किस्सा सरहद के उस पार से…. “बोल्या चाल्या माफ करज्यो म्हारा राणा रायचन्द रे”

आज भी पाकिस्तान के सिंध प्रांत की मांगणियार महिलाएं जब यह गीत गाती है, तो अपने राणा जी को याद कर उनका गला भर जाता है। अगर आपको मालूम हो तो शिमला समझौता और यह गीत एक साथ लिखे गये थे। इस कहानी के बाद मैं आपको एक पछतावे के साथ छोड़ जाऊंगा उसके बाद आप ही यह तय करना कि छाछरो हवेली से तिरंगा उतारने का गुनहगार आखिर कौन?

सैतालिस में जब दो देशों का बंटवारा हुआ तो पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बन गया और भारत को नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता का पायजामा पहना दिया। उसी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में सोढा राजपूतो की एक लाख बीस हजार बीघा की जागीर है “छाछरो” वही छाछरो जिसकी हवेली पर इकहत्तर की जंग में हिज हाइनेस जयपुर दरबार ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने तिरंगा फहरा दिया था। वही छाछरो जिसकी हवेली पर तिरंगा फहराने के लिये बलवंत सिंह बाखासर ने बगावत की बंदूक फेंककर सिस्टम की बंदूक उठा ली। जी हां वही छाछरो जहां के हिन्दू युवकों ने इकहत्तर की जंग में ऊंट पर बैठकर भारतीय सेना के लिए रेगिस्तान में रास्ता बनाया था। वही छाछरो जो आजतक शिमला समझौते की त्रासदी झेल रहा है।

छाछरो हवेली का एक वक्त पूरे पाकिस्तान में जोर का रुतबा हुआ करता था। इसी छाछरो हवेली के ठाकुर पाकिस्तान की पहली असेम्बली के सदस्य थे। आजादी के बाद बनी संसद में भी छाछरो को प्रतिनिधित्व मिला बाद में जब ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा ने हवेली की जिम्मेदारी संभाली तो वेस्ट पाकिस्तान से जीतकर पार्लियामेंट पहुंचे और रेल मंत्री बने। उसी वक्त वहां की संसद के चीफ ऑफ हाउस हुआ करते थे “नवाब ऑफ कालाबाग”। नवाब साहब खुद सामंती पृष्ठभूमि से थे सो छाछरो ठाकुर साहब से बेहत्तर ट्यूनिंग थी। लक्ष्मण सिंह सोढा हाउस में अपने खानदानी राजपूती लिबास में पधारते तो विशेष आकर्षण का केंद्र होते और नवाब साहब ठाकुर साहब पर मोहित हो बैठे।

एक बार नवाब साहब ने अपनी माँ को बताया कि मेरी केबिनेट में एक नोजवान मिनिस्टर है जो अपने कौमी लिबास में हाउस में आता है तो नवाब साहब की माँ ने कहा कि उस खानदानी राजपूत की एक तश्वीर मुझे लाकर देना। छाछरो ठाकुर साहब की वह तश्वीर नवाब साहब के ड्रॉइंग रूम की आज तक शोभा बढ़ा रही है..

उस इस्लामिक राष्ट्र में भी छाछरो हवेली के पास वह सबकुछ था जो होना चाहिए थे। पाकिस्तान के बड़े-बड़े रहीस भी हवेली पर सलाम ठोकने आते थे। किसी की भी यह बिसात नही हुई कि हवेली को नस्ल और धर्म के नाम पर दबा सके। वहां के सब कानून और कायदे भी हवेली से ही तय होते थे लेकिन बंटवारे की कसक को छाछरो कभी भुला नही पाया। छाछरो के खून में बगावत की आग को वहां के हुक्मरानों ने भॉफ लिया की और उसके बाद वहां की सरकार से हवेली की संघर्ष की एक श्रृंखला शुरू हुई।

छाछरो के साथ दिक्कत यह थी कि उसकी जमीन बेशक बंटवारे के बाद पाकिस्तान में चली गई लेकिन दिल उसके बाद भी हिंदुस्तानी रहा। आज भी भारत-पाकिस्तान के सीमावर्ती जिलो के राजपूतो का रोटी बेटी का नाता है। बंटवारे के दशकों बाद भी हवेलियों का सम्बंध जस का तस है।

पाकिस्तान की राजनीति की तासीर बदलने लगी वहाँ कट्टरपंथी ताकतों को लगातार हवा मिल रही थी। जुल्फिकार अली भुट्टो जैसे हुक्मरान घास की रोटी खाकर भी सदियों तक भारत से जंग लड़ने का ऐलान कर चुके थे। ऐसे माहौल में ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा को यह समझते देर नही लगी कि हवेली से यह रुआब जल्दी ही छीन लिया जाएगा। 1969 से दोनों देशों के बीच तनाव शुरू हुआ ठाकुर साहब पर सरकार ने जासूसी का आरोप लगा दिया। क्योकि छाउरो ठिकाने के राजस्थान के तमाम जागीरदार ठिकानो से बहुत बेहत्तर सम्बन्ध थे..

