हठ करके बलिदान देने की रही है भारत की अनूठी परंपरा

‘सदगुण विकृति’ करती रही हमारा पीछा
औरंगजेब ने अपने शासनकाल में चित्तौड़ पर कई आक्रमण किये, पर इस बार के आक्रमण की विशेषता यह थी कि बादशाह स्वयं सेना लेकर युद्घ करने के लिए आया था। मुगलों का दुर्भाग्य रहा कि बादशाह की उत्साहवर्धक उपस्थित भी युद्घ का परिणाम मुगलों के पक्ष में नही ला सकी। हमारे योद्घाओं ने औरंगजेब की सेना के बहुत से सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया। परंतु हम ‘सदगुण विकृति’ की पुरानी व्याधि का शिकार बने और अपनी सहिष्णुता व उदारता की भ्रांत और आत्मघाती नीतियों को अपनाकर औरंगजेब की पकड़ी गयी, सारी सेना को यूं ही छोड़ दिया, संभवत: इस आशा में कि अब ये लोग आगे नही करेंगे पर औरंगजेबी मानसिकता के लोगों ने आगे चलकर न केवल देश का विभाजन कराया, अपितु आज तक आतंकवाद मचाकर देश की शांति को भंग करने का परंपरागत प्रयास जारी रखे हुए हैं।
इतिहासकार आरमे इस घटना पर लिखता है-”औरंगजेब के साथ चलने वाली सेना को विवश कर दिया गया। वह न तो आगे की न पीछे की बाधाओं को हटा सकी। औरंगजेब की प्रिय पत्नी उदयपरी जो इस अभियान में उसके साथ चल रही थी, पहाड़ों के एक अन्य घेरे में रोक ली गयी। उसके साथियों एवं सेवकों ने अपने जीवन को संकट में जानकर समर्पण कर दिया। वह राणा के पास ले जायी गयी, जिन्होंने उसका बड़ा आदर सम्मान एवं सत्कार किया और उसका पूरा ध्यान रखा गया।
इसी बीच शासक औरंगजेब के भूखों मरने की स्थिति आ गयी तो राणा ने उन्हें दो दिन की कैद के बाद जाने दिया। जैसे ही औरंगजेब सुरक्षित स्थान पर पहुंचा, राणा ने उसकी पत्नी को अपने चुने हुए सरदारों के साथ भेजा और औरंगजेब से प्रार्थना की कि वह इसके बदले में हमारे धर्म के अनुसार पवित्र पशुओं का वध करने से बाज आये, परंतु औरंगजेब ने जो स्वार्थ के अतिरिक्त और किसी भी गुण से परिचित नही था राणा की दयालुता एवं सहनशीलता को भविष्य में बदले की भावना से प्रेरित मानकर युद्घ चालू रखा। पुन: वह शीघ्र ही पर्वतों के बीच में घेर लिया गया। इस बार की परेशानियों और अपनी शारीरिक स्थिति के कारण वह अपने पुत्र अजीम व अकबर के आ जाने के कारण उसने फैसला लिया कि वह इसके पश्चात युद्घस्थल में नहीं जाएगा, और अजमेर में रहकर ही इस युद्घ का संचालन करेगा। वह अपने परिवार, घरेलू सामान एवं अन्य अधिकारियों तथा अपने चार हजार अंगरक्षकों के साथ अजमेर में लौटा, तथा अपनी सेना को अपने दोनों पुत्रों में बांट दिया, जिनमें से प्रत्येक इसके अतिरिक्त अपने राज्य से अपनी सेना भी लेकर आया था।”
भारत के शासकों की दोषपूर्ण मानवीयता की भावना और लुंजपुंज त्रुटियों से भरी मानवतावादी भावना के कारण कई बार हमने ऐसी गंभीर भूलें कीं कि यदि वह ना की जातीं तो वह परिणाम संभवत: हमें बहुत पहले मिल गया होता जिसके लिए हमें लड़ते-लड़ते अभी और भी ढाई सौ वर्ष लग गये थे।
कर्नल टॉड ने भी आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा है-”त्रुटिपूर्ण मानवीयता की भावना के फलस्वरूप मुगलों की सत्ता पूरी तरह पदच्युत होने से बच गयी।”
खाट पर मरना लगता था अपमानजनक
