हाथ जोड़ झुकाये मस्तक वन्दना हम कर रहे

विनम्रता वैदिक धर्म का एक प्रमुख गुण है। सारी विषम परिस्थितियों को अनुकूल करने में कई बार विनम्रता ही काम आती है। इसीलिए विनम्र बनाने के लिए विद्या देने की व्यवस्था की जाती है। विद्या बिना विनम्रता के कोई लाभ नहीं दे सकती और विनम्रता बिना विद्या के उपयुक्त लाभ नहीं दे सकती। कहा गया है कि-”विद्या ददाति विनयम्।” अर्थात विद्या विनम्रता प्रदान करती है। अभी तक हमने जितना इस पुस्तक के पिछले लेखों में पढ़ा है उस सबका निष्कर्ष यदि ‘इदन्नमम्’ की सार्थक जीवन शैली को अपनाना है तो इस सार्थक जीवनशैली या जीवनचर्या को जन्म देती है-विनम्रता। इसी विनम्रता को इस लेख के शीर्षक की पंक्तियां भी स्पष्ट कर रही हैं-”हाथ जोड़ झुकाये मस्तक वंदना हम कर रहे।” 
इस पंक्ति में हाथ जोडक़र और मस्तक झुकाये वन्दना करने की बात कही गयी है। हाथ जोडऩा ही विनम्र बनना है-पूर्णत: श्रद्घानत हो जाना है, पूर्ण समर्पण कर देना है अपने इष्ट के समक्ष। इतना ही नहीं-इस संस्कार को संसार के अन्य संबंधों के साथ भी इसी विनम्र भाव से अपनाना चाहिए। इसी के लिए महर्षि दयानंद जी महाराज ने आर्य समाज का सातवां नियम इस प्रकार बनाया है-”सबसे प्रीति पूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वत्र्तना चाहिए।” आर्य समाज के इस नियम का भी एक-एक शब्द स्वर्णिम है। इसके ‘प्रीतिपूर्वक’ ‘धर्मानुसार’ और ‘यथायोग्य’ शब्द बड़े ही मननीय है। इनमें विनम्रता झलकती है, तभी तो कहा गया है-‘प्रीतिपूर्वक।’ इनमें नैतिक नियमों के अनुपालन के प्रति सहज समर्पण झलकता है-जब कहा जाता है-‘धर्मानुसार।’ इनमें पूर्णत: सावधानता की स्थिति झलकती है-जब कहा जाता है-‘यथायोग्य।’
‘प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार’ व्यक्ति को विनम्र बनाता है, पर यह विनम्रता किसी बेचारगी या लाचारी की असहायावस्था की द्योतक न होकर अन्तश्चक्षुओं के आलोक में काम करने की व्यक्ति की विवेकशीलता को स्पष्ट करने वाली है। क्योंकि इसमें धर्मानुसार और ‘यथायोग्य’ शब्द जोडक़र पात्र की पहचान की कसौटी भी साथ ही दे दी गयी है।
हाथ जोडऩा और मस्तक झुकाना दोनों क्रिया एक साथ कराने की बात इस पंक्ति में बड़ी सार्थक है। हाथ जोडऩा भी केवल लोकाचार हो सकता है, यदि उसके साथ-साथ मस्तक न झुकायें तो। जैसा कि हम बहुत से लोगों को ‘नमस्ते’ करते समय देखा करते हैं कि उनके दोनों हाथ तो एक स्थान पर एक साथ जुड़ जाते हैं, परंतु उनका मस्तक नहीं झुकता। इसका अभिप्राय है कि हाथ जोडऩा केवल लोकाचार की पूर्ति के लिए किया जा रहा है। हृदय में श्रद्घा और अहंकार शून्यता का भाव नहीं है। वहां तो गर्व नाम का महाशत्रु बैठा है, जो हमें थोड़ा हल्का नहीं होने दे रहा। जिन लोगों के भीतर ऐसी अहंकारी भावना आ जाती है वे अपने अहंकार के सामने किसी को भी नहीं छोड़ते हैं।
एक उस्ताद अपने कई शिष्यों को एक साथ पहलवानी के दांव-पेंच सिखाया करते थे। उन्होंने अपने एक प्रिय शिष्य को कुश्ती के सारे दांव-पेंच सिखा दिये। जिससे वह अच्छे-अच्छे पहलवानों को कुश्ती में पटकने लगा। उससे कुश्ती लडऩे का साहस अब हर किसी का नहीं होता था। अपने सामने से पहलवानों को इस प्रकार भागता देखकर पहलवान को पहले तो मन ही मन प्रसन्नता होती थी, पर कुछ देर पश्चात यह प्रसन्नता अहंकार में परिवर्तित हो गयी, उसे इस बात का अहंकार हो गया कि अब तुझसे बढक़र कोई पहलवान नहीं है। अपने इसी गर्वीले भाव के वशीभूत होकर वह पहलवान एक दिन अपने राजा के दरबार में जा पहुंचा और उससे कहने लगा कि मुझसे बढक़र कोई पहलवान आपके राज्य में नहीं है। इस पर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने आश्चर्यचकित हो उससे पूछ लिया-‘कोई भी नहीं’ का अर्थ क्या यह भी है कि तुम्हारे गुरूजी भी तुमसे कुश्ती नहीं जीत सकते?”
शिष्य तो अहंकार के मारे फूला जा रहा था, उसने कह दिया कि-”जी राजन! मेरे गुरूदेव भी मुझसे कुश्ती नहीं जीत सकते?”
इस पर राजा ने कहा कि-”तुम्हें अपने गुरू से भी कुश्ती लड़ लेनी चाहिए, जिससे कि लोगों को पता चल जाए कि तुम्हारे गुरूदेव भी तुमसे परास्त हो चुके हैं। तुम उनसे कुश्ती लड़ते क्यों नहीं हो?”
शिष्य ने अहंकार के साथ पुन: कहा-”महाराज एक तो वे मेरे गुरू हैं, दूसरे इस समय वह वृद्घ हो चुके हैं। इसलिए मैं उनसे कुश्ती लडऩा नहीं चाहता, अन्यथा वह मेरे सामने टिकने वाले नहीं हैं।”
राजा समझ गया कि शिष्य के सिर पर अहंकार चढ़ बैठा है। इसलिए राजा ने गुरू शिष्य की कुश्ती की घोषणा कर दी। निश्चित दिन व स्थान पर बड़ी संख्या में लोग दंगल देखने पहुंच गये। दोनों में दंगल आरंभ हो गया। लोगों को शिष्य की बुद्घि पर तरस आ रहा था और वृद्घ गुरू को देखकर तरस करते थे कि इनकी पराजय निश्चित है। पर यह क्या? गुरूदेव ने थोड़ी सी देर में एक ऐसा दांव चला कि शिष्य नीचे आकर पड़ा और लगभग अधमरा सा हो गया। सारी भीड़ में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। राजा यही चाहते थे कि इस शिष्य के अभिमान का अंत इसके गुरू के द्वारा ही होना चाहिए। उन्होंने गुरू को अपनी शुभकामनाएं दीं। तब गुरू ने कहा-”महाराज! इस हार में मेरे शिष्य का कोई दोष नहीं है। वास्तव में आज जो दांव मैंने चला है वह मैंने आज के दिन के लिए ही बचाकर रखा था।” यह सुनकर शिष्य की आंखों में पाश्चात्ताप के आंसू आ गये।
क्रमश:

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