सुस्त शासन से मोदी के मिशन को खतरा

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नोटबंदी तथा जीएसटी अर्थव्यवस्था में बड़े सुधार हैं, लेकिन इन पर अमल सुचारू ढंग से होना चाहिए। अव्यवस्थित तरीके से इन्हें लागू करने से जनता को असुविधा ही होगी। सबसे बड़ी कष्टप्रद समस्या यह है कि जीएसटी को कुछ लोग ही जानते-समझते हैं, जबकि व्यापारी, जिन पर यह लागू होना है, उन्हें यह पता ही नहीं कि क्या और कैसे किया जाना है। यहां तक कि अकाउंटेंट व सरकार के लोग ही इसकी व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्पष्टवादी नेता तथा एक ऐसे विचारक हैं, जो भारत में बदलाव के लिए निरंतर सृजनात्मक परियोजनाओं की कल्पना करते रहते हैं। इस प्रक्रिया में बदलाव लाने के लिए वह अपने मिशन की रणनीतियां बनाते हैं तथा कई तरह की प्रशासनिक पहल करते हैं। मेरा विश्वास है कि कोई बदलाव लाने और परियोजनाओं को पूरा करने के लिए सक्षम संगठन की जरूरत होती है। विदेश में अपने अध्ययन काल में मैंने जब पहली बार यूरोपीय शहरों का दौरा किया तो मैंने पाया कि हम बदलाव ला सकते हैं और प्रगतिशील हो सकते हैं, लेकिन हमारे संगठन सेवाएं देने में कुशल नहीं हैं। मैंने दिल्ली में फाउंडेशन फॉर आर्गेनाइजेशनल रिसर्च की स्थापना की, जो एक मुख्य शैक्षणिक संस्थान है तथा इसने सांगठनिक डिजाइन बनाने का काम किया। हमने ओएनजीसी, एनटीपीसी, सेल और भेल जैसे बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों के संगठन पर काम किया। उनके साथ काम करते हुए हमें महसूस हुआ कि सरकार के संगठन को भी फिर से डिजाइन करने की जरूरत है, परंतु सरकार में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसकी इसमें रुचि हो। इसके बजाय नौकरशाही ने इसे अपने किले पर हमला माना। लंबे समय बाद मुझे वाराणसी शहर के सांगठनिक अध्ययन का मौका मिला। यह अब प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र है। मैंने अध्ययन की रिपोर्ट उन्हंह भेजी। प्रधानमंत्री कार्यालय से हमें इसका कोई जवाब नहीं आया। हमने पहली सिफारिश यह की कि शहरी प्रबंधन के संगठन को फिर से डिजाइन किया जाए। इस वक्त यह इतना पेचीदा तथा विच्छिन्न है कि कोई यह नहीं जानता कि वहां घाटों पर चल रही दर्जनों परियोजनाओं, जो अलग-अलग दिशा में जा रही हैं, पर जवाब देने के लिए अंतत: कौन जिम्मेदार है। यहां तक कि मेयर ने हमें बताया कि जब विदेशी सैलानी आते हैं, तो वे उनसे सवाल पूछते हैं। मेयर उनसे मिलते हैं और सैलानियों को पता चलता है कि उनके (मेयर के) पास शहर से जुड़े सवालों का जवाब देने का अधिकार ही नहीं है।
हमें पूर्णत: जवाबदेह अधिकारी चाहिए जो कि उत्तरदायी हो, लेकिन हमारी प्रणाली इतनी अक्षम है कि उपलब्धियों को सुधारने के लिए खामियों को ढूंढना मुश्किल हो गया है। फोकस का यह अभाव स्वच्छता अभियान या स्मार्ट सिटी प्रबंधन की एक बड़ी खामी है। परिणाम यह है कि 72 फीसदी लोग सोचते हैं कि नगर निकाय उत्तरदायी नहीं हैं तथा सार्वजनिक शौचालय काम नहीं कर रहे। इनमें से 62 फीसदी यह भी महसूस करते हैं कि शहर के निवासियों की नागरिक भावना में सुधार नहीं आया है। मुंबई में एलफिनस्टोन फुटओवर ब्रिज के मामले की ही मिसाल ले लेते हैं। इस पुल को चौड़ा करने के लिए 12 करोड़ का एक प्रोजेक्ट 18 माह पहले मंजूर हो गया था। इसके बावजूद घोर लापरवाही व प्रशासन की सुस्ती के चलते इस पर कोई काम शुरू नहीं हुआ। मुझे याद है कि किस तरह 1989 में मैंने समुद्र में अगाट्टी के मुश्किल एयरपोर्ट का योजनाबद्ध निर्माण छह माह में कर डाला था। मुझे यह दायित्व उस समय के प्रधानमंत्री ने दिया था। यहां मंजूरी