‘सदगुण विकृतियों’ से जूझ रहे हिंदू मानस की जहां ये त्रुटियां थीं, वहीं उनका वीरता और पराक्रमी स्वभाव हमारे लिए सदा ही प्रातरस्मरणीय रहा है। उस काल में वीरता और पराक्रम के पालन और प्रदर्शन को लोग अपना सौभाग्य समझते थे। हमारे देश में विभिन्न मेलों का और अखाड़ों का आयोजन सल्तनत या मुगल बादशाहत के काल से होना प्रारंभ हुआ। एक प्रकार से यह भी युगीन आवश्यकता थी, जिसके पीछे भी एक अच्छा इतिहास है। मेलों और अखाड़ों के कारण लेागों को अपना बल प्रदर्शित करने का अवसर मिलता था जिसके लिए बहुत पहले से तैयारी की जाती थी, लोग अपने लडक़ों को एक गाय का पूरा दूध ुचुसा देते थे, जिससे उसके भीतर बल और बुद्घि की वृद्घि होती थी। गाय के दूध से सात्विक बल बुद्घि बढ़ते हैं। यही कारण था कि सात्विक बल-बुद्घि से युक्त होने के कारण हमारे लोगों को युद्घ-स्थल में क्रोध न आकर ‘मन्यु’ आता था।
क्रोध और मन्यु में भारी अंतर है। क्रोध क्रूरता का परिचायक है और मन्यु दुष्ट के संहार के लिए शरीर में उठे वीरता और पराक्रम के भाव का नाम है। इसीलिए ‘मन्युरसि मन्युर्मयि देहि’-अर्थात हे ईश्वर दयानिधे! आप दुष्ट संहारक मन्यु वाले हैं, इसलिए आप मुझे भी मन्यु प्रदान करो। आपकी भांति मैं भी दुष्ट संहारक बनूं।”
 अपनी इस परंपरागत प्रार्थना के कारण ही भारत के लोगों को कभी दुष्ट संहार में कोई अपराध करने की प्रीति नही हुई। औरंगजेब के काल में भारत के हिंदू समाज की दुष्ट संहारक शक्ति और भी प्रखर हो उठी थी।
एक इतिहासकार का कथन है कि-”संवत 1737 से लेकर (यह उस समय की ओर संकेत है जब महाराजा जसवंतसिंह की काबुल में मृत्यु हो गयी थी) अजीतसिंह के राज्यारोहण तक के 30 वर्षों तक निरंतर संघर्षशील घटनाओं पर एक दृष्टि डालें। किसी अन्य देश के इतिहास में ऐसी घटना ढूंढ़े से भी नहीं मिलेगी जो राठौरों की स्वामीभक्ति एवं समर्पण की तुलना कर सके। उस समय उनमें एक कहावत थी कि कोई भी सरदार खटिया पर पडक़र नही मरा।
उन लोगों को जो हिंदुओं की देशभक्ति के विषय में गलत धारणा रखते हैं, इन तीस वर्षों का इतिहास क्रमवार पढऩा चाहिए और इसकी अन्य देशों के साथ तुलना करके उदारचित्त वाले राजपूतों के साथ न्याय करना चाहिए।”
मेलों और अखाड़ों की चर्चा का रहस्य
ऊपर हम मेलों और अखाड़ों के विषय में चर्चा कर रहे थे। अब पुन: वही आते हैं। मेलों और अखाड़ों का प्रयोग यद्यपि भारत में प्राचीनकाल से होता आया है, परंतु मध्यकाल में इनका प्रचलन तेजी से बढ़ा। जिसका लाभ यह होता था कि लोग मेलों और अखाड़ों में एक दूसरे से अपना परिचय कर लेते थे और कई बार लोग इन स्थलों पर आकर परस्पर बैठकर अपने स्वातंत्रय समर को और भी बलवती करने के लिए अग्रिम योजना पर विचार कर लिया करते थे। इसलिए मेलों और अखाड़ों पर बादशाही सेना और गुप्तचर विभाग की विशेष निगरानी रहा करती थी।
मेलों और अखाड़ों के नाम पर लोग अपने युवा वीरों को बड़ी सावधानी से खिला पिलाकर तैयार करते थे और जैसे आजकल ‘कैंपस सैलेक्शन’ से बच्चे अपने कालेज से ही किसी अच्छे ‘जॉब’ के लिए चयनित कर लिये जाते हैं वैसे ही इन मेलों और अखाड़ों के दंगलों में अपना बल प्रदर्शित करने वाले युवकों को देशसेवा के लिए चयनित कर लिया जाता था। इस प्रकार ये मेले और अखाड़ों के दंगल देश भक्ति की पौधशाला थे, जहां से अच्छे हट्टे-कट्टे नवयुवक देशसेवा के लिए आगे आते थे। यह कितनी रोमांचकारी बात है कि खटिया पर मरना लोग अपमान मानते थे और जो युद्घ स्थल में मर रहा है उसे वह अपनी शान समझते थे?
