औरंगजेब नही झुका पाया था गुरू हरिराय के स्वाभिमान को

गुरू हरिराय का अपने पुत्र रामराय के प्रति व्यवहार
गुरू हरिराय के लिए यह असीम वेदना और कष्ट पहुंचाने वाली बात थी कि उनका पुत्र बादशाह औरंगजेब की चाटुकारिता करने लगे। जबकि उन्होंने अपने पुत्र रामराय को दिल्ली जाने से पूर्व भली प्रकार समझाया था कि बादशाह के समक्ष कोई भी ऐसी बात ना तो कहनी है और ना करनी है जिससे हिंदू स्वाभिमान को और गुरू परंपरा को अपमानित होना पड़े।
गुरू हरिराय ने अपने पुत्र रामराय की औरंगजेब के प्रति चाटुकारिता पूर्ण बातों को सुन समझकर उसे कह दिया था कि वह घर ना लौटे। इसका अभिप्राय था कि रामराय गुरू हरिराय का ज्येष्ठ पुत्र होने के उपरांत भी गुरू गद्दी की प्राप्ति के स्वाभाविक उत्तराधिकार से भी वंचित हो गया। देखने वाली बात यह है कि यदि स्वाभिमान को बेचने की भूलें लोगों ने की हैं, तो ‘सर्वप्रथम राष्ट्र’ की भावना को अपना आदर्श बनाकर जीने वाले लोगों ने ऐसी भूलें करने वालों को कड़ा दण्ड भी दिया है। यह कड़ा प्रतिबंध था और कठोर व्यवस्था थी कि बादशाह से हिंदू स्वाभिमान या गुरू परंपरा को लेकर कोई समझौता नही करना है, और आंख, कान व मस्तिष्क खोलकर सतर्कता बरतते हुए वात्र्ता करनी है, यदि चूक हो गयी तो समझना कि दण्ड भी कड़ा मिलेगा। राष्ट्रीयता के संदर्भ में गुरू हरिराय का यह निर्णय सचमुच प्रशंसनीय था।
गुरू ने छोटे पुत्र हरिकृष्ण को बनाया उत्तराधिकारी
गुरू हरिराय ने अपने स्वास्थ्य के दृष्टिगत निर्णय लिया कि उनकी मृत्यु के उपरांत उनका छोटा पुत्र हरिकृष्ण उनकी गद्दी का उत्तराधिकारी होगा। उनके भक्तों ने यही किया भी। गुरू हरिराय की मृत्यु 6 अक्टूबर 1661 ई. को हो गयी तो उनके पश्चात गुरू हरिकृष्ण जी महाराज को उनका उत्तराधिकारी बनाया गया।
जिस समय गुरू हरिराय की मृत्यु हुई उस समय उनके उत्तराधिकारी गुरू हरिकृष्ण की अवस्था केवल 5 वर्ष थी। परंतु उनके चेहरे के ओज व तेज को देखकर लगता था कि गुरू हरिराय जी ने जो निर्णय लिया था, वह उचित ही था। इसलिए उनके समस्त अनुयायियों ने गुरूजी की इच्छा को ही आदेश मानकर उसका पालन करना अपना पवित्र कत्र्तव्य समझा। इस प्रकार गुरू हरिकृष्ण जी महाराज आठवें गुरू के रूप में गद्दी पर विराजमान हुए।
रामराय ने बसाया देहरादून
जिस समय हरिकृष्ण जी महाराज को गुरू गद्दी सौंपने की प्रक्रिया पूर्ण की जा रही थी उस समय उनका ज्येष्ठ भ्राता रामराय उत्तराखण्ड में पर्वतों की तलहटी में कहीं रह रहा था। कहा जाता है कि इसी समय रामराय ने यहां एक नगर की स्थापना की जो कालांतर में देहरादून के नाम से विख्यात हुआ। यह भी विख्यात है कि अपने प्रति श्रद्घा व सम्मान का भाव प्रकट करते रामराय से प्रसन्न होकर औरंगजेब ने ही उसे यह क्षेत्र उपहार में प्रदान किया था।
रामराय ने भी हरिकृष्ण को गुरू मान लिया
