अवतारवाद, महर्षि दयानंद और मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा

” क्या मूर्ति पूजा और प्राण प्रतिष्ठा वेद संगत नहीं है ”

कोई मूर्तियों को ईश्वर पर ध्यान केन्द्रित करने का साधन बताता हैं तो कोई यह तर्क देता हैं की प्राण प्रतिष्ठा के पश्चात ईश्वर स्वयं मूर्तियों में विराजमान हो जाते हैं।

जो इस प्रकार कहते हैं उनसे निवेदन है कृपया आप हमें वेद (ऋग्वेद , यजुर्वेद, साम वेद, अथर्व वेद), वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, और ज्योतिष – जिसमें अंक गणित, बीज गणित , भूगोल , खगोल , और भूगर्भ विद्या है), उपांग (योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, वेदांत, और पूर्व मीमांसा) ग्रंथों से बतलाने की कृपा करें कि कहाँ लिखा हुआ है कि – ” मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद वह देवता बन जाता है और वह प्राण प्रतिष्ठा से पहले देवता नहीं होता। केवल कह देने मात्र से बात की सिद्धि नहीं होती है। “लक्षण प्रमाणाभ्याम् वस्तु सद्धि न तु प्रतिज्ञा मात्रेण” लक्षण और प्रमाण के द्वारा वस्तु की सिद्धि की जाती है, केवल कह दिया इससे वस्तु की सिद्धि नहीं होती। इसीलिए प्रमाण दीजिये और तर्क की कसौटी पर कसिए।

यह भी बतलाने की कृपा करें कि – प्राण किसे कहते हैं? प्राण उसका नाम है जिससे व्यक्ति का जीवन चलता है, जिसके होने से आत्मा सुख दुःख की अनुभूति करता है, जिसके होने से स्वांस लेता है और छोड़ता है, जिसके होने से प्राणी के शरीर की वृद्धि होती है, जिसके होने से प्राणी चलता है, जिसके होने से व्यक्ति बातचीत करता है। श्रीमान जी! जब पूजनीय पंडित जी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं मन्त्रों के द्वारा तब क्या मूर्ति बोलने लग जाता है? क्या प्राणी की तरह मूर्ति भी स्वांस लेता है और छोड़ता है? क्या उसके शरीर की वृद्धि और ह्रास भी होती है? क्या मूर्ति एक दूसरे से वार्तालाप भी करता है? कोई भी लक्षण आपके द्वारा प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति में नहीं घटा है, न घटा था और न भविष्य में घटेगा। और वेदों का प्रमाण आप दे नहीं सकते, हाँ केवल मात्र बोल सकते हैं और यदि आप परेशान हो जाएंगे, खीझ जाएंगे तो तो हमें गाली भी दे सकते हैं, मार भी सकते है परन्तु सही उत्तर नहीं दे सकते।

निरुक्त में महर्षि यास्क लिखते हैं कि - देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा। यो देवः सा देवता। जो विद्यादि शुभ गुणों का दान देता है और ईमानदारी पूर्वक कमाए हुए धनों में से दशांश धन समाज की उन्नति के देता है उसको देवता कहते हैं, जो सत्योपदेश का प्रकाश करता है उसे देवता कहते हैं, जो सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करता है उसे देवता कहते हैं इसीलिए सूर्यादि लोकों का नाम देवता है। माता, पिता, आचार्य, और अतिथि पालन करते हैं, विद्यादि शुभ गुणों का दान देते हैं, सत्योपदेश करते हैं इसीलिए ये सभी माता पितादि देवता हैं। और इन सभी देवों का देव महादेव परम पिता परमेश्वर सबका उपास्य देव हैं। क्या उपरोक्त देवता का लक्षण प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति में घटता है?

और यदि प्राण प्रतिष्ठा वास्तव में संभव है, तो क्यों नहीं मृत शरीर के अंदर प्राण प्रतिष्ठा कर दी जाती? क्यों नहीं मृत को पुनर्जीवित किया जाता?
साथ ही हमारी छोटी सी शंका सदा यहीं रहती हैं की क्यों मूर्ति में विराजमान ईश्वर मुसलमानों के आक्रमण के समय अपनी रक्षा नहीं कर पाते हैं या तो सोमनाथ की तरह विध्वंश के शिकार हो जाते हैं अथवा काशी विश्वनाथ की तरह कुँए में छुपा दिए जाते हैं?

         वेदों में केवल और केवल एक ही ईश्वर की उपासना का विधान हैं। स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाह्स के सप्तम सम्मुलास में प्रश्नोत्तर के रूप में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं। प्रश्न- वेदों में जो अनेक देवता लिखे हैं, उसका क्या अभिप्राय हैं?

