बदली हुई परिस्थितियों में इजरायल और फिलिस्तीन से समझौते की पहल करनी होगी भारत को

चंद्रभूषण

बीते बीस वर्षों का सबसे बड़ा सैन्य अभियान फिलस्तीन के वेस्ट बैंक इलाके में चलाकर इस्राइली सैनिक वापस बैरकों में लौट गए हैं। लेकिन अपने प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की यह चेतावनी दोहराते हुए कि इसे एक बार की अलग-थलग गतिविधि न समझा जाए, क्योंकि ऐसी कार्रवाइयां फिलस्तीनी बस्तियों में आतंकी अड्डों के समूल नाश तक चलती ही रहेंगी। इस्राइल की सैन्य कार्रवाई का केंद्र इस बार जेनिन नाम की बस्ती बनी, जो वेस्ट बैंक के उत्तरी छोर पर है और पिछले डेढ़ वर्षों से वहां जारी सैन्य टकराव को लेकर अक्सर चर्चा में आती रही है। बहरहाल, 1948 में इस्राइल की स्थापना के समय से ही चलते आ रहे इस टकराव को लेकर कुछ बातें गौर करने लायक हैं।

कुछ समय पहले तक विस्थापित फिलस्तीनियों के खिलाफ इस्राइल की सरकारी हिंसा को लेकर पूरी दुनिया में, खासकर अरब देशों में जैसा आक्रोश देखा जाता था, वह अब बीते दिनों की बात हो चुका है। फिर भी एक न्यायसंगत मुद्दे के रूप में इसकी कुछ न कुछ अनुगूंज आज भी बनी हुई है।
2016 की वार्ता टूटने के बाद इस्राइल की कोशिश भी अपनी पहचान को दिन-रात की इस लड़ाई से ऊपर उठाने की रही है। इसीलिए पिछले डेढ़ वर्षों में बार-बार ऐसा देखा गया है कि फिलस्तीनी इलाकों में अपनी फौज तो वह पूरी तैयारी से उतारता है, लेकिन उसके फौजी हर बार दो-तीन दिन में ही तयशुदा ठिकानों को तहस-नहस करके वापस लौट आते हैं।
शायद इसके पीछे सोच यह है कि टकराव को भावनात्मक मुद्दा न बनने दिया जाए। मामला लंबा नहीं खिंचेगा तो अरब देशों में फिलस्तीनियों को सैनिक और आर्थिक मदद देने का जनदबाव नहीं बनेगा और बाहर से मदद नहीं आई तो फिलस्तीनी प्रतिरोध कोई बड़ी शक्ल नहीं ले पाएगा।
हाल तक कोई सोच भी नहीं सकता था कि अरब देशों के साथ कभी इस्राइल के सामान्य कूटनीतिक रिश्ते बहाल हो पाएंगे। लेकिन अभी संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में न केवल इस्राइली दूतावास खुल चुका है बल्कि आई2यू2 संगठन के रूप में भारत, अमेरिका, यूएई और इस्राइल के बीच काफी स्वस्थ और बहुआयामी आर्थिक-व्यापारिक रिश्ते कायम हो चुके हैं।
सऊदी अरब और ईरान पूरी दुनिया में सुन्नी और शिया फिरकों की धुरी बने हुए थे, लेकिन चीन की कोशिशों से अभी उनमें सुलह हो गई है। अर्से बाद जेद्दा और तेहरान में एक-दूसरे के दूतावास दिखाई देने लगे हैं।
दुनिया में इस इलाके की चर्चा लड़ाई-झगड़े के अलावा सिर्फ पेट्रोलियम पदार्थों के लिए होती थी, लेकिन बहुधंधीपने की मुहिम अभी लगभग हर देश में चल रही है। इसमें कुछ भूमिका यहां से अमेरिका के हाथ खींचने और उससे छूटी जगह में भारत और चीन के दखल बनाने की भी है।
इस्राइल चाहे तो इस मौके का फायदा उठाकर फिलस्तीनियों से अपने टकराव को हमेशा के लिए खत्म कर सकता है। इसके लिए उसको वहीं से बात आगे बढ़ानी होगी, जहां तक यह बराक ओबामा के समय में पहुंच गई थी। इस्राइल और फिलस्तीन, दो देश होने चाहिए, इस पर एक स्तर की सैद्धांतिक सहमति इस्राइली दायरों में भी बन गई थी।

