे समाप्त कर लोकतंत्र स्थापित किया जाये उस पर अभी भी दुनिया में कोई चाकचौबंद नीति नहीं बनी हैं। संयुक्त राष्टसंघ जैसी संस्था सिर्फ हाथी के दांत हैं। संयुक्त राष्ट संघ जैसी अतंराष्टीय संस्थाओं के लिए चीन, उत्तर कोरिया और मुस्लिम देशों की मजहबी तानाशाहियां एक कलंक के समान है। लियानमेन चौक संहार की बरसी को लोकतंत्र सुरक्षा दिवस घोषित किया जाना चाहिए।
तीन जून 1989 को चीन ने शांति पूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहे लाखों छात्रों और युवकों पर रेल गाड़ियां दौड़ायी थी, टैंकों से हमले किये थे, प्रेक्षापास्त्र दागे थे। बीजिंग के लियानमेन चौक आंदोलनकारी छात्रों और युवकों के खून से लाल हो गया था। चारों तरफ खून ही खून पसरा हुआ था, चारों तरफ लाशें पड़ी हुई थी। रेल पटरियों पर धरणा दे रहे छात्रों और युवकों पर रेल गाड़िया चला कर उनकी हत्या की गयी थी।
विश्व इतिहास में यह हिंसा न केवल सबसे बड़ी भीषण और बर्बर था बल्कि अकल्पणीय भी थी। चीन ने जैसी भीषण कार्रवाई की थी उसकी विश्व इतिहास में पहले कोई निशानी ही नहीं थी। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने तब बयान जारी कर कही थी कि ये सब विदेशों के दलाल थे और चीन में हिंसा व अराजकता फैलाना चाहते थे। अपनी हिंसक कार्रवाई के प्रति चीन ने न केवल प्रतिबद्धता जतायी थी बल्कि यह भी कहा था कि सुरक्षा की दृष्टि से इस तरह की हिंसक कार्रवाइयां को अंजाम देने का अधिकार उसे हैं। यह उसका आतंरिक प्रश्न है जिस पर दुनिया को बोलने या फिर प्रतिक्रिया गत कार्रवाई करने का अधिकार नहीं है।
लियानमेन स्कवायर संहार में कितने छात्र और युवा मारे गये थे इसकी कोई सटीक जानकारी नहीं है। कोई हजारों में इसकी संख्या बताता है तो कोई लाखों में इसकी संख्या बताता है। लियानमेन चौक, बीजिंग के अन्य जगहों तथा रेल पटरियों पर कोई दस लाख से ज्यादा छात्र और युवा बैठे थे। इसी तरह पूरे चीन के बड़े-बडे शहरों के महत्वपूर्ण जगहों पर छात्र युवा धरने पर बैठे हुए थे। चीन में स्वतंत्र मीडिया था नहीं। चीन में विदेशी पत्रकारों की उपस्थिति थी नहीं। चीन से बाहर खबर भेजने वालों पर चीनी तानाशाही का पहरा था। इसलिए यह मालूम ही नहीं हो सकता था कि चीन ने कितने छात्र और युवाओं का संहार किया था।
पर दुनिया भर के लोकतंत्रवादियों और मानवाधिकार संगठनों ने जो जानकारियां एकत्रित की थी वह काफी चौकानें वाली थी। पांच लाख से ज्यादा छात्र और युवाओं को मौत का घाट उतारा गया था। टेंकों और प्रेक्षापास्त्रों तथा पटरियों पर रेल गाड़ियो के हमले से जो बच गये थे और सुरक्षित जगहों पर छिप गये थे उन्हें भी चीन की पुलिस और सेना खोज-खोज कर हत्याएं की थी। चीन की कम्युनिस्ट तानाशाही का मानना था कि लियानमेन चौक पर धरणा देने वाले युवा और छात्र बच गये तो फिर उनकी तानाशाही के खिलाफ आगे भी बगावत हो सकती है। लियानमेन स्कवायर आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं को चीनी जेलों में कैद कर प्रताड़ित किया गया और मौत को गले लगाने के लिए बाध्य किया गया।
छात्र-युवा चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही से खफा थे और अपनी स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। अपनी स्वतंत्रता का अर्थ लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी से था। चीन में उस काल में अभिव्यक्ति की आजादी थी नहीं, अपनी स्वतंत्रता सुरक्षित करने का अधिकार नहीं था, अपनी इच्छा के अनुसार अपनी कैरियर चुनने का अधिकार नहीं था। अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बनाने का अधिकार नहीं था। अपनी इच्छा के अनुसार वोट देने का अधिकार नहीं था। वोट जनता नहीं देती