उत्तर- देवता दिव्या गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं, जैसे की पृथ्वी परन्तु इसको कहीं ईश्वर वा उपासनीय नहीं माना हैं।

ऋग्वेद भाष्य मंत्र १.१६४.३९ में यहीं भाव इस प्रकार दिया हैं- उस परमात्मा देव में सब देव अर्थात दिव्य गुण वाले सुर्यादी पद्यार्थ निवास करते हैं, वेदों का स्वाध्याय करके उसी परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए. जो लोग उसको न जानते, न मानते और उसका ध्यान नहीं करते , वे नास्तिक मंदगति, सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं।

ऋग्वेद ६.४५.१६ में भी अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कहाँ गया हैं की हे उपासक, जो एक ही हैं, उस परम ऐश्वर्या शाली प्रभु की ही स्तुति उपासना करो.ऋग्वेद १०.१२१.१-९ ईश्वर को हिरण्यगर्भ और प्रजापति आदि नामों से पुकारते हुए कहाँ गया हैं की सुखस्वरूप और सुख देने वाले उसी प्रजापति परमात्मा की ही समर्पण भाव से भक्ति करनी चाहिए.स्वामी दयानंद जी मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे। मूर्ति पूजा के विरुद्ध उनका मंतव्य वेदों में मूर्ति पूजा के विरुद्ध आदेश होने के कारण बना।

सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में उन्होंने मूर्ति पूजा के विषय में लिखा की “वेदों में पाषाण आदि मूर्ति पूजा और परमेश्वर के आवाहन-विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं हैं।”
एक स्थल पर स्वामी जी ने मूर्ति पूजा की 18 हानियाँ भी गिनाई हैं। स्वामी जी की मूर्तिपूजा के विरोध में प्रबल युक्ति यह हैं की परमात्मा निराकार हैं, उसका कोई शरीर नहीं हैं, शरीर रहित निराकार परमात्मा की भला कैसे कोई मूर्ति हो सकती हैं?इसलिए मूर्ति को ईश्वर मानकर उसकी पूजा करना नितांत अज्ञानता की बात हैं।

यजुर्वेद ३२.३ – “न तस्य प्रतिमा अस्ति “अर्थात उस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं हैं का प्रमाण मूर्ति पूजा के विरुद्ध आदेश हैं। वैदिक काल में निराकार ईश्वर की पूजा होती थी जिसे कालांतर में मूर्ति पूजा का स्वरुप दे दिया गया। श्री रामचंद्र जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज जो उत्तम गुण संपन्न आर्य पुरुष थे उन्हें परमात्मा का अवतार बनाकर उनकी मूर्तियाँ बना ली गयी। ईश्वर जो अविभाजित हैं उनके तीन अंश कर ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथक पृथक कर दिए गए। यह कल्पना भी वेद विरुद्ध हैं। उनकी पृथक पृथक पत्नियों की भी कल्पना कर दी गयी।

स्वामी दयानंद ने अवतारवाद को भी वेद विरुद्ध मान कर उनका खंडन किया हैं।
यजुर्वेद ४०.८ मन्त्र में परमात्मा का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं“वह सर्वत्र व्यापक हैं, वह सब प्रकार से पवित्र हैं, वह कभी शरीर धारण नहीं करता, इसलिए वह अव्रण हैंअर्थात उनमें फोड़े-फुंसी और घाव आदि नहीं हो सकते, वह शरीर न होने से नस नाड़ी के बंधन से भी रहित हैं, वह शुद्ध अर्थात रजोगुण आदि से पृथल हैं, पाप उसे कभी बींध नहीं सकता अर्थात किसी प्रकार के पाप उसे कभी छु भी नहीं सकता, वह कवि अर्थात सब पदार्थों का गहरा क्रांतदर्शी ज्ञान रखने वाला हैं, वह मनीषी अर्थात अत्यंत मेधावी हैं अथवा जीवों के मानों की बातों को भी जानने वाला हैं, वह परिभू अर्थात पापियों का पराभव करने वाला हैं, स्वयंभू हैं अर्थात स्वयंसिद्ध हैं। उसका कोई कारण नहीं हैं , वह अनादिकाल से कल्प कल्पान्तारों में सृष्टि के पदार्थ की यथावत रचना करता आ रहा हैं” यजुर्वेद के इस मंत्र में परमात्मा का कोई भौतिक शारीर होने की बात का इतने प्रबल शब्दों में निषेध कर दिया गया हैं की इसे पढने के बाद ईश्वर को मानव रूप में अवतार लेना केवल दुराग्रह मात्र हैं। इस प्रकार वेदों की साक्षी से यह प्रमाणित हो जाता हैं की ईश्वर एक हैं,निराकार हैं,अजन्मा हैं,नित्य हैं, अवतार नहीं लेता।
अब भी पाठक गन अगर इसके विपरीत ईश्वर का होना मानते हैं तो वे वेद रुपी पावन ज्ञान के दर्शन होने पर भी अज्ञान में ही रहना चाहते हैं!!

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