रामराय को हरिकृष्ण के गुरू गद्दी संभालने से कष्ट तो हुआ पर वह कुछ भी कर नही सकता था। क्योंकि वह जानता था कि उसने जो कुछ भी किया है वह उचित नही कहा जा सकता। इसलिए उसके साथ कोई भी व्यक्ति खड़ा नही होगा।
उसके पास अब पश्चात्ताप करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था। तीर छूट चुका था, जिसका लौटकर आना किसी भी प्रकार संभव नही था। गुरू हरिकृष्ण अब सिखों के गुरू बन चुके थे…और यही एक अंतिम सत्य था जिसे रामराय ने मौन रहकर स्वीकार कर लिया।
यह भारतवर्ष है और इस भारतवर्ष ने कितने ही कीत्र्तिमान विश्व में स्थापित किये हैं। यह हर कंकर में शंकर (ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्च जगत्याम् जगत) मानने की बात कह सकता है तो यह बाल में भी गुरूपन देख सकता है। राजा अल्पव्यस्क हो यह तो अन्य देशों में भी चल सकता है, पर गुरू भी अल्पव्यस्क हो यह तो केवल भारत में ही चल सकता है। अल्पव्यस्क गुरू के नेतृत्व में कीरतपुर में सभी कार्यक्रम पूर्ववत होने लगे। गुरू हरिराय जी के विश्वासपात्र लोगों ने ऐसी सुंदर और सुचारू व्यवस्था की कि गुरू हरिकृष्ण के अल्पव्यस्क होने का गुरूजी के दैनिक कार्यों पर तनिक भी प्रभाव नही पड़ा। लोगों को ऐसा अनुभव ही नही होता था कि उनका अपना गुरू अल्पव्यस्क है।
रामराय ने उकसाया औरंगजेब को
रामराय को हरिकृष्ण के गुरू गद्दी पाने से बड़ा कष्ट हो रहा था, वह ऊपरी तौर पर तो मौन था, परंतु भीतर ही भीतर वह जला जा रहा था। वह सीधे अपने भाई को चुनौती देने की स्थिति में भी नहीं था। अत: उसने षडय़ंत्र रचना आरंभ किया और औरंगजेब को अपने ही भ्राता के विरूद्घ भडक़ाने लगा। आरंभ में तो औरंगजेब ने उसके भडक़ावे में आना उचित नहीं समझा। परंतु नित्य प्रतिदिन एक ही प्रकार की बातों को सुनते-सुनते औरंगजेब को भी धीरे-धीरे रामराय की बातें अच्छी लगनी आरंभ हो गयीं। औरंगजेब को रामराय ने कहा था कि हरिकृष्ण से बुलाकर आप उसके गुरू होने की परीक्षा लें। अंत में औरंगजेब ने गुरू को अपने दरबार में उपस्थित होने की सूचना भेज दी। बादशाह ने मिरजा राजा जयसिंह के माध्यम से गुरू हरिकृष्ण को बुलवाना उचित समझा। मिरजा राजा जयसिंह ने अपने दीवान परसराम को पचास घुड़सवार देकर हरिकृष्ण के पास उन्हें दिल्ली लाने के लिए भेजा। गुरू के लिए पालकी की व्यवस्था करा दी गयी और राजा जयसिंह ने परशराम को बता दिया था कि गुरूजी के सम्मान को तनिक भी ठेस नहीं लगनी चाहिए।
गुरू हरिकृष्ण को मिली बादशाह की सूचना
जब यह सूचना गुरू हरिकृष्ण को मिली कि उन्हें बादशाह ने दिल्ली बुलाया है, तो इससे गुरूजी की माता किशनकौर को बड़ी चिंता हुई। वैसे भी अब से पूर्व मुगलों के द्वारा गुरूओं को बुलाकर उनके ेसाथ धोखा करने की कई घटनाएं हो चुकी थीं। अत: इस बात की पूर्ण संभावना थी कि गुरू हरिकृष्णजी भी यदि दिल्ली गये तो कोई भी अप्रिय घटना घटित हो सकती है। वैसे भी मुगलों का गुरूओं के प्रति आशंकित रहने का यही कारण था कि वह गुरूओं को हिंदुओं का नेता बनने से रोकना चाहते थे। औरंगजेब का उद्देश्य मुगलों के पारस्परिक उद्देश्य से भिन्न नहीं था।