मेलों और अखाड़ों के दंगलों में देशसेवा के लिए चयनित होने वाले नवयुवक सुदूर देहात के होते थे। जिन्हें उनके माता पिता बड़े उत्साह से तैयार करते थे। जिस देश में देवी (अर्थात राष्ट्रवेदी पर चढ़ाने के लिए) को प्रसन्न करने के लिए पहला पुत्र बलिदान करने की भी सद परंपरा विकसित हो सकती है वहां कुछ भी असंभव नहीं है। देवी के लिए पुत्र भेंट चढ़ाने की वास्तविक परंपरा को भुलाकर और इस पर विचार न करके हमने अपनी देशभक्ति के साथ अन्याय किया है।
हमारे देहात ने दिया क्रांतिकारियों का सदा साथ
सुदूर देहात का व्यक्ति जब अपने शासक केे साथ जुड़ जाता है और पूर्ण तादात्म्य स्थापित कर लेता है, तो उस समय किसी भी शासक के लिए बलिदानियों का अभाव नहीं हो पाता है। इसीलिए भारत के हर उस शासक के लिए कभी बलिदानी वीरों का अभाव नहीं हुआ जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए किसी भी प्रकार से संघर्ष किया। यह भी देखने योग्य बात है कि हमारे देश में मेलों-अखाड़ों के दंगलों का आयोजन भी आज तक वहीं होता है जहां कभी स्वतंत्रता के संघर्ष अधिक हुए थे। वास्तव में मध्यकाल में ये मेलों या अखाड़ों के दंगल हमारे स्वाधीनता संग्राम के प्रबल उद्योग स्थल थे, अर्थात उनकी पौधशाला थे। ऐसी पौधशालाएं जहां केवल राष्ट्रनिर्माण के लिए अपने सपूत तैयार करके सौंपे जाते हों विश्व के ज्ञात इतिहास में एक परंपरा के रूप में सदियों तक अन्यत्र नहीं मिलने वाले। यह कम बात नहीं थी कि हम अपने वीर पुत्रों का ‘कैंपस सलेक्शन’ पेट सेवा के लिए नही देश सेवा के लिए कराते रहे और निरंतर बिना किसी बाधा के और बिना किसी भय के सदियों तक कराते रहे।
हिन्दुओं की वीरता पर इतिहासकार की टिप्पणी
हिन्ंदुओं की वीरता के विषय ेंमें उपरोक्त इतिहासकार आगे लिखता है-”इस वर्णन की सरलता ही इसकी प्रामाणिकता एवं राजपूतों की नि:स्वार्थ एवं निर्बाध देशभक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है। यह वह समय था जब अत्याचारी राजाओं द्वारा इन सिद्घांतों का त्याग करने वाले को पुरस्कृत किया जाता था। इतना ही नही, ऐसा करने के लिए के लिए बड़े-बड़े प्रलोभन भी दिये जाते थे। परंतु ऐसी घटनाएं अति न्यून हैं जो इन वीरों की दास्तान का बखान करती हैं। राजपूतों के शानदार कारनामों की कितनी उत्कृष्ट दास्तान है-वीरवर दुर्गादास राठौर की। पराक्रम स्वामीभक्ति, सत्यनिष्ठा कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सहनशीलता, सावधानी समझदारी, विवेक आदि गुणों का समावेश उसके चरित्र की विशेषताएं थीं जो प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रशंसा करने को बाध्य करती थीं।”
पर दुर्गादास राठौर के विषय में भी हमारा मानना है कि उसके निर्माण में भी हमारे सुदूर देहात की वीरों की आपूत्र्ति करने की सुदृढ़ और सुंदर प्रशंसनीय व्यवस्था का ही योगदान था।
भारत का देहात और भारत के क्रांतिकारी महापुरूष
