यूक्रेन में रूस और अमेरिका पहुंचे भिड़ंत की स्थिति तक

जी. पार्थसारथी

दिसंबर, 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो मुख्य चिंता संघ के घटक रहे मध्य एशियाई इस्लामिक प्रजातांत्रिक देशों में बड़ी संख्या में बसे रूसियों के भविष्य को लेकर थी। सौभाग्य से यह मुद्दा अधिकांशतः राजनीतिक और शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जा चुका है। हालांकि चेचन्या के मुस्लिम बहुल इलाके में होने वाली हिंसा और सशस्त्र विद्रोह से सख्ती से निपटा गया था, जब इस गुट ने कुछ इस्लामिक देशों की मदद से हथियारबंद बगावत कर दी थी। मुस्लिम बहुल एशियाई प्रजातांत्रिक मुल्क मसलन कजाखिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीज़स्तान और तुर्कमेनिस्तान की सोवियत संघ के अलग होने की प्रक्रिया शांतिपूर्ण संपन्न हुई थी। इससे आगे समूचे मध्य एशिया में ज्यादातर धर्म-सहिष्णु सरकारें बन पाईं।

इन मुल्कों का नेतृत्व उन हाथों में बना रहा जो सोवियत संघ बिखरने से पहले भी प्रभावशाली थे। उन्होंने अक्लमंदी दिखाते हुए रूस और अपने रूसी भाई-बंदों से अच्छे संबंध कायम रखे और ठीक इसी वक्त धार्मिक कट्टरवाद को त्यागे रखा। इसके बदले में उन्हें रूस से धार्मिक चरमपंथियों से पार पाने में तगड़ी सहायता मिली जिन्हें अफगान तालिबान सहित बाहरी ताकतों की मदद प्राप्त थी। इतना ही नहीं, इन मध्य एशियाई देशों में विशाल संख्या में बसे रूसी वहीं बने रहे। जबकि सोवियत संघ के तीन पूर्व सदस्य यानी एस्टोनिया, लातविया और लिथुएनिया के अलावा सोवियत-वारसा संधि के भागीदार मुल्क बुल्गारिया, रोमानिया और स्लोवाकिया अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो सैनिक गठबंधन में शामिल हो गए।

लेकिन रूस और इसके पश्चिमी पड़ोसी यूक्रेन के बीच थल और जलीय सीमा क्षेत्र को लेकर तनाव गहराता गया। इसके पीछे रूस और यूक्रेन के बीच प्रतिद्वंद्विता और मतभेद का इतिहास रहा है। इसमें वर्ष 2004 में यूक्रेन में अमेरिकी दखलअंदाजी के बाद और इजाफा हुआ जब अमेरिका की शह प्राप्त राजनीतिक नेतृत्व ने राजधानी कीव में रूस मित्र यूक्रेनी सरकार को सत्ताच्युत कर दिया। रूस ने इस अमेरिकी हरकत को काला सागर और भूमध्य सागर के गर्म जलीय मार्गों तक उसकी पहुंच को नियंत्रित करने वाले यत्न की तरह लिया। राष्ट्रपति पुतिन ने इस खतरे का पूर्वानुमान लगाते हुए फरवरी, 2014 में निर्णायक कार्रवाई कर क्रीमिया क्षेत्र पर नियंत्रण बना लिया। इस तरह काला सागर तक रूस की निर्बाध पहुंच बनाए रखी।

क्रीमियाई प्रायद्वीप पर अपना शिकंजा कसने के बाद रूस ने अफगानिस्तान की सीमा से लगते मध्य एशियाई पूर्ववर्ती सोवियत घटक रहे मुस्लिम बहुल देश, जैसे कि उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीस्तान और तुर्कमेनिस्तान में सुरक्षा की भावना भरने पर ध्यान केंद्रित कर दिया। इन जटिलताओं के आलोक में पुतिन के नेतृत्व वाला रूस तालिबान के साथ व्यावहारिक रिश्ता बनाने में अग्रसर है। अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर रूस और भारत के बीच निकट संपर्क बना हुआ है। हालांकि यूरेशिया क्षेत्र पर रूस की चीन के साथ समझ बनी हुई है लेकिन रूस को पता है कि सीमा संबंधी मुद्दे पर चीनी हरकतों पर निकट नजर रखने की जरूरत है।

अमेरिका की गलतफहमी की परवाह न करते हुए भारत ने साफ कर दिया है कि वह रूस के साथ अपना पुराना निकट संबंध कायम रखेगा। अमेरिका की इस धमकी के बावजूद कि जो कोई मुल्क रूस से हथियार खरीदेगा उसे प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा, भारत ने रूस से महत्वपूर्ण रक्षा उपकरण पाने की प्रक्रिया पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया है, इसमें जमीन से हवा में मार करने वाली परिष्कृत एस-400 मिसाइल प्रणाली भी शामिल है। अधिक महत्वपूर्ण यह कि पुतिन सरकार ने रूस-भारत संयुक्त उपक्रम से विकसित की गई और सटीक निशाने में समर्थ ब्रह्मोस मिसाइलें फिलीपींस को देने के निर्णय पर टोकने की बजाय भारत के साथ अपना रक्षा सहयोग मजबूत बनाए रखा है। कोविड महामारी के चरम के बावजूद राष्ट्रपति पुतिन भारत की यात्रा पर आए थे, यह दर्शाता है कि रूस भारत के साथ रिश्ते को कितना महत्व देता है।

