स्त्री का डर, कानून और समाज

मोनिका शर्मा
हाल ही में मध्यप्रदेश में बारह साल की आयु से कम की नाबालिग बालिकाओं से दुष्कर्म और किसी भी उम्र की महिला से सामूहिक दुष्कर्म करने वालों को मृत्युदंड दिए जाने के प्रावधान वाले दंड विधि संशोधन विधेयक को राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में मंजूरी दे दी गई। इस तरह के सख्त कानून के मसविदे को विधानसभा की मंजूरी मिल जाने पर नाबालिग से बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के आरोपी के लिए मृत्युदंड का प्रावधान करने वाला मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य होगा। इतना ही नहीं, प्रलोभन देकर शारीरिक शोषण करने के आरोपी को सजा के लिए धारा 493 (क) में संशोधन करके इसे भी पहले से और कड़ा कानून बनाने का प्रस्ताव किया गया है। साथ ही, महिला का पीछा करने का अपराध दूसरी बार साबित होने पर न्यूनतम एक लाख रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा।
हालिया बरसों में हर उम्र की महिला के साथ छेड़छाड़, पीछा करने, शादी का झांसा देकर यौन शोषण और बर्बर सामूहिक दुष्कर्म के मामलों में तेजी से इजाफा हुआ है। विकृत मानसिकता को परिलक्षित करने वाले ऐसे मामले आए दिन सुर्खियां बन रहे हैं। ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ की रिपोर्ट ‘ब्रेकिंग द साइलेंस: चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूज इन इंडिया’ के मुताबिक हमारे यहां घर से लेकर स्कूल तक बच्चों के यौन इस्तेमाल व यौन शोषण की घटनाएं आम बात हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्डब्यूरो में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर बाईस मिनट के भीतर यौनहिंसा का एक नया मामला सामने आता है।
यह हाल तो तब है जब गांवों-कस्बों में ही नहीं, महानगरों तक में कई मामले दर्ज ही नहीं हो पाते हैं। आमतौर पर पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में पर्याप्त संवेदनशीलता नहीं दिखाता। फिर समाज का नकारात्मक रवैया और कानूनी उलझनें। सब कुछ पीडि़ता और उसके परिवारजनों के लिए परेशानी का ही सबब बनते हैं। अपराधी या तो बच निकलते हैं या फिर मामूली सजा पाकर फिर वैसे अपराध को अंजाम देने की फिराक में रहते हैं। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं जब एक बार दुष्कर्म जैसा जघन्य अपराध करने के बाद नाममात्र की सजा पाकर अपराधी ने फिर वैसा अपराध करने का दुस्साहस किया। ऐसे में सजा की सख्ती का संदेश जरूरी है।
बलात्कार जघन्य अपराधों में शामिल है। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा महिलाओं से छेड़छाड़ के मामले में भी कानून को सख्त कानून बनाने की पहल सराहनीय है। आए दिन छेडख़ानी की घटनाओं के चलते लड़कियां गांवों से लेकर शहरों तक खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। खासकर कामकाजी महिलाओं और उच्चशिक्षा के लिए घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों के लिए तो यह बदसलूकी असुरक्षा की बड़ी वजह बन गई है। दिल्ली पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि ऐसे मामलों में बीते कुछ सालों में तीन गुना इजाफा हुआ है। छेड़छाड़ की घटनाओं को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है क्योंकि किसी बड़े अपराध की शुरुआत इस तरह के दुव्र्यवहार से ही होती है। यह दुखद है महिलाओं की इज्जत को ठेस पहुंचाने और सामाजिक परिवेश को असुरक्षित बनाने के लिए जिम्मेवार विकृत मानसिकता वाले बिना किसी भय के सार्वजनिक स्थलों पर ऐसी हरकतें करते पाए जाते हैं। हमारे यहां यौनहिंसा के बढ़ते आंकड़े वाकई डराने वाले हैं। घर, स्कूल, दफ्तर, सडक़, कहीं भी महिलाएं और बच्चियां सुरक्षित नहीं हैं। अब तो छोटी-छोटी बच्चियों के साथ भी दुष्कर्म की घटनाएं हो रही हैं। नाबालिग बच्चियों के साथ होने वाली ऐसी घटनाएं हर संवेदनशील इंसान के मन-मस्तिष्क को झकझोरने और भयभीत करने वाली होती हैं। कई बार