दुर्गादास राठौड़ जिस भव्य भवन के कंगूरे की ईंट बन गया था उसकी नींव तो सुदूर देहात से मिलने वाले वीरों की महान परंपरा पर टिकी थी। यह अलग तथ्य है कि दुर्गादास राठौड़ हों चाहे वीरवर शिवाजी महाराज सभी ने अपने अच्छे प्रदर्शन से भारत के पराक्रमी भवन की भव्यता और दिव्यता को और भी अधिक जगमगा दिया था। ये लोग नाम के भूखे नही थे, इन्हें देश की चिंता थी-इसलिए अपने आप में देशभक्ति की एक संस्था बन गये थे और उस युगधर्म के उस काल के दमकते हीरे बन गये थे, जिसमें खटिया पर मरना लोग अपना अपमान मानते थे।
औरंगजेब चिल्ला पड़ा था
कर्नल टॉड का कहना है-”इस राठौर नेता (दुर्गादास राठौर) की कितनी ही दंतकथाएं प्रचलित हैं। जो औरंगजेब को भयभीत करती रहती थीं। उनमें से एक बड़ी मनोरंजक है औरंगजेब ने अपने समय के दो दुर्दांत शत्रुओं के चित्र बनवाये थे -एक शिवाजी का, एक गद्देदार पलंग पर बैठे हुए दुर्गादास का। सामान्य स्थिति में घोड़े पर बैठकर अपने भाले की नोंक से मकई के डंठलों की आग पर जौ की रोटी सेंकते हुए। औरंगजेब ने दोनों पर दृष्टिपात किया और चिल्लाया-”मैं इस व्यक्ति (शिवाजी) को फंसा सकता हूं पर यह कुत्ता (दुर्गादास) तो मेरे विनाश के लिए ही उत्पन्न हुआ है।”
शिवाजी का पराक्रम और दुर्गादास की वीरता औरंगजेब के लिए चिंता का विषय बन गयी थी। इसका कारण यही था कि हिंदूवीरों ने चारों ओर औरंगजेब के शासनकाल में जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन को बल व गति प्रदान की थी, उन सबमें अधिकतर में दुर्गादास और शिवाजी का नेतृत्व कहीं न कहीं से झांक रहा था।
शिवाजी एक अव्यवस्था को ठीक करने की लड़ाई लड़ रहे थे। जिसके लिए इस देश की आत्मा कराह रही थी और उस कराहट को शिवाजी जैसे महापुरूषों और महान देशभक्तों के कान स्पष्टत: सुन व समझ रहे थे। उनके काल से लगभग सौ वर्ष पूर्व का वर्णन चैतन्य देव ने किया है, जिसमें हिंदुओं की दयनीय दशा को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
चैतन्य देव लिखते हैं-”बादशाह ब्राह्मणों को पकड़ लेता है, उन्हें धर्मभ्रष्ट करता है और मार भी डालता है। यदि किसी घर में शंख ध्वनि सुनाई पड़ती है तो उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है और कभी-कभी गृह स्वामी को बेघर कर दिया जाता है या उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है।” (जयानंद लिखित ‘चैतन्य मंगल’ से)
हिन्दू साधु संतों के साथ अमानवीय व्यवहार
‘मध्ुारा विजयम्’ की कवयित्री गंगा देवी ने कहा है-”म्लेच्छ प्रतिदिन हिंदुओं को धर्मभ्रष्ट करते हैं। देव मूत्र्तियों को तोडक़र खण्ड-खण्ड कर डालते हैं। श्रीमदभागवत गीता आदि धर्म शास्त्रों को जला डालते हैं। ब्राह्मणों से शंख, घंटा, घडिय़ाल छीन लेते हैं, और उनके शरीर में चंदन लीेप चाट लेते हैं। तुलसी वृक्ष पर कुत्तों के समान मूतते हैं, और हिंदू मंदिरों में पाखाना कर देते हैं। पूजा-पाठ करते हुए हिंदुओं पर मुंह में पानी भरकर थूकते हैं इस प्रकार पागलों जैसा व्यवहार हिन्दू साधु संतों के साथ करते हैं।”