गुरू हरिकृष्ण की अवस्था इस समय 7 वर्ष की हो चुकी थी। वह भी अब कुछ न कुछ समझ रखने लगे थे। इस समस्या के निदान हेतु गुरूजी ने अपने विश्वसनीय लोगों की एक बैठक आहूत की। जिसमें उन्हें परामर्श दिया गया कि गुरूजी दिल्ली तो जाएंगे पर बादशाह से नहीं ंमिलेंगे। दीवान परसराम ने माता किशनकौर को व्यक्तिगत स्तर पर समझाया कि गुरूजी को दिल्ली में जाने पर किसी भी प्रकार का कोई संकट नहीं आएगा और उनकी सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध किया जाएगा।
बादशाह से मिलने के लिए गुरू का प्रस्थान
जिस दिन गुरूजी बादशाह से मिलने के लिए चले उस दिन लोगों में कई प्रकार की भ्रांतियां व्याप्त थीं। लोग कई प्रकार की शंका-आशंकाएं व्यक्त कर रहे थे। बड़े विशाल जनसमूह ने बादशाह से मिलने जा रहे अपने ‘बेताज बादशाह’ गुरूजी को विदा किया। बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने गुरू के साथ दिल्ली के लिए साथ-साथ चल पड़े। वह नहीं चाहते थे कि दिल्ली की छलकपट और षडय़ंत्रों से भरी राजनीति का उनके गुरू को शिकार होना पड़ जाए।
बड़े हर्ष और उत्साह के साथ गुरू हरिकृष्ण अपनी और अपने साथियों की सुरक्षा के प्रति पूर्णत: सावधान रहते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े।
दिल्ली में गुरूजी का पदार्पण
दिल्ली में पहुंचने पर गुरूजी का स्वागत सत्कार करने के लिए औरंगजेब ने मिरजा राजा जयसिंह को नियुक्त किया था। इसके पीछे उसकी कूटनीतिक और रणनीतिक योजना कार्य कर रही थी। वह लोहे से लोहे को काट रहा था।
जब राजा जयसिंह को यह सूचना मिली कि गुरू हरिकृष्ण दिल्ली की सीमा में पदार्पण कर चुके हैं तो वह स्वयं ही गुरूजी को लेने के लिए नगर के बाहर तक आया। जब औरंगजेब को यह सूचना मिली कि गुरूजी दिल्ली की सीमाओं में प्रविष्ट हो चुके हैं और अब वर्तमान में मिरजा राजा जयसिंह के यहां ठहरे हैं तो उसने गुरूजी के साथ बैठक करने की इच्छा प्रकट की। परंतु गुरूजी ने औरंगजेब के साथ किसी भी प्रकार की भेंट करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। औरंगजेब ने एक अल्पव्यस्क गुरू से इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी। औरंगजेब इस उत्तर को पाकर निराशापूर्ण मनोदशा में फंसकर रह गया। गुरू हरिकृष्ण के इस प्रकार के उत्तर में बादशाह के लिए एक चुनौती छिपी थी कि-”मैं दिल्ली आ गया हूं पर तुझसे नही मिलंूगा। तुझमें साहस है तो जो कुछ करना चाहता है कर ले, पर तू मुझे मेरे धर्म से भ्रष्ट नहीं कर सकता।”
इस प्रकार अपने साहस और हिंदू धर्म के प्रति अपने अडिग विश्वास के कारण गुरू हरिकृष्ण ने औरंगजेब को स्पष्ट कर दिया कि उनके पास अपने पूर्वजों के साहस और वीरता की कितनी बड़ी पूंजी है?
