अध्याय 5

मनुस्मृति में जाति शब्द का जहां-जहां भी प्रयोग हुआ है वहां – वहां उसका अर्थ जन्म के रूप में लिया जाना चाहिए । मनु ( 1/ 201) में ‘ जाति अंधवधिरौ ‘ कहते हैं । जिसका अभिप्राय है – जन्म से अंधे बहरे । 4 /148 में कहते हैं – ‘ जाति स्मरति पौरविकीम ‘ — पूर्व जन्म को स्मरण करता है । इसी प्रकार ‘ द्विजाति: ‘ ( 10 /4 ) में कहा गया है — जिसके दो जन्म होते हैं। (10 / 4 ) में ही कहा गया है कि एक जाति: — एक ही जन्म अर्थात जिसका दूसरा विद्या रूपी जन्म नहीं होता है , वह शूद्र है । वस्तुतः मनुस्मृति में जन्मना जाति व्यवस्था के लिए जाति शब्द कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया।
मनु को जानने व समझने से पता चलता है कि मनु शिक्षा प्राप्ति से ही दूसरा जन्म मानते हैं । जब मनुष्य बच्चे के रूप में जन्म लेता है तो उस समय वह कोरा कागज होता है ,अर्थात उस पर संसार के किसी भी प्रकार के व्यसन अपना प्रभाव नहीं रखते हैं। यहां के संस्कार , संसर्ग व संपर्क उस पर नई इबारत लिखते हैं । जिससे उसका निर्माण होता है। इसमें शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है । जन्म से शूद्र होकर भी अनेक व्यक्ति वैज्ञानिक , अधिवक्ता , राष्ट्रनायक , पत्रकार ,उत्तम गुणों से भरपूर अच्छा शिक्षक आदि बन जाते हैं। बच्चे का माता – पिता के संपर्क से जन्म लेना उसका पहला जन्म है , जबकि आचार्य के गुरुकुल रूपी गर्भ से जन्म लेना उसका दूसरा जन्म है । इस दूसरे जन्म को पाकर ही वह संसार में आकर शिक्षक , राष्ट्रनायक आदि बन जाता है। जब तक वह संसार में आकर विशेष प्रतिभा से सुसज्जित होकर अपने दूसरे जन्म को प्राप्त नहीं कर लेता है , तब तक वह ‘ एक जाति: ‘ कहलाता है और अपनी प्रतिभा से सम्मानजनक उच्चासन या उच्च पद को प्राप्त कर लेना उसको ‘ द्विजाति:’ बनाता है अर्थात दूसरे जन्म वाला बनाता है । यही उसका द्विज हो जाना है । मनु के आलोचकों ने द्विज का अर्थ नहीं समझा और वह उसका अर्थ का अनर्थ कर उसकी उल्टी-सीधी व्याख्या करते रहते हैं । सचमुच ऐसे मूर्खों की बुद्धि पर तरस आता है ।