मैथिली कवि विद्यापति बंगाल के सुल्तान गयासुद्दीन और नसीरूद्दीन के कृपापात्र रहे हैं, वह लिखते हैं :-”कभी-कभी यह लोग कच्चा मांस (मुस्लिम सैनिकों के लिए कहा जा रहा है) खा जाते हैं। शराब पीने के कारण इनकी आंखें सुर्ख रहती हैं। वह आधे दिन में बीस योजन भाग सकते हैं, पूरा दिन एक रोटी पर व्यतीत कर देते हैं। शत्रु के नगर की सभी स्त्रियों को छीन लेते हैं, …वह जहां से भी गुजरते हैं उस जगह के हिन्दू शासकों की रानियां बाजार में बिकने लगती हैं। वह नगरों को आग लगा देते हैं। स्त्रियों और बच्चों को घरों से निकाल देते हैं, और मार देते हैं। लूटपाट इनकी आमदनी का जरिया है, और उसी से उनका निर्वाह होता है। उन्हें न निर्बलों पर दया है और न बलशालियों से भय है। उनका सदाचार से कोई संबंध नहीं है। वचन पालन करना वे जानते ही नहीं। नेक नामी और बदनामी का उन्हें कोई भय नहीं है।”
हमने ये उद्घरण केवल इसलिए दिये हैं कि इनसे शिवाजीकालीन या उनसे पूर्व के भारत की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को समझने में सहायता मिल सकती है। इन परिस्थितियों ने शिवाजी का निर्माण किया और इन्हीं परिस्थितियों ने भारत की जनता को दीर्घकाल तक देश की रक्षा और धर्म की रक्षा के सपूत बलिदानी उद्योग स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। हमें उन परिस्थितियों में अपने पूर्वजों द्वारा किये गये ऐसे महान कार्यों पर गर्व है और गर्व ही होना चाहिए। विश्व के इतिहास की इस दुर्लभ घटना पर जितना लिखा जाए-उतना ही कम है और जितना गर्व किया जाए उतना गर्व भी कम है।
शिवाजी मिटाना चाहते थे दुखदायी व्यवस्था को
शिवाजी इस दुखद व्यवस्था को परिवर्तित कर देना चाहते थे। उनकी क्रांति का उद्देश्य था कि प्रचलित व्यवस्था क्र ांति की लपटों में धू-धू करके जल जाए और संपूर्ण भारतवर्ष में शांति और शौर्य (शास्त्र और शस्त्र) का उपासक भगवा फहर जाए। उनकी क्रांति शासक और शासन को किसी प्रकार की भ्रांति में नही रखना चाहती थी, अपितु स्पष्ट बता देना चाहती थी कि राष्ट,धर्म हमारा पहला उद्देश्य है और स्वराज्य की प्राप्ति हमारा अंतिम उद्देश्य है। शिवाजी ने देश की मनोभूमि को इसी उद्देश्य से अपने शौर्य रूपी हल से जोतना आरंभ किया, और उसमें यथासमय यथावश्यक बीजारोपण करते चले गये।
उस बीजारोपण का फल यह हुआ कि हम आज तक महाराष्ट्र से हिन्दुत्व की लहलहाती और फल देती फसल को काटते हैं। यह शिवाजी की महानता का स्पष्ट प्रमाण है।
कर्नल टॉड हिंदू वीरों के लिए लिखते हैं :-”ये भूमिपुत्र, जैसा कि वे अपने आप को मानते हैं अपने प्राचीन एवं सुव्यवस्थित अधिकारों तथा अविजित हठ से चिपके रहते हैं। इन्हें बचाये रखने के लिए पूरी की पूरी पीढिय़ां समाप्त हो गयीं, किंतु इन पर हुए अत्याचारों के अनुपात में इनकी शक्ति बढ़ती रही है। गजनी, गौरी, खिलजी, लोधी पठान, तैमूर और उत्साह भंग करने वाले मराठे आदि आज कहां हैं? किंतु देशी राजपूत आज भी फलफूल रहे हैं, चाहे उन्हें कितना ही दबाया गया और यदि इसमें इन आक्रांताओं के संसर्ग से उत्पन्न आंतरिक कलह न होता तो इन्होंने इन अत्याचारियों के खण्डहरों पर अपनी शक्ति स्थापित की होती।”