गुरू जी ने बादशाह को दिखाया आईना
इस पंंूजी में आत्मविश्वास के मोती थे, साहस के माणिक्य थे स्वतंत्रता की सुगंध थी अस्मिता के लाल थे, निजता के हीरे थे और चुनौती बनकर शत्रु को हिला देने का रोमांचकारी पराक्रम था। जिसका सामना मुगल बादशाह औरंगजेब नहीं कर पाया। पर उसके भीतर एक वेदना अवश्य उत्पन्न हो गयी और उस वेदना ने पंजाब की गुरू परंपरा को मुगलों का परम शत्रु बनाकर रख दिया।
गुरूजी का स्वर्गवास
ऐसी परिस्थितियों में ही गुरू हरिकृष्ण जी का 30 मार्च 1664 ई. को देहांत हो गया। पर उन्होंने अपने देह त्याग से पूर्व जिस पावन ज्योति को देश भर में जलाया उसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
कर्नल देवमित्र अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का इतिहास’ के पृष्ठ 199 पर लिखते हैं-”भारतीय योद्घाओं की उस ख्याति परंपरा में जिन्होंने यवन क्रूरता व निर्दयता से संघर्ष करने वाले वीरों में उन भारतीय नेताओं जिन्हें सिख गुरू भी कहा जाता है, का नाम सदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा, जिन्होंने मुगलों के दरबार के द्वार पर यथा देहली तथा पंजाब में मुगलों के विरूद्घ एक और शक्तिशाली भारतीय विद्रोह का ध्वज लहरा दिया।
इस विख्यात परंपरा के वीर जिन्होंने भारत के घोर संकट के समय तथा असाधारण विषम परिस्थितियों में भारतीयों को संगठित करते रहने का सतत क्रम जारी रखा, तथा उन्हें साहस व दृढ़ता पूर्वक अवरोध करके सशक्त प्रेरणा दी, श्रद्घा व सम्मान के साथ गुरू कहे जाते हैं। इस योद्घा परंपरा के दसों गुरू, समूचे राष्ट्र के लिए पूजनीय हैं, क्योंकि इन्होंने इस्लामी क्रूरता समाप्त करने के लिए सारे भारतीयों को उत्तर में एक सूत्र में बांधा व संगठित किया, मुसलमान भी जो अपने सहधर्मियों की क्रूरता से घृणा करते थे-उनके शिष्य बन गये। ये योद्घा मुगल क्रूरता का दृढ़ता से प्रतिरोध करते रहे। जिस प्रकार दक्षिण में प्रात: स्मरणीय शिवाजी ने अपने सभी पुत्र-पौत्र व पुत्र वधुएं अपने राष्ट्र की रक्तिम वंदना की बलिवेदी पर सहर्ष अर्पण कर दिये उसी प्रकार सिख परंपरा के ये महामानव एक के पश्चात एक अपना सर्वस्व राष्ट्रीय स्वाभिमान को अक्षुण्ण रखने की दिशा में सहर्ष व दृढ़ता पूर्वक निछावर करते रहे।”
गुरू और राष्ट्र का सनातन संबंध
गुरू का अभिप्राय केवल हमारे आध्यात्मिक प्रणेता से ही नही है-अपितु गुरू का अभिप्राय राष्ट्र प्रचेता से भी है। भारतीय सनातन परंपरा में गुरू प्रत्येक प्रकार से मानव समाज को स्वराज्य का और सुराज का पाठ पढ़ाता आया है। गुरू शांति का ही नही क्रांति का भी प्रतीक है। शांति के लिए क्रांति भी अनिवार्य और आवश्यक है। वैसे शांति में क्रांति की भावना स्वयं ही ंअंतर्निहित है। क्योंकि शांति के दो पक्ष हैं-शास्त्र से ‘सत्यमेव जयते’ की परंपरा निकलती है। पर इन दोनों ही परंपराओं का अंतिम उद्देश्य शांति की पूजा करना है, या शांति में ही अंतर्विलीन हो जाना है।
गुरू उस महान संस्था का नाम है-‘जिसकी वाणी में शास्त्र की गंगा और कर्म में शस्त्र की यमुना बहती है। हम भूल जाते हैं कि हम कोढ़ादि रोगों से मुक्त करने वाली मोक्षदायिनी गंगा के ही पुजारी नहीं हैं अपितु हम यमलोक से सीधा संबंध रखने वाली यमुना के भी पुजारी हैं।’