manu maharaj
आज भी बहुत लोग हैं जो लार्ड मैकाले की शिक्षा को पाकर भी अपने ऐसे साथियों को मूर्ख कहते मिल जाते हैं , जो सुअवसरों के मिलने के उपरांत भी पढ़ लिख नहीं पाए या पढ़ लिखकर भी जिनकी प्रतिभा किसी भी रूप में मुखरित नहीं हो पाई । ऐसे लोगों का अपने साथियों को मूर्ख कहने का अभिप्राय है कि वह जैसा जन्मा था वैसा ही रह गया अर्थात वह ‘ एक जाति: ‘ है , शूद्र है । जिसने अपनी प्रतिभा को मुखरित कर आगे बढ़ना आरंभ किया और बढ़ते – बढ़ते किसी उच्च पद पर पहुंच गया , उसको लोग अक्सर यह कहते हैं कि उसका जन्म सार्थक हो गया , जैसा जन्मा था – वैसा नहीं रहा। उसने जीवन को सुधार लिया । ‘ जीवन को सुधार लिया ‘- का अर्थ ही यह है कि उसने दूसरा जन्म ले लिया अर्थात वह ‘ द्विजाति: ‘ हो गया।
अतः स्पष्ट है कि मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है ।जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है । ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता प्राप्त कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है । शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं ।
हमारी शिक्षा का आधार संस्कार प्राप्ति होता था। रोजगार प्राप्ति तो वर्तमान लॉर्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य है । संस्कार से व्यक्ति का परिष्कार होता है, और रोजगार से व्यक्ति का ह्रास होता है । माना कि सांसारिक उदरपूर्ति के लिए और जीवन निर्वाह के लिए रोजगार की भी आवश्यकता होती है ,और वह भी आवश्यक है , परंतु केवल और केवल रोजगार तक अपने आप को सीमित कर लेना स्वयं अपनी हत्या कर लेना है । हमारी दृष्टि में यही व्यक्ति का ह्रास है । हमारे आत्मवेत्ता ऋषियों का मानना रहा है कि मनुष्य यहां पर आत्महत्या के लिए नहीं ,अपितु आत्मविकास के लिए आया है । अतः उसे ऐसे प्रयास करने चाहिएं कि न केवल उसका आत्मविकास हो, अपितु वह संसार के सभी लोगों के व्यक्तित्व के विकास में सहायक भी हो।
जब व्यक्ति आत्मविश्वास कर दूसरों के आत्मविकास में सहायक हो जाता है तो उसी अवस्था को व्यक्ति का द्विज हो जाना कहा जाता है । यदि व्यक्ति द्विज होकर भी दूसरों के अधिकारों का शोषण या हनन करता है या दूसरों पर अत्याचार करता है या ऐसी चालाकी भरी युक्तियां चलने का प्रयास करता है कि दूसरों का धन मेरा कैसे हो जाए ? – तब समझो कि उसका ज्ञान निरर्थक रहा , सार्थक नहीं हो पाया । ऐसा निरर्थक ज्ञान संसार के लिए बहुत ही हानिकारक होता है । ऐसे निरर्थक ज्ञानी ब्राह्मणों को भी मनु पतित हो जाने के कारण शूद्र की श्रेणी में ही रखते हैं। अतः पता चला कि मनु महाराज संसार के लिए उसी व्यक्ति को उपयोगी और द्विज मानते हैं जो अपने जीवन को सार्थक बना लेता है और दूसरों के जीवन में सार्थकता भरने के लिए सदैव प्रयासरत रहता है।
इसीलिए मनु महाराज जी की वर्ण व्यवस्था को विद्वानों ने पूर्णत: गुणवत्ता पर आधारित व्यवस्था माना है । इसका शारीरिक जन्म या अनुवांशिकता से कोई लेना-देना नहीं है ।