रूस के विरुद्ध सार्वजनिक तौर पर अपने विचार जताने के बाद राष्ट्रपति बाइडेन ने यूक्रेन सरकार तक हथियारों की खेप पहुंचाई है, जिसके रूस के साथ इलाकाई और अन्य गंभीर विवाद चल रहे हैं। अफगानिस्तान से अपने शर्मनाक और अव्यवस्थित पलायन के बाद बाइडेन की घरेलू लोकप्रियता में खासी कमी आई थी, लिहाजा अमेरिका के लिए कोई कड़ा ‘संज्ञान’ प्रदर्शित करना जरूरी हो गया। हालांकि रूस के पास यूक्रेन पर चढ़ाई करने की कोई वजह नहीं है और न ही वह किसी बड़े सैन्य द्वंद्व में खुद को अकारण फंसाना चाहता है। अलबत्ता यूक्रेन के सीमावर्ती इलाके में, जहां रूसी लोगों की खासी तादाद है, वहां राष्ट्रपति पुतिन सीमित सैन्य कार्रवाई करें, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। जहां अमेरिका के अधिकांश यूरोपियन सहयोगी अमेरिकी रवैये का मोटे तौर पर समर्थन कर रहे हैं वहीं कुछ मुल्क मसलन फ्रांस और जर्मनी को गंभीर अंदेशा है कि कहीं नाटो गठबंधन द्वारा की गई कार्रवाई बड़े सैन्य द्वंद्व में न तब्दील हो जाए। रूस को नेक सलाह है कि यूक्रेन में वह अपनी क्रिया और प्रतिक्रिया में सावधानीपूर्ण कोई कदम उठाए।

इसी बीच, चीन यह पाकर कि उपरोक्त घटनाक्रम से उसके द्वारा अपने प्रशांत-एशियाई पड़ोसियों की जलीय सीमा उल्लंघनों वाले कृत्यों पर अतंर्राष्ट्रीय ध्यान बंट गया है, वह राष्ट्रपति पुतिन के साथ खड़े होने का आभास देकर, इस इलाके में ‘शांति कायम रखने वाले’ की भूमिका का आनंद उठा रहा है। हालांकि चीन का मंतव्य रूस और अमेरिका के बीच अविश्वास के बीज बोना है ताकि रूस के लगातार बढ़ते जा रहे फालतू तेल और गैस भंडारों से आपूर्ति पश्चिम में जर्मनी या अन्य यूरोपियन-बाल्टिक मुल्कों की बजाय पूरबी ‘मध्यस्थ सम्राट’ यानी चीन की ओर मुड़ जाए। पश्चिमी यूरोप पर अपना प्रभाव बनाने की रूसी आकांक्षा में गैस की सप्लाई एक महत्वपूर्ण अंग है।

सोवियत संघ के टूटने के बाद रूस का प्रभाव वारसा-संधि सदस्यों पर घटना लाजिमी था। हालांकि रूस के साथ लगते पूरबी यूरोपियन देशों में अनेक को रूस द्वारा प्रभुत्व बनाने का डर सताता रहता है। यह भाव मध्य एशियाई मुस्लिम देशों पर कायम रूसी प्रभाव से एकदम उलट है, जिनका प्रशासनिक ताना-बाना रूस के साथ रहे ऐतिहासिक रिश्तों, आधुनिकीकरण में उसकी भूमिका और धार्मिक सहिष्णुता बरकरार रखने में काफी निर्भर है, जिसका आनंद ये मुल्क ले रहे हैं। रूस अपने तेल और गैस भंडारों की बदौलत वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव आज भी कायम रखे हुए है, जो न केवल उसकी घरेलू जरूरतें पूरी करने में बल्कि नॉर्ड-स्ट्रीम पाइपलाइन के जरिए यूरोप भर में, खासकर जर्मनी की ऊर्जा आवश्यकता पूरी करता है।

मौजूदा अमेरिकी नीतियां अब ज्यादातर रूस के यूक्रेन के साथ संबंध पर केंद्रित हैं, जबकि चीन नए कानून के जरिए अपने तटीय प्रभाव को सक्रियता से मजबूत कर रहा है और पड़ोसी मुल्कों की समुद्री सीमा पर अपने बेजा दावे लागू करने में जोर-जबरदस्ती करने पर उतारू है। इन देशों में फिलीपींस, मलेशिया, वियतनाम और इंडोनेशिया उल्लेखनीय हैं। भारत को क्षेत्रीय सहयोगियों और क्वाड गुट के साथ मिलकर काम करना होगा ताकि चीन की समुद्री सीमा विस्तार महत्वाकांक्षा से सुरक्षा पर पड़ने वाले गंभीर असरातों पर अमेरिका और अन्य देशों का खासा ध्यान बरकरार रहे। भारत को मध्य एशियाई देशों के साथ आर्थिक एवं निवेश सहयोग को विस्तार देने हेतु अब नए उपाय करने पर और अधिक ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी और मध्य एशियाई मुल्कों के नेतृत्व के बीच हुई हालिया शिखर वार्ता को फलीभूत करने में, ईरान में चाबहार बंदरगाह का विकास और क्षेत्र में अर्थपूर्ण आर्थिक भागीदारी बनाने में भारत को काम जारी रखना होगा।

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