ये मासूम उन व्यक्तियों के विकृत व्यवहार का शिकार बनती हैं जिन पर इनकी सुरक्षा का जिम्मा होता है। कानूनी लचरपन, महिला के परिवार के लिए समाज का असहयोगी रवैया और सख्त सजा मिलने का डर न होना, इन घटनाओं के प्रमुख कारण हैं। लिहाजा, त्वरित कार्रवाई और सख्त सजा जरूरी है। चीन और मिस्र जैसे देशों में बलात्कारी को फांसी की सजा दिए जाने का प्रावधान है। भारत में बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों को देखते हुए सजा की सख्ती के बारे में विचार करना जरूरी है। यह शुरुआत उस राज्य से हो रही है जो ऐसे अपराधों का गढ़ बन गया है।
बीते कई सालों से राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं पर हो रहे अपराध में मध्यप्रदेश हर बार अव्वल रहा है। नाबालिग बच्चियों के यौन शोषण के मामले भी मध्यप्रदेश में लगातार बढ़े हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने यौनहिंसा संबंधी कानूनों को औरकड़ा करने की पहल की, तो उसके पीछे राज्य की यह तस्वीर ही रही होगी। लेकिन मध्यप्रदेश सरकार ने क्या इस बात की समीक्षा की, कि मौजूदा कानूनों का ठीक से क्रियान्वयन हो रहा है या नहीं। सारे आपराधिक मामलों में सजा की सबसे कम दर यौनहिंसा के मामलों में रही है। इसकी वजह क्या है, यह कोई रहस्य की बात नहीं है। पुलिस की जांच से लेकर न्यायिक प्रक्रिया के हर चरण तक, पीडि़ता को संवेदनहीनता और बेरुखी का सामना करना पड़ता है। अगर वह कमजोर तबके की है तो उस पर और उसके परिवार पर ‘समझौता’ कर मामले को रफा-दफा करने का दबाव पड़ता रहता है। कई बार इस तरह का दबाव डालने में पुलिस भी शामिल रहती है। कई मामले उजागर होने के बावजूद पुलिस तक नहीं पहुंचते। गांव में ही पंचायत बैठती है, और अक्सर आरोपी पर थोड़ा-बहुत जुर्माना लगा कर या उसे कोई मामूली-सी सजा देकर छोड़ देती है। दुष्कर्म कोई साधारण अपराध नहीं है। पीडि़ता को प्रतिष्ठा के हनन से लेकर मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक टूटन तक, सब कुछ झेलना पड़ता है। कम उम्र में ऐसे अपराध की शिकार बनी बच्चियां तो जीवन भर किसी पर भरोसा नहीं कर पाती हैं, न मनोवैज्ञानिक रूप से कभी उबर पाती हैं। ऐसी घटनाओं के चलते माता-पिता के मन में उपजने वाला भय बेटियों के पूरे भविष्य को प्रभावित करता है। ऐसी घटनाओं का केवल कानूनी पक्ष नहीं होता; ये पूरे समाज की संवेदना और चिंता से जुड़े मामले हैं। बावजूद इसके, भारत न केवल दुनिया के उन देशों की फेहरिस्त में शामिल है जहां बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले सामने आते हैं बल्कि कानूनी लचरपन में भी यह आगे है। भारत में बीते पांच साल में बच्चों से बलात्कार के मामलों में 151 फीसद की वृद्धि हुई है। लेकिन इन अपराधों को अंजाम देने वाले बहुत-से लोग बच निकलते हैं। आंकड़े बताते हैं कि यौनहिंसा के मामलों में सजा की दर सबसे कम रही है। यौन अपराधियों का यों बच निकलना पीडि़ता और उसके परिवार का ही नहीं, समाज का भी मनोबल तोड़ता है।
क्या यौनहिंसा संबंधी कानूनों में और कड़े प्रावधान कर देने भर से ये अपराध कम होने लगेंगे? निर्भया कांड के बाद देश में उठे जन-रोष के फलस्वरूप यौनहिंसा संबंधी कानूनों की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति वर्मा समिति गठित की गई। फिर, कई प्रावधान पहले से और सख्त कर दिए गए। लेकिन तब से लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ अपराध और बढ़े ही हैं। इसकी गवाही राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े भी देते हैं और विभिन्न राज्यों में पुलिस में दर्ज आंकड़े भी। तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि इस तरह के बहुत सारी घटनाओं को रिश्तेदार, परिजन और पड़ोसी ही अंजाम देते हैं। इसलिए बड़ा सवाल यह भी है कि हमारा समाज कैसा बनता जा रहा है? ऐसे समाज में लड़कियां और महिलाएं कैसे सुरक्षित रह सकती हैं?

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