गायत्री मंत्र की दीक्षा आवश्यक

अपने देश में ऐसे बहुत लोग हैं जो मनु को गाली देते देते इस बात के समर्थक हैं कि जब आप किसी ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित स्कूल में जाएं और वहां पर ईसा से संबंधित कोई प्रार्थना बोली जा रही हो तो उसे बोला जाए । क्योंकि यह प्रगतिशीलता का और दूसरों के प्रति सहिष्णुता व पंथनिरपेक्ष होने का प्रमाण है । इसी प्रकार इन लोगों की सोच मुस्लिम धर्म की प्रार्थनाओं के बारे में होती है । परंतु जब किसी भी विद्यालय में गायत्री मंत्र बोला जा रहा हो या वैदिक प्रार्थना कराई जा रही है तो उस समय इन मनु आलोचकों की मान्यताएं परिवर्तित हो जाती हैं । तब यह कहने लगते हैं कि गायत्री मंत्र या वेदमंत्रों की प्रार्थना के माध्यम से बच्चों को कुछ सिखाना घोर सांप्रदायिकता है । जबकि हम गायत्री मंत्र में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हम तेरे वरणीय तेजस्वरूप का ध्यान करते हैं और प्रार्थना करते हैं कि तू हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग पर प्रेरित कर ।
जब बच्चे के भीतर गायत्री मंत्र के माध्यम से यह संस्कार भरा जाता है कि जीवन में शुभ कर्मों को करते हुए जीवन को उन्नत करना है , आत्म विकास करना है और संसार के कल्याण में रत होना है , तो उसे मनुष्यत्व से उठाकर देवत्व की ओर लेकर चलने की साधना कराई जाती है । हमारा कितना दुर्भाग्य है कि ऐसी दिव्या भावना से युक्त उत्कृष्टतम प्रार्थना को भी लोग सांप्रदायिक दृष्टि से देखते हैं ?
मनु महाराज ने गायत्री मंत्र की उत्कृष्टता को स्वीकार करते हुए व्यवस्था दी कि (2/ 148 ) वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है । यह जन्म मृत्यु और विनाश से रहित होता है । ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है ।सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता ।
यह संसार तब तक एक कारावास है , जब तक इसमें उच्च दिव्य भावों से युक्त मनुष्य नहीं विचरते हैं । जब तक उन दिव्य भावों से युक्त दिव्य पुरुषों के विचारों का इस संसार में प्राबल्य न हो , वर्चस्व न हो , उन्हें लोग स्वाभाविक रूप से मानने वाले न हों – तब तक भी इस संसार को एक कारावास ही समझना चाहिए । मनु जैसे विद्वानों का मानना है कि विद्या इस कारागार से मुक्ति का एक साधन है । विद्या सा विमुक्तये — कहकर हमारे विद्वानों ने भी विद्या को मुक्ति का साधन ही घोषित किया है । हमारी शिक्षा तभी पूर्ण होती है, जब हम संसार रूपी इस जेल में पड़े हुए अंतिम जेली को भी मुक्त कराने का प्रबंध कर लेते हैं । यदि जेल में एक जेली भी पड़ा रह गया तो समझो हमारी विद्या निरर्थक रही । हमारे आचार्यों का इतना पवित्र और महान उद्देश्य शिक्षा के संबंध में रहा है । तब ऐसा कैसे हो सकता है कि मनु जैसा विद्वान व्यक्ति समाज में किसी पूरे के पूरे समुदाय को ही या स्त्रियों को मुक्ति का साधन न बताएं अर्थात विद्या प्राप्ति का उन्हें अधिकार ना दें ? यदि ऐसी घोषणा किन्हीं लोगों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए मनु महाराज से कहीं कराई है तो वह संपूर्ण भारतीय संस्कृति की चेतना के विरुद्ध है , आत्मा के विरुद्ध है ,और इसीलिए वह हमें अस्वीकार्य भी है। ऐसे किसी भी श्लोक को मनुस्मृति में प्रक्षिप्त श्लोक माना जाना अपेक्षित है ।
महर्षि मनु जब गायत्री मंत्र के लिए कह रहे हैं कि उसकी दीक्षा बच्चे को पाठशाला में देना अनिवार्य है , तब समझना चाहिए कि वह बच्चे को मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले चलने के लिए इसे आवश्यक घोषित करते हैं । हमारी संस्कृति असत्य से सत्य की ओर , अंधकार से प्रकाश की ओर , मृत्यु से अमृत की ओर चलने की है । यह सारी साधना तभी संपन्न या पूर्ण हो सकती है जब बच्चा पहले दिन से ही यह कहना और रटना आरंभ करे कि हे परमपिता परमेश्वर ! आप हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करो । जब अच्छे मार्ग पर चलने वाली बुद्धि हमें मिलेंगी तभी हम मृत्यु से अमरत्व की ओर चलने की अपनी साधना को पूर्ण कर पाएंगे।
जब तक ऐसी स्थिति नहीं आ पाती, तब तक इस जेल खाने में हम सभी पड़े हुए जेली हैं , अर्थात हमारा जीवन कारागार में बंद है। कारागार से मुक्ति के लिए गायत्री साधना आवश्यक है । जिन अज्ञानी मूर्खों ने गायत्री मंत्र की इस प्रार्थना को विद्यालयों में मनुवाद की समर्थक कहकर इसे सांप्रदायिक सिद्ध करने का प्रयास किया है ,वास्तव में वह मानवता के शत्रु हैं ।इसलिए हमारे विद्वानों का कहना है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोड़ो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा , तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा ।

