भारत के अमृत काल में खड़ी व्यापक चुनौतियां

पुत्र का अस्तित्व उसके पिता की क्षमता पर निर्भर करता है। पुत्र के अधिकार भी पिता की सामर्थ्य पर आधारित होते हैं।
भारतीय संविधान के अनुसार राज्य सभी व्यक्तियों का संरक्षक है और सभी व्यक्ति राज्य के अधीन संतान की भांति हैं।
भारत के संविधान का भाग 3 मूलाधिकारों के रूप में जाना जाता है जो भारत राज्य क्षेत्र के भीतर राज्य के विरुद्ध व्यक्तियों को प्राप्त है ,जबकि भारत के संविधान का भाग 4 राज्य के नीति निदेशक तत्व है, जो राज्य का मूलभूत कर्तव्य है । यह दोनों व्यवस्थाएं सामंजस्य कारी हैं और राज्य की क्षमता और सामर्थ्य पर भारत राज्य क्षेत्र के भीतर व्यक्तियों को प्राप्त हैं।
मुख्यधारा ,विकास का वह रास्ता है जो राज्य द्वारा राज्य क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को
आदर्शवादी उपलब्ध व्यवस्था के रूप में प्रयोग किया जाता है। मुख्यधारा वह व्यवस्थाएं हैं जो राज्य की क्षमता तथा व्यक्तियों की भावना के अनुरूप राज्य द्वारा व्यक्तियों को एक आदर्श व्यवस्था के रूप में सामान्यजन को उपलब्ध कराई जाती हैं।
राज्य का यह कर्तव्य है कि वह ज्यादा से ज्यादा व्यक्तियों को मुख्यधारा से जोड़े ,इसलिए मुख्यधारा सामान्य जन की भावनाओं एवं राज्य की सामर्थ एवं क्षमता पर निर्भर करती है। आरक्षण की व्यवस्था वंचितों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास मात्र है।
जिस राष्ट्र में बहुत अधिक संख्या में भिन्न-भिन्न कानून होते हैं, वह राष्ट्र उतना ही कमजोर माना जाता है। राष्ट्र की क्षमता का आंकलन कम संख्या में कानून का होना और अधिक संख्या में उन कानून का पालन करने वाले व्यक्तियों की संख्या से होता है।
अनेक कानून अर्थात विभिन्न कानूनों का होना बिल्कुल इस प्रकार माना जा सकता है कि किसी बात को समझाने के लिए अनेक उदाहरण , स्पष्टीकरण परंतुक, किंतु परंतु, अपवाद व्याख्या, का प्रस्तुतीकरण जोकि संवाद ,कम्युनिकेशन संप्रेषण के लिए उचित नहीं माना जाता है।
भारत विविधताओं से भरा हुआ राज्यों का एक संघ है। भारत के परिपेक्ष में कानूनों का अधिक संख्या में होना विविधता के अनुरूप उचित माना जा सकता है। आजादी के अमृत महोत्सव को 75 वीं वर्षगांठ के रूप में देखते हुए 75 वर्षीय बुजुर्ग व्यक्ति से स्वतंत्र भारत की तुलना नहीं की जा सकती है ,कि भारत भी बुजुर्ग हो गया है।
पहले मुस्लिम शासकों ने तत्पश्चात अंग्रेजी शासकों ने भारत का बहुत अधिक शोषण करके भारत की रीढ़ को कमजोर कर दिया जिस कारण भारत को उठकर अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए समय चाहिए।
अमेरिका जैसा विकसित देश जनसंख्या के अधिकतम 15% को ही सब्सिडी देने की बात करता है। शेष 85% को वह मुख्यधारा में शामिल करके विकसित राष्ट्र होने के लक्ष्य को पूरा करता है। भारत ने भले ही कोविड-19 में कोरोना की वैक्सीन विकसित करके संपूर्ण विश्व को अपने प्रगतिशील होने का सबूत दिया हो लेकिन सब्सिडी, मुफ्त अनाज और आयुष्मान कार्ड जैसी उदारवादी अनेक नीतियों के कारण मुख्यधारा से अधिकांश जनसंख्या को नहीं जोड़ सका है, जिस कारण मुख्यधारा से वंचितों की संख्या वर्तमान में लगभग आधी आबादी से अधिक है। जो भारत जैसे प्रगतिवादी विकासशील राष्ट्र के लिए बहुत बड़ा अवरोधक है। संविधान के निर्माताओं ने भारत जो राज्यों का संघ है ,को केंद्रोंमुख बनाने के लिए केंद्रीकृत प्रणाली को विकसित किया, जिस कारण केंद्रीय सूची ,राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में विभिन्न विषयों को शामिल करके विधि बनाने की शक्तियों को भी विभाजित किया। यह भी प्रावधान किया कि केंद्र जिन विधियों को बनाएगा वह राज्यों और समवर्ती सूची के विषयों से संबंधित होने के बावजूद भी अधिभावी रहेंगी ।यह राज्यों का विषय है कि वह अपने नागरिकों को अधिक से अधिक सुविधा देने के लिए कानून का निर्माण करें, लेकिन हम जानते हैं कि अनेक राज्यों ने अपने नागरिकों को मुख्यधारा में लाने से संबंधित विधियों का वर्तमान में भी निर्माण नहीं किया ।जहां तक बात समान नागरिक संहिता की है तो हम देखते हैं कि एकमात्र राज्य गोवा में ही नागरिकों पर समान कानून लागू हो रहे हैं । उत्तराखंड ऐसा दूसरा राज्य है जिसने समान नागरिक संहिता के संदर्भ में कानून का निर्माण कर लिया है। भले ही वह कानून वर्तमान में लागू नहीं हुआ है वर्तमान विधि आयोग समान नागरिक संहिता के विषय में बहुत तेजी से कार्य कर रहा है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनेक निर्णय द्वारा समान नागरिक संहिता के संदर्भ में सकारात्मक कार्य करने हेतु सरकारों से आग्रह किया जा चुका है। माननीय उच्चतम न्यायालय तथा हमारे भारतीय संविधान में स्पष्ट प्रावधान होने के बावजूद पूर्ववर्ती सरकारों ने इस विषय में कोई कार्य नहीं कर के राष्ट्र के नागरिकों के साथ भेदभाव को बढ़ावा दिया है ।जितने अधिक व्यक्तिवादी कानून होंगे उतना अधिक भेदभाव नागरिकों में बना रहेगा। हमें इस भेदभाव को दूर करने के संदर्भ में समान नागरिक कानून की वकालत करनी चाहिए। सभी व्यक्तियों पर एक जैसे कानून का लागू होना राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा देता है। भारत को सेक्यूलर राज्य की दृष्टि से देखा जाता है ।जैसा कि संविधान में संशोधन करके पूर्ववर्ती सरकारों ने घोषित भी किया है। इस दिशा में सकारात्मकता यही है कि समान नागरिक संहिता को संविधान निर्माताओं की भावनाओं तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के अनुसरण में देखा जाए। भेदभाव को दूर करने के लिए नागरिकों के मध्य एक जैसे कानून का विद्यमान होना प्रेम और समरसता को बढ़ावा देता है।

प्रस्तुति श्री राम शर्मा एडवोकेट
विधि प्राध्यापक मुरादाबाद

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