मिलने के बाद कुछ भी देखने की जरूरत नहीं थी और इंजीनियरों को काम में देरी अथवा काम शुरू न होने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। मंत्री अपने आप को दोषमुक्त नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने ही मंजूरी दी थी और शक्ति को प्रदत्त किया था। वह जिम्मेदारी को प्रदत्त नहीं कर सकते तथा उनका भी उत्तरदायित्व बनता है कि कौन गलती कर गया। इस मसले पर निरंतर प्रतिवेदन तथा नियंत्रण की व्यवस्था की जानी चाहिए थी। प्रमाण के तौर पर इस किस्से को देते हुए मैं केवल यह दर्शाना चाहता हूं कि क्यों मोदी सरकार को अपनी मशीनरी को चुस्त करने की जरूरत है। उन्होंने अपने मिशन व लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इसे नई व्यवस्था में लगाया है। मोदी जी के नेतृत्व में जनता की अपेक्षाएं काफी बढ़ी हैं। उनके द्वारा शुरू किए गए अच्छे कामों को पूरा करने के लिए हजारों पथ प्रदर्शक चाहिए, क्योंकि यह काम अकेले मोदी नहीं कर सकते हैं।
लेकिन संगठन की रूपरेखा दोबारा बनाने से उन्हें कौन रोक रहा है। उन्हें अनिवार्य रूप से नौकरशाही को नियंत्रित करना होगा तथा औद्योगिक प्रबंधन कैडर को शुरू करना होगा। हम न्यायाधीशों के एकाधिपत्य से लड़ रहे हैं, जहां पर नियुक्तियां बिना किसी रोक-टोक के हो रही हैं। प्रशासन में भी ऐसा ही हो रहा है, जहां प्रशासनिक सेवा अपने लोगों को चयनित तथा नियुक्त करती है। हालांकि नियुक्तियों को अंतिम स्वीकृति मंत्री देते हैं, परंतु यह पके-पकाए भोजन की तरह है जहां अंतिम चरण में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया जा सकता है। नियुक्तियों में अन्य प्राधिकारियों का हस्तक्षेप, नियंत्रण, सहभागिता व बहुल अनुशासन होना चाहिए। न्यायपालिका व प्रशासन में स्वयं को नियुक्त करने अथवा अपने साथी को नियुक्त करने के सिद्धांत को निकाल बाहर फेंकना चाहिए। मोदी द्वारा घोषित मापदंडों तथा उन पर अमल के मामले की ही मिसाल ले लेते हैं। मैंने हाल में दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चल रहे सौंदर्यीकरण के काम का निरीक्षण किया जो घोंघे की गति से चल रहा है, जिसके कारण जनता को भारी असुविधा हो रही है। जीएसटी को लागू करने में कई कठिनाइयां आ रही हैं। अब इसके सरलीकरण तथा इसे मैत्री भाव से लागू करने की जरूरत महसूस की जा रही है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि नोटबंदी तथा जीएसटी अर्थव्यवस्था में बड़े सुधार हैं, लेकिन इन पर अमल सुचारू ढंग से होना चाहिए। अव्यवस्थित तरीके से इन्हें लागू करने से जनता को असुविधा ही होगी। सबसे बड़ी कष्टप्रद समस्या यह है कि जीएसटी को कुछ लोग ही जानते-समझते हैं, जबकि व्यापारी, जिन पर यह लागू होना है, उन्हें यह पता ही नहीं कि क्या और कैसे किया जाना है। यहां तक कि अकाउंटेंट व सरकार के लोग ही इसकी व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। पर्याप्त संचार तथा इंटरनेट पर डाटा के संचरण की जरूरत है। जब कोई बदलाव होता है, तो अल्प समय के लिए थोड़ी असुविधा होती ही है, लेकिन उसका निरंतर चलते रहना खतरे से खाली नहीं है। कार्यान्वयन के स्तर पर सुस्ती अथवा शिथिलता से स्वर्णिम सपने धूमिल हो जाएंगे। हम काले धन के समर्थन से चल रही उच्च सकल घरेलू उत्पाद दर वाली अर्थव्यवस्था को छोडक़र ईमानदार व पारदर्शी अर्थव्यवस्था की ओर निश्चित रूप से बढ़ रहे हैं। अब सही समय आ गया है, जब सरकार की कार्यशैली में सुधार लाए जाने चाहिएं। ऐसा करके ही हम सरकार की कार्यप्रणाली को कुशल तथा प्रभावशाली बना सकते हैं।

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