हमारे गुरूओं ने प्राचीनकाल से ही भारत के लोगों का इस प्रकार निर्माण किया है कि वह ‘शस्त्रमेव जयते’ और ‘सत्यमेव जयते’ दोनों के ही उपासक बनें। क्योंकि राष्ट्र नामक संस्था की सुरक्षा और संरक्षा इन दोनों के संयोग से ही संभव है।
जब गुरू परंपरा की इस पवित्र भावना को हमारे देश में घुन लगा गया था और हमने यह मानना आरंभ कर दिया था कि गुरू का अभिप्राय किन्हीं विशेष कार्यों के संपादन के लिए किसी विशेष घड़ी या मुहूत्र्त को देखना होता है और वह जैसे कहें वैसे करना हमारा कत्र्तव्य होता है, तब पंजाब की धरती ने जिन गुरूओं को राष्ट्रीय पटल पर प्रकट किया उससे हमारी शांत भुजाएं राष्ट्ररक्षा के लिए दुगुने वेग से फडक़ने लगीं।
यही कारण था कि औरंगजेब जैसे मुगल बादशाह को पंजाब की धरती की भारत के स्वातंत्रय समर को ऊर्जान्वित करती हुई दिखाई दे रही थीं। इस संदर्भ में इस पवित्रभूमि की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी न्यून ही सिद्घ होगी।
इसी गुरू परंपरा में गुरू अर्जुन देव को कितनी निर्दयता से मुगल शासक जहांगीर द्वारा समाप्त किया गया, वह हम पूर्व में ही उल्लेखित कर आये हैं। अर्जुन देव जी की शहादत के पश्चात उनके योग्य पुत्र ने भी ‘सत्यमेव जयते’ की रक्षार्थ सर्वप्रथम ‘शस्त्रमेव जयते’ कहना सीखा और अपनी स्वतंत्रता की रक्षार्थ सैनिक तैयारी करनी आरंभ कर दी। उसकी सैनिक तैयारियों को जहांगीर ने समझ तो लिया पर वह कुछ भी कर नहीं पाया।
गुरू हरगोविंद और मुगल सेनापति
फलस्वरूप 1628 ई. में गुरू हरगोविंद ने मुगल सेनापति मुखलिस खां को मार डाला। उनके नेत्रों में स्वतंत्रता और भारत के सम्मान के हत्यारे लोग किरकिरी की भांति खटका करते थे। गुरू हरगोविन्द ने मुखलिस खां को अपनी तलवार से सदा सदा के लिए शांत कर दिया तो इस घटना के तीन वर्ष पश्चात अर्थात 1631 ई. में उन्होंने लैहरा में एक मुगल सेनापति कमर बेग का वध कर दिया।
गुरू हरगोविंद की तलवार इन दो सेनापतियों को समाप्त करके भी शांत नही हुई, फलस्वरूप 1634 ई. में गुरूजी के साथ मुखलिस खां के भाई काले खां और पैण्डा खां का युद्घ करतारपुर में हुआ। जिसमें गुरूजी की तलवार पुन: सफल हुई और उन्होंने युद्घ में इन दोनों शत्रुओं का संहार कर दिया।
इस समय दिल्ली की सत्ता पर मुगल बादशाह शाहजहां का शासन चल रहा था। शाहजहां ने गुरूजी के इन स्वतंत्रता प्रेमी कृत्यों के विरूद्घ कोई कार्यवाही नहीं की।
आज का वासनामय फिल्मी परिवेश
आज का वासनामय फिल्मी परिवेश भारत का अंग्रेजीकरण और पश्चिमीकरण करने में लगा है। चारों ओर वासना का रंग है और उपासना का उत्सव नीरस पड़ चुका है-जबकि हमारी ईशभक्ति भी शस्त्रशक्ति के बिना अपूर्ण मानी जाती थी। इसीलिए वर्ष में एक दिन शस्त्रपूजन (दशहरा) का विधान भी हमारे यहां रखा गया। आज इस परंपरा को भुलाया जा रहा है और फिल्मी संसार ने इस देश के युवा को पूर्णत: वासनामयी बना कर रख दिया है। इसके लिए हमारे कथाकार भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। उन्होंने भी सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण को राधा के साथ रास रचाने वाला, गोपिकाओं के वस्त्र चुराने वाला और चूड़ी बेचने वाला श्याम बनकर रख दिया है। जबकि श्रीकृष्ण जी ने नारी का चीर चोरी नही किया, अपितु उसकी रक्षा की, उसने चूड़ी नहीं बेचीं -अपितु नारी के सुहाग की प्रतीक चूडिय़ों की रक्षार्थ अपना जीवन जिया।
