नाथ करूणा रूप करूणा आपकी सब पर रहे

गतांक से आगे….
संसार के किसी न्यायाधीश से जब कोई व्यक्ति स्वयं को आहत मानता है तो वह दया की भीख इसीलिए मांगता है कि दण्ड अपेक्षा से अधिक कठोर हो गया है-उसे दयालुतापूर्ण कर लिया जाए। न्यायिक प्रक्रिया में फिर भी कहीं कोई दोष त्रुटि या न्यूनता रह जाए तो फिर दया याचिका राष्ट्रपति के पास डाली जाती है। देश के राष्ट्रपति से भी दया करने की ही प्रार्थना की जाती है-मानो कहा जाता है कि अपने न्याय को ईश्वर के न्याय की भांति दयामय बना दो, करूणामय बना दो। आनंद आ जाएगा। लोग दयामय न्याय को स्वीकार कर सकते हैं-परंतु निर्दयी न्याय के विरुद्ध क्रांति के लिए एकतबद्ध हो उठते हैं।
संसार में उन्हीं-उन्हीं राजाओं या सत्ताओं के विरूद्घ क्रान्तियां हुई हैं -जिनके न्याय में दया के स्थान पर निर्दयता आ जाती है। ईश्वर के प्रति नास्तिक भी क्रांति नहीं कर पाता और ना ही उसके लिए सोच पाता है। साम्यवादियों ने संसार में क्रूर तानाशाही के विरूद्घ लोगों की पीड़ा का लाभ उठाकर उनके विरोध को अपने साथ लाकर सफल क्रांतियां की हैं, परंतु ऐसी क्रांतियों में सफल होकर भी साम्यवादी अपने साथ सारे विश्व को लाने में असफल रहे हैं, वे भी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करने वाले और ईश्वरीय न्याय व्यवस्था या उसकी करूणा को निष्पक्ष मानने वाले लोगों को ईश्वर से विमुख कर अपने साथ लाने में असफल हो चुके हैं। इसका अभिप्राय है कि ईश्वर की न्याय व्यवस्था में आस्था रखने वाले लोगों का आज भी विश्व में बहुमत है।
महर्षि दयानंद कहते हैं-”जो अभय का दाता, सत्यासत्य विद्याओं का ज्ञाता, सब सज्जनों की रक्षा करने और दुष्टों को यथायोग्य दण्ड देने वाला है-इससे परमात्मा का नाम दयालु है।”
जब हम ईश्वर से यह कहते हैं कि-‘तेरी दया मुझ पर बनी रहे’-तो इसका अभिप्राय होता है कि हम ईश्वर से अपने लिए अपने पापपूर्ण कार्य का दण्ड भी मांग रहे हैं। इससे क्या होगा कि जब हमारे शुभाशुभ कर्मों का हिसाब-किताब साथ के साथ होता रहेगा तो किसी प्रकार के पापबोध से हम बंधेंगे नहीं, कर्म बंधन हम पर शिथिल होता रहेगा।..और हम मुक्ति के पथ पर निष्कंटक आगे बढ़ते जाएंगे। कहा गया है –
तेरी दया परमात्मा मुझ पर बनी रहे
ये दिल तुम्हारे प्यार से हर दम धनी रहे
बैठूं तेरे दरबार में हाजिर हुजूर मैं,
एक पल भी ना रहूं तेरे चरणों से दूर मैं
कहा जाता है कि व्यक्ति के सुधरने से जग सुधर जाता है। मैं-मैं जुडऩे से हम बन जाता है, तो कहा जाता है कि-‘हम सुधरेंगे जग सुधरेगा’-‘मैं’ ने अपना स्वार्थ मारने के लिए और अपने आपको सुधारने के लिए आगे कर दिया तो उसे तुरंत एक दूसरे ‘मैं’ ने लपक लिया। उस दूसरी ‘मैं’ के साथ आते ही अब ‘मैं’ भी ‘मैं’ न रही अब वह ‘हम’ हो गयी।….और कारवां बनने लगा।
महर्षि दयानंद लिखते हैं :-
”देखो ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि जिसने सब जीवों के प्रयोजन सिद्घ होने के अर्थ जगत में सकल पदार्थ उत्पन्न करके दान दे रखे हैं, इससे भिन्न दूसरी बड़ी दया कौन सी है? मन में सबको सुख होने और दुख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है, वह दया कहलाती है।” वास्तव में ईश्वर से अधिक करूणा निधि करूणारूप अन्य कोई नहीं है। उसने अपनी सारी संपत्ति, सारी धन-दौलत उत्पन्न करके अपने पुत्रों में विभक्त कर दी है। सब उसकी संपदा पर ‘मेरी-मेरी’ कहकर अपना अधिकार करते हैं, मनपसंद उसका उपभोग करते हैं, परंतु सबको यह संपदा उसके वास्तविक स्वामी के लिए यों ही छोडक़र जानी पड़ती है। मनुष्य अपनी नादानी से अथवा अज्ञानता से यह नहीं समझ पाता कि जिस संपदा को पाकर तू इतरा रहा है वह तेरी है ही नहीं। उसका वास्तविक स्वामी तो कोई और है। उधर दयालु ईश्वर है जो अहंकार में सडऩे वाले व्यक्ति को भी दयामय होकर अपनी करूणा का पात्र बनाता है, और विवेकशील व्यक्ति पर भी अपनी करूणा बिखेरता है। अहंकारी को वह सही रास्ते पर लाना चाहता है और विवेकशील को वह उसी रास्ते पर चलाते रहना चाहता है। उसके यहां वास्तविक अर्थों में ‘समान नागरिक संहिता’ लागू है। तभी तो एक पापी की आत्मा भी उसकी दया की कृपा की, करूणा की प्रार्थना करती है, और एक महात्मा की आत्मा भी उससे यही चाहती है, अर्थात ‘समान नागरिक संहिता’ के उस व्यवस्थापक से प्रार्थना भी सबकी समान ही होती है। पापात्मा उससे कहती है कि अपनी कृपा से और अपनी करूणा से मुझे पाप पंक से बचाओ और एक महात्मा की आत्मा उससे कहती है कि मुझे श्रेयमार्ग का पथिक बनाये रखो, कहीं आलस्य या प्रमाद के वशीभूत होकर मैं पथभ्रष्ट न हो जाऊं। इसी बात पर प्रकाश डालते हुए श्रीकृष्णजी महाराज अर्जुन से कहते हैं।

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशतस्य विद्यते। नहि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गति तात गच्छति।। (गीता 6/40) क्रमश:

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