द्विज बनाने में आचार्य की भूमिका

गायत्री मंत्र के माध्यम से हमें द्विज बनाने में आचार्य की बहुत बड़ी भूमिका होती है । यद्यपि हमारी माता प्रथम पाठशाला कही जाती है , और पिता भी हमारे लिए कम महत्वपूर्ण नहीं होता । परंतु इन सब के उपरांत भी आचार्य की भूमिका को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है । क्योंकि वह हमारे क्षुद्र स्वार्थों को हमसे दूर कर , हमें मानो सोने की तरह धौंकनी में तपाकर , हमें शुद्ध पवित्र कर , हमारा सुंदरतम बेशकीमती आभूषण बनाकर संसार के लिए उपयोगी और मूल्यवान बनाकर हमें प्रस्तुत करता है । आचार्य महर्षि मनु इस विषय में कहते हैं ( २ /146 ) – जन्म देने वाले पिता से ज्ञान देने वाला आचार्य रूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है, आचार्य द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान मुक्ति तक साथ देता हैं । पिता द्वारा प्राप्त शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है ।
संसार में ज्ञान प्राप्ति की इच्छा तब बाधित हो जाती है जब पिता से रोजी – रोटी कमाने का गुण या कौशल कोई बच्चा प्राप्त कर अपना कोई न कोई जीविकोपार्जन का साधन बना कर बाजार में बैठ जाता है । पिता का यह ज्ञान उसका जीविकोपार्जन का साधन तो हो सकता है , परंतु उसे मुक्ति नहीं दिला सकता है । आज संसार में अधिकांश लोग शूद्र इसीलिए बने हुए हैं कि वह परंपरागत रोजगार को पिता से प्राप्त कर उसी में खोकर रह जाते हैं । उससे आगे बढ़ने का न तो उनके पास समय है और न ही अब उनके लिए ऐसी परिस्थितियां हैं , जिनमें वह अब अपना आत्मविकास कर सकते हों । अतः पिता के द्वारा दिया गया ज्ञान तो इस संसार की यात्रा में ही साधन हो सकता है , परंतु आचार्य के द्वारा दिया गया ज्ञान हमें संसार सागर से पार लगाने और मुक्ति धाम तक पहुंचाने का पवित्रतम साधन है । हमें हर स्थिति में उसी पवित्रतम साधन की साधना करनी चाहिए । उसी की प्राप्ति की इच्छा करनी चाहिए , प्रार्थना करनी चाहिए , कामना करनी चाहिए।
माता के गर्भ से मिला जन्म भी हमें इसी संसार सागर में अपनी जीवन यात्रा सुनिश्चित करने वाले शरीर के लिए मिला है। उससे आगे की यात्रा में यह शरीर भी सहायक नहीं होता । अतः महर्षि मनु व्यवस्था देते हैं कि ( 2/ 147 ) माता- पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है । वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है ।
जब सब कुछ शिक्षा प्राप्ति के उपरांत ही संभव है अर्थात मनुष्य की उत्कृष्टता या निकृष्टता शिक्षा और संस्कार प्राप्ति पर ही निर्भर करती है तो फिर किसी भी व्यक्ति के लिए यह उचित और अपेक्षित नहीं है कि वह अपना कुल का नाम बताकर या अपने पिता का नाम बता कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयास करे । इससे लोगों को उस व्यक्ति के विषय में भ्रम तो हो सकता है , लेकिन उस व्यक्ति का वास्तविक परिचय नहीं हो सकता । यही कारण है कि मनु ने यह भी व्यवस्था की है कि अपनी श्रेष्टता सिद्ध करने के लिए कुल का नाम आगे धरना अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है । अपने कुल का नाम आगे रखने के स्थान पर व्यक्ति यह दिखा दे कि वह कितना शिक्षित और संस्कारित है ?
शिक्षा और संस्कार की अनिवार्यता पर बल देते हुए महर्षि मनु की यह व्यवस्था भी ध्यातव्य है कि ( 10 / 4 ) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं । विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है । इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों में या श्रेष्ठ मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है ।
इस का अभिप्राय है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया है तो वह दुष्ट नहीं हो जाता । उस के कृत्य यदि भले हैं तो वह अच्छा मनुष्य कहा जाएगा और यदि वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो उस समय वह द्विज गिना जाएगा । सब कुछ व्यक्ति के लिए इस बात पर निर्भर करता है कि उसने शिक्षा प्राप्त करते समय संस्कार कितने लिए ? यदि उत्कृष्ट शिक्षा प्राप्त कर भी कुसंस्कारी ही बना रहा , तो वह शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत भी शूद्र ही होगा और यदि शिक्षा प्राप्त कर सुसंस्कारी बन गया है तो वह द्विज होगा ।अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं ।
मनु के इतने उत्कृष्ट चिंतन को देखकर ही डॉक्टर केवल मोटवानी अपने ” मानव धर्मशास्त्र ” की भूमिका के पृष्ठ 13 -15 में लिखते हैं — ” पूर्व और पश्चिम में मनु के समान कोई ऐसा सामाजिक चिंतक नहीं है जिसने मानव समाज की सभी समस्याओं और उनके भविष्य के बारे में इतनी गहराई और विविध आयामों के साथ सोचा हो , जितना कि मनु ने। ” — — ‘ वस्तुतः कुछ दृष्टियों से तो मनु का चिंतन पाश्चात्य समकालीन सामाजिक चिंतन से बहुत आगे है। – – – – – मनु पर किसी एक राज्य , या जाति का अधिकार नहीं है , वह तो सारे संसार भर के हैं । उनकी शिक्षाएं किसी विशेष वर्ग जाति या समुदाय के लिए नहीं हैं , अपितु वह तो संपूर्ण मानव मात्र के लिए हैं। उनकी शिक्षाएं सार्वकालिक और मनुष्य मात्र के लिए शाश्वत है । वस्तुतः मनु की मौलिक शिक्षाओं की वर्तमान ज्ञान विज्ञान और अनुभव के आधार पर पुनर्व्याख्या करने की आवश्यकता है ।”

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