दूसरी तरफ फिलस्तीनी नेतृत्व को भी इस बात का कुछ अंदाजा हो गया होगा कि उसके लिए हालात दिनोंदिन बेहतर नहीं हो रहे।

यासिर अराफात के समय में फिलस्तीनी आजादी के मुद्दे पर दुनिया में जितना बड़ा जनसमर्थन बना हुआ था, 87 वर्षीय महमूद अब्बास अब उसका एक चौथाई भी नहीं जुटा पाते। महमूद अब्बास भी अब ज्यादा दिनों के मेहमान नहीं हैं। उनके आंख मूंदने के बाद फिलस्तीन में कोई कद्दावर नेतृत्व आ सकेगा, इसकी संभावना कम ही है।
गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक, गोलन हाइट्स और पूर्वी येरुशलम में मौजूद हर फिलस्तीनी बस्ती में अभी कम से कम पांच गुट मौजूद हैं। दो फतह ग्रुप, एक हमास ग्रुप, एक ईरान के समर्थन वाला इस्लामिक जेहाद ग्रुप और एक संदेहास्पद सा इस्लामिक स्टेट से जुड़े होने का दावा करने वाला ग्रुप।
इन सभी ग्रुपों में एक-दूसरे से ज्यादा उग्र दिखने की होड़ मची रहती है, जिससे बड़ा नेतृत्व कभी नहीं निकलेगा।
भारत के संबंध फिलस्तीन के साथ हमेशा ही अच्छे रहे हैं और इस्राइल के साथ भी अभी काफी गहरे हो गए हैं। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच संवाद की एक पहल हमारी ओर से जरूर होनी चाहिए। एक संभावना है कि अरब-ईरान समझौते की तरह ही इस्राइल-फिलस्तीन सुलह की सबसे अहम कोशिश भी अभी के माहौल में चीन की ही तरफ से हो। महमूद अब्बास हाल में चीन होकर लौटे हैं और बेंजामिन नेतन्याहू भी जल्द ही चीन की यात्रा करने वाले हैं।

1948 में जब फिलस्तीनी बस्तियों को उजाड़कर इस्राइल को बसाने की प्रक्रिया शुरू हुई और फिलस्तीनियों से एका दिखाने के नाम पर इजिप्ट ने भूमध्य सागर के किनारे की गाजापट्टी, जॉर्डन ने जॉर्डन नदी का पश्चिमी किनारा और सीरिया ने गोलन पहाड़ियां फिलस्तीनियों को सौंप दीं तो इन नए इलाकों में फिलस्तीनियों को बसाकर इतने पर भी झगड़ा शांत हो सकता था। लेकिन 1967 में संयुक्त अरब सेनाओं के खिलाफ जंग जीतने के बाद इस्राइल ने नए इलाकों में भी अपनी बस्तियां बसानी शुरू कर दीं और फिलस्तीनियों के पास उनकी अपनी जमीन के नाम पर सिर्फ कुछ चकत्ते छोड़ दिए।

इतने समय में आम इस्राइली को इस बात का एहसास हो गया है कि एक देश के रूप में उसका अस्तित्व जबरन घेरी गई जमीनों पर निर्भर नहीं करता। उनका समाज मुख्यतः विज्ञान, तकनीकी और नई खोजों पर आधारित है। हमेशा अमेरिका के भरोसे रहने के बजाय पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाकर वे बहुत आगे जा सकते हैं। भारत अभी दुनिया के कुछ ऐसे गिने-चुने देशों में है, जिसके इस्राइल, फिलस्तीन और ज्यादातर अरब देशों से बहुत गहरे संबंध हैं। निकट भविष्य में पूरा खाड़ी क्षेत्र भारत के साथ हजार रिश्तों में बंधा नजर आएगा। ऐसे में इस इलाके का सबसे पुराना झगड़ा सुलझने की शुरुआत भारत की ही पहल पर हो, इससे अच्छी बात और क्या होगी।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं

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