थी। यानी की जनता वोट के अधिकार से वंचित थी। वोट सिर्फ कम्युनिस्ट पाटी के सदस्य दे सकते थे। यानी की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य ही वोट देकर सरकार चुनती थी। आम जनता सरकार को सरकार बनाने के लिए खडे होने का अधिकार भी नहीं था। सबसे बडी बात यह थी कि कम्युनिस्ट तानाशाही ही तय करती थी कि कौन छात्र क्या बढेगा और क्या नहीं पढेगा, छात्रों को अपनी इच्छा के अनुसार पढाई करने का अधिकार भी नहीं था। इसी कारण खफा होकर छात्र और युवा लोकतंत्र की स्थापना की मांग कर रहे थे।
माओत्से तुंग ने कहा था कि सत्ता बन्दूक की गोली से निकलती है। यानी कि सत्ता के लिए हिंसा जरूरी है। कम्युनिस्ट तानाशाही ने लाखों युवा और छात्रों का संहार व हत्या माओत्से तंुग के सिद्धांत पर ही की थी। जानना यह भी जरूरी है कि माओत्से तुंग एक हिंसक व्यक्ति था और हिंसा उसकी प्रबृति में शामिल थी। उसने अपनी तानाशाही में हिंसा को प्राथमिकता दी थी। माओत्से तुंग ने करीब लाखों चीनी नागरिकों को भूख से मार दिया था। माओत्से तुंग यूरोप और अमेरिका से भी ज्यादा हिंसक और उपनिवेशवादी और घृणित मानसिकता का तानाशाह था। उसने भारत पर हमला कर पांच हजार से ज्यादा भारतीय सैनिको का संहार किया था।
चीन ही नहीं बल्कि जहां भी कम्युनिस्ट तानाशाहियां होती हैं वहां पर जनता के साथ इसी तरह की हिंसा होती है। सोवियत संघ में कम्युनिस्ट तानाशाह स्तालिन ने अपने विरोधियों को इसी तरह की हिंसा से निपटाया था। स्तालिन ने सोवियत संघ से भाग कर विदेशों में शरण लेने वालों को भी चुन-चुन कर हत्या करायी थी। अभी उत्तर कोरिया में कम्युनिस्ट तानाशाही है। उत्तर कोरिया का तानाशाह अपने विरोधियों को सीधे हिंसक कुतों के बाडे में डाल कर हत्या कराता है, सरेआम फांसी देकर अपनीं हिंसक प्रबृति प्रदर्शित करता है ताकि जनता लोकतंत्र की मांग करने से पहले दुष्परिणाम की चिंता कर सके।
अभी भी दुनिया में माओत्से तंुग, स्तालिन और लियानमेन चौक के संहार को प्रतीक और आईकॉन मानने वालों की कमी नहीं है। भारत में तो माओत्से तुंग के नाम पर नक्सल और माओवादी हिंसा जारी है। भारत में माओवादी अपनी तानाशाही कायम करने के लिए बन्दूक की हिंसा जारी रखें हुए हैं, भारत के एक बडे भाग पर माओवादियों का वर्चस्व है। माओवादी सरेआम सरकारी संपत्तियों का नुकसान करते हैं, पुलिस और अर्द्ध सैनिक जवानों की निर्मम हत्या तक करते हैं। जबकि स्तालिन को प्रतीक मानने वाले कम्युनिस्ट पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक शासन कर चुके हैं, केरल में अभी भी शासन कर रहे हैं।

कम्युनिस्ट अपने आप को जनपक्षीय कहने का अपराध बार-बार करते हैं और दूसरों को हिंसक बताते हैं। कम्युनिस्ट कितने घृणित और हिंसक होते हैं उसका उदाहरण चीन का लियानमेन जनसंहार है जहां पर पांच लाख लोकतंत्रवादियो को मौत का घाट उतार दिया गया था, इसका उदाहरण तत्कालीन सोवियत संघ का तानाशाह स्तालिन भी था जो सोवियत संघ में अपने लाखों विरोधियों की हत्या करायी थी। हिंसक और घृणित मानसिकता के कम्युनिस्ट तानाशाही से बचने के लिए लियानमेन जनसंहार को बार-बार याद करना जरूरी है। दुनिया 34 साल बाद भी लियानमेन जनसंहार को नहीं भूली है। यह लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छी बात है। हमें कम्युनिस्ट ही नहीं बल्कि सभी प्रकार की तानाशाहियों के खिलाफ जनमत तैयार करने की आवश्यकता है। लियानमेन जनहसंहार की बरसी को लोेकतंत्र सुरक्षा दिवस घोषित किया जाना चाहिए।

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आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
नई दिल्ली

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