ऐसे माहौल में ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा ने छाछरो की हुकूमत छोड़ ऊंट पर समा बांधा और हिन्दुस्थान की और प्रस्थान किया। जब ठाकुर साहब ने वहां से प्रस्थान किया तो रोती बिलखती छाछरो की जनता ने सरहद तक उनका पीछा किया। तभी वहां की मांगणियार महिलाओं ने विदाई गीत गाया

“बोल्या चाल्या माफ करज्यो, म्हारा राणा रायचंद रे”

कल तक जो पाकिस्तान का हुक्मरान था वह आज राजस्थान आकर किसान बन गया और खेतीबाड़ी करने लग गया। तभी इकहत्तर की जंग छिड़ चुकी थी। कमान जयपुर दरबार ब्रिगेडियर भवानी सिंह के हाथों में थी। दरबार ने भी उस जंग के बीच एक मौका तलाश लिया। यहां समझने की बात यह है कि जयपुर दरबार छाछरो हवेली पर ही तिरंगा क्यो? फहराना चाहते थे।

अगर आप इकहत्तर की जंग में पश्चिमी कमान के शीर्ष के सैन्य अधिकारीयो से लेकर मेजर कप्तान तक के नामों पर नजर दौड़ाएंगे को मालूम चलेगा कि वह सब के सब किसी ना किसी जागीरी या ठिकाने से जुड़े राजपूत थे और सब के सब ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा के करीबी अथवा सगे सम्बन्धी थे। छाछरो के मुख्य मोर्चे पर भी 20 राजपूत इंफेंट्री और जयपुर दरबार की ब्रिगेड ही लड़ी थी। जिसके लगभग लड़ाके भी राजपूत थे…

मजेदार बात यह है कि छाछरो पर अटैक करने से पहले ही जयपुर दरबार और लक्ष्मण सिंह सोढा के बीच बात हो चुकी थी। दरबार ने सोढा साहब को छाछरो हवेली पर तिरंगा फहराने का वचन दिया था। सोढा साहब के छोटे भाई खुद भारतीय सेना की तरफ से छाछरो लड़ने गये थे। दरबार ने युद्ध से पहले ही उनको सैन्य प्रशिक्षण दिलवाया था। उनके साथ ही उनके परिवार के कुल तेरह लड़ाको ने भी सेना के साथ बंदूक उठाई। पिछली एक कहानी में मैंने बागी बलवंत सिंह बाखासर के बारे में आपको बताया था। बाखासर भी इसलिए ही सेना के साथ हो लिये थे क्योंकि उनका ननिहाल भी छाछरो में था।

जब भारतीय सेना पाक की टैंक रेजिमेंट को नेस्तनाबूद करते हुए छाछरो हवेली पहुंची तो वहां की जनता अपने विजेता राणा को देखकर भावुक हो गई और सबने मिलकर वहां तिरंगा फहराया। ठाकुर साहब के कहने पर वहां के हिन्दू युवकों ने भी ऊंट पर बैठकर सेना को आगे का रास्ता दिखाया. अंततः छाछरो फतह कर लिया गया और ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा को उनका खोया रुआब फिर से मिल गया। लगभग छह महीने तक छाछरो हवेली पर तिरंगा लहराता रहा।छाछरो अब भारत का हिस्सा था। जयपुर दरबार के प्रयासों से बाड़मेर से छाछरो के बीच एक बस सेवा भी शुरू की गई।

कुछ महीने बाद आदर्श विदेश नीति का गला फाड़ने वाली हमारी सरकार ने रिश्तों में जमी बर्फ पिघलाने की कोशिश शुरू कर दी। पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम जुल्फिकार अली भुट्टो शिमला पधारे। 2 जुलाई 1972 को जैसे ही शिमला समझौते के कागज पर हस्ताक्षर हुए तो छाछरो हवेली से तिरंगा उतार लिया गया। दबे पांव ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा वापस हिंदुस्तान आ गये।

वह सबकुछ एक पल में ही धराशाई हो गया जिसके लिये उन रणबांकुरों ने विकट स्थिति में भीषण जंग लड़ी और छाछरो अंततः भारत का हिस्सा नहीं हो सका।ठाकुर लक्ष्मण सिंह सोढा पाकिस्तान के सबसे बड़े खलनायक बन गए। वहां की सरकार ने ठाकुर साहब के ऊपर जिंदा अथवा मुर्दा पकड़ने पर दो लाख का इनाम रख दिया।

“बोल्या रे चाल्या गरजां गूजै गाज म्हारा सायर सोढा रे…..”

(सोशल मीडिया से सभार)

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