अल्पसंख्यकों का मुस्लिम देश में भविष्य

 

लेखमाला भाग 2

प्रेषक- #डॉविवेकआर्य

पिछले लेख में हमने कमल भूषण चौधरी की गाथा का वर्णन किया था। इस लेख में हम सुनील बसु की आपबीती के माध्यम से बंगलादेश में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार की समीक्षा करेंगे। 1960 के दशक से पश्चिमी पाकिस्तान के हुकुमरानों द्वारा पूर्वी पाकिस्तान यानि वर्तमान बांग्लादेश पर बांग्लाभाषी होते हुए भी उर्दू थोपने का अभियान आरम्भ किया गया। जिस बंगाल भूमि ने 1905 में बंग भंग के विरोध में इतना तीव्र आंदोलन किया था उसी बंगाल भूमि ने इस भाषाई अत्याचार के विरुद्ध प्रतिकार आरम्भ कर दिया। इस प्रतिक्रिया के विरुद्ध पाकिस्तान के पंजाबी मूल के हुकुमरानों ने बंगला-भाषी जनता का दमन आरम्भ कर दिया। यह दमन इतना हिंसक था कि लेखनी काँप जाये। सोचिये पूर्वी पाकिस्तान के मुसलमान सैनिक

पशुओं सा व्यवहार पश्चिमी पाकिस्तान की मुस्लिम जनता के साथ करते थे तो मज़हबी उन्माद में बंगलादेश की हिन्दू जनता के साथ उनका व्यवहार कैसा होगा? इस हिंसात्मक कार्यवाही के चलते लगभग एक करोड़ हिन्दू भारत की सीमा पार कर बंगाल, त्रिपुरा, असम आदि प्रदेशों में अपना सब कुछ लुटा कर, अपनी अस्मिता बचाने के लिए आ गए। भारतीय सेना ने देश की सरकार की मजबूत इच्छा शक्ति का अनुसरण करते हुए पूर्वी पाकिस्तान पर हमला कर एक लाख पाकिस्तानी सैनिकों को जनरल नियाज़ी के नेतृत्व में न केवल आत्मसमर्पण करवाया बल्कि पाकिस्तान का विभाजन कर बंगलादेश के नाम से एक नए राष्ट्र की स्थापना में भी योगदान दिया। 1971 में बंगलादेश की स्थापना के पश्चात भारत में निर्वासित होकर आये शरणार्थी शांति कायम होने पर अपनी जन्मभूमि में वापिस लौटने लगे। मगर जब वह वापिस लौटे तो उन्हें अपनी भूमि बदली हुई मिली।

अब वहां के लोग इन एक करोड़ लोगों को भिखारी, बेरोजगार,बोझ और महंगाई का कारण मानते थे। पर ये लोग भिखारी क्यों हुए इस पर कोई कुछ नहीं बोलता था। हाँ ये भारत में ही पड़े रहते तो सब खुश रहते। सुनील बसु की बंगलादेश के देहात में दो लाख की जायदाद थी। उनकी जमीन पर गैरकानूनी तरीके से किसी ने कब्ज़ा कर लिया था। उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट की। थानेदार ने कहा वह जायदाद तो जिसके पास है, उसी के पास रहेगी। उन्हें नहीं मिलेगी। एक शर्त लगाई गई। जमनीन के वर्तमान मालिक से उनको जमीन के बदले 5000 रुपये दिलवा देंगे। पर उसके लिए उन्हें थानेदार को पहले 5000 रुपये रिश्वत देनी होगी। सुनील बसु के हम-वतन लोग यही सोच रहे थे दादा या तो वापिस भाग जाये नहीं तो स्वयं अपनी मौत मर जाये। यही उसकी समस्या का समाधान था।
सुनील जैसे लाखों लोगों को इसी प्रकार के अत्याचार का सामना करना पड़ा था। वे लोग यही सोच रहे थे कि पहले पाकिस्तानी सरकार का उत्पीड़न सहा, शरणार्थी बने, बहुतों ने मुक्तिवाहिनी के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर बंगलादेश के निर्माण के लिए अपना बलिदान दिया। उनके मन में अपनी मातृभूमि, अपने सोनार बांगला के लिए कितनी योजनाएं , कितने संकल्प थे। पर उसी ‘सोनार बांग्ला’ ने उनके हाथों में भीख का कटोरा पकड़ा दिया था। उनके पास भिखारी बनने के सिवा क्या विकल्प था?

1971 में भिखारी हुए हिन्दू आजतक उस अत्याचार से उभर नहीं पाए। आज भी उनके या उनकी संतानों के साथ यही अत्याचार मज़हब के नाम पर हो रहा हैं। तस्लीमा नसरीन की लज्ज़ा पढ़ो। मालूम पड़ेगा।

अब आप बताये कि क्या ऐसे दो करोड़ गैर मुसलमानों को अपने शोषित जीवन से मुक्ति दिलाकर भारत में यथोचित सम्मान क्यों नहीं मिलना चाहिए ?इसलिए मैं CAA और NRC का समर्थन करता हूँ। क्या आप मेरे साथ है?

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