संघर्ष और केवल संघर्ष था हमारा राष्ट्रीय उद्घोष
जो देश महान विपत्तियों में संघर्ष करने की क्षमता रखते हैं और संघर्ष! केवल संघर्ष!! अंतिम क्षणों तक केवल संघर्ष!!! को अपना जीवन ध्येय बना लेते हैं वे हानि चाहे जितनी उठा लें और चाहे कितना ही दीर्घकालीन संघर्ष कर लें अंतिम विजय उन्हीं की होती है। शिवाजी महाराज और उनमें समकालीन हिंदू इतिहास नायकों ने अपने काल में जिस प्रकार भारतीय स्वातंत्रय समर का नेतृत्व किया उसका परिणाम यह निकला कि स्वतंत्रता संघर्ष की ज्योति दीप्तिमान बनी रही और हिंदुओं को नेतृत्वविहीनता की स्थिति का सामना करना नहीं पड़ा।
यद्यपि औरंगजेब ने भरसक प्रयास किया कि हिंदू शक्ति नेतृत्व विहीन हो जाए, इसके लिए उसने यत्र-तत्र हमारे राजा महाराजाओं को नपुंसक बनाकर क्षणिक सफलता भी प्राप्त की। परंतु वह देश की देशभक्त हिंदू प्रजा की देशभक्ति को समाप्त नहीं कर पाया, इसलिए जनता ने अपने मध्य से पंजाब में गुरूशक्ति को और वीर बंदा वैरागी को तो कहीं दुर्गादास राठौर को और कहीं शिवाजी को ढूंढ कर अपना नेता घोषित कर दिया। इस काल में शिवा और वैरागी जैसे अनेकों उपरोक्त राष्ट्रभक्तों का प्रताप मुगलों का संताप बनकर रह गया-सचमुच ऐसा संताप जिसमें मुगल वंश झुलस गया और फिर औरंगजेब के बाद उसके पास कोई दूसरा औरंगजेब पैदा नही हो सका।
 महलों के मध्य रहने वाले लोग प्रमादी और आलसी हो सकते हैं-परंतु जनता के मध्य रहने वाला व्यक्ति तो 24 कैरेट का शुद्घ सोना ही रहेगा, क्योंकि उसे पता होता है कि तेरे प्रमाद का जनता के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
कर्नल टॉड लिखता है :-”जब अनेक राष्ट्र विपत्ति और संकट के समान एक विदेशी को, जो हर बात में उनके प्रतिकूल तथा अधिकतर बातों में उनसे श्रेष्ठ हैं, युद्घ के समय अपनी सेना का नियंत्रण शांति के समय अपने सारे विवादों का निपटारा और अपनी नव अर्जित धन संपदा में भागीदार बनाने के लिए बाध्य किये जाते हैं, तब क्या होगा यदि प्रत्येक राजपूत अपने भाले को अपने कक्ष में टांग दे, अपनी तलवार की हल की फाली बना ले, अपनी ढाल की टोकरी बना ले, तो ऐसे में उसके समस्त सदगुणों के पराभव के अतिरिक्त और क्या होगा? महान होने, स्वतंत्र होने के लिए आवश्यक है-अपनी सैनिक वृत्ति को जीवित रखना।”
यह सौभाग्य है भारत का और हम भारतीयों का कि हमारे पूर्वजों ने संकट कालीन विषम परिस्थितियों में अपनी सैनिक वृत्ति को और भी अधिक धार दी। इनकी तलवार की चमक कभी फीकी नही पड़ी। अपनी रक्षा के लिए हठ करके और जानबूझकर बलिदान देने की अदभुत और अनोखी परंपरा केवल भारत के पास है, इसीलिए संपूर्ण भूमंडल में मेरा भारत महान है।
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
-साहित्य संपादक)

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