फिल्मों में जो कुछ हो रहा है वह हमारे लिए अशोभनीय है। मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियां राष्ट्र की आत्मा की पीड़ा को शब्द दे रही लगती हैं :-
”उद्देश्य कविता का प्रमुख श्रंगार रस ही हो गया।
उन्मत्त होकर मन हमारा अब उसी में खो गया।।
कवि कर्म कामुकता बढ़ाना रह गया देखो जहां।
वह वीर रस भी स्मर समर में हो गया परिणत यहां।।
सोचो, हमारे अर्थ है यह बात कैसे शोक की।
श्रीकृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की।।
भगवान को साक्षी बनाकर हो रही अंगोपासना।
है धन्य ऐसे कविवरों को, धन्य उनकी वासना।। ”

फिल्मी जगत और हमारे क्रांतिकारी योद्घा
फिल्मों को कवि ने और कवि को फिल्मों ने अपने प्रति प्रेमासक्त कर लिया है। जिससे कविता का और फिल्म का स्तर गिर गया है। बड़ी शीघ्रता से फिल्मी नायक-नायिकाओं ने अपने आपको कुछ इस प्रकार प्रदर्शित किया है कि जैसे इस सनातन राष्ट्र की आत्मा का प्रतिनिधित्व वही करते हैं। इसलिए उन्हीं की पूजा करो सभी मनोरथ पूर्ण हो जाएंगे। यही कारण है कि हमारे हिंदू वीर योद्घाओं को नई पीढ़ी बड़ी शीघ्रता से विस्मृत करती जा रही है। पंजाब की गुरू परंपरा भी इस दुरावस्था का शिकार बनी है। फलस्वरूप जिस उत्तमता से पंजाब के वीर गुरूओं का महिमामंडन संपूर्ण भारतवर्ष में और भारतवर्ष के इतिहास में होना चाहिए था उस उत्तमता से करने की अपेक्षा पर हम खरे नहीं उतर पाये हैं।
इतिहास बलिदानियों से बना करता है
इतिहास तभी सुशोभित होगा जब उसका हर पृष्ठ हिंदू वीरों की वीरता का गुणगान करते हुए उनकी वीरता का यशोगान कर रहा होगा और हर शब्द से वह अपने महान रत्नों को श्रद्घारस बहाकर अपनी श्रद्घांजलि अर्पित कर रहा होगा। मरने वालों से कभी इतिहास नहीं बना करता है, इतिहास तो बलिदानियों से ही बना करता है। मरे हुओं का इतिहास पढ़ोगे और पढ़ाओगे तो स्वयं भी मर जाओगे और यदि बलिदानियों का इतिहास पढ़ोगे और पढ़ाओगे तो अपना अस्तित्व बचाने में सफल रहोगे। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारा इतिहास बलिदानियों का इतिहास है और यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने ऐसे बलिदानी इतिहास को ‘मरे हुओं का इतिहास’ बनाये जा रहे हैं।
दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग से।
इस घर को आग लग गयी घर के चिराग से।।
बलिदानी इतिहास के लिए तथ्य स्थापित करना पड़ेगा कि शिवाजी ने धर्म की रक्षार्थ दस वर्ष तक मुसलमान रह चुके बालाजी निंबालकर और नेताजी पालकर को पुन: हिंदू बनाया था। औरंगजेब की जेल में लगभग 18 वर्ष बिताकर आये शम्भाजी के पुत्र शाहू को मराठों ने अपना नेता मानकर उनके नेतृत्व में पुन: संघर्ष आरंभ कर दिया था। इसी प्रकार दुर्गादास राठौड़ भी हिंदू जनता का अपने जीवन काल में सदा नायक बना रहा। इसी प्रकार गुरू हरगोविन्द सिंह ने शाहजहां की कैद में कुछ वर्ष बिताने के उपरांत भी बाहर आते ही हिंदू शक्ति का पुन: संचय करना आरंभ कर दिया था। ये सारे तथ्य कुछ बोलते भी हैं और कुछ पूछते भी हैं-पता नहीं हम कब इनकी सुनेंगे और कब इनके प्रश्नों के उत्तर देंगे? सर्वप्रथम तो कवि कर्म कामुकता बढ़ाने की प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाना अनिवार्य है। जिससे वीरों का बलिदानी इतिहास शोभायमान और सुशोभित हो।
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
-साहित्य संपादक)

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