भारत जब-जब भी भारतीयता की और भारत केे आत्म गौरव को चिन्हित करने वाले प्रतिमानों की कहीं से आवाज उठती है, तो भारतीयता और भारत के आत्मगौरव के विरोधी लोगों को अनावश्यक ही उदरशूल की व्याधि घेर लेती है। अब मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने कहीं संस्कृत के लिए कुछ करना चाहा है तो उस पर भी संस्कृत विरोधियों ने शोर मचाना आरंभ कर दिया।
विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसके पास एक ऐसी भाषा संस्कृत के रूप में जीवित है, जिसे विश्व की समस्त भाषाओं की जननी होने का गौरव प्राप्त है। वस्तुत: विश्व में वास्तविक अर्थों में वैज्ञानिक भाषा यदि कोई है तो वह संस्कृत ही है, इसके अतिरिक्त अन्य भाषायें भाषा नही हैं, अपितु वे बोलियां हैं। भारत की संस्कृत के विषय में कुछ विदेशी विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-
मि. डब्ल्यूसी. टेलर का कथन है-”यह एक आश्चर्य जनक खोज है कि राज्य और समय के परिवर्तन के उपरांत भी भारत स्वामी रहा है-एक ऐसी अतुलनीय महान और विभिन्नताओं से भरी भाषा का, यूरोप में फैली समस्त भाषाओं की जननी भाषा का, जिन्हें यूरोपवासी बड़े गर्व से प्रतिष्ठित एवं शास्त्रीय भाषा कहते हैं जो ग्रीक भाषा के लचीलेपन एवं रोमन भाषा की शक्ति का स्रोत है। भारत के पास ऐसा दर्शन जिसकी तुलना में पाइथागोरस का दर्शन चिंतन की दृष्टि से कल की बात जैसा लगता है। प्लेटो के प्रयास भी निर्जीव एवं सामान्य से लगते हैं, भारत के पास ऐसा बुद्घिपूर्ण काव्य था जिसकी तुलना की हम कल्पना भी नही कर सकते थे। यह साहित्य अपने विराट अंश के साथ, शब्दाम्बरों के बिना भी वर्णित किया जा सकता है। यह अकेला खड़ा रह सकता है, इसमें अकेले खड़े रहने की क्षमता है।”
काउंट ब्जोर्नस्टजरना का कहना है-”भारत का (संस्कृत) साहित्य हमें प्राचीन काल के एक ऐसे महान राष्ट्र से परिचित कराता है, जो ज्ञान की प्रत्येक शाखा को कसकर पकड़े हुए है और मानवता की सभ्यता के इतिहास में सदैव ही एक विशिष्ट स्थान रखता है।”
प्रो. मैक्डोनल ने कहा है-”संस्कृत साहित्य के यूरोप पर बौद्घिक ऋण को कोई भी नही झुठला सकता। आगे आने वाले वर्षों में यह और भी महान प्रभाव डालेगा।”
प्रो. हीरेन का कहना है-”संस्कृत भाषा का साहित्य निर्विवाद रूप से उच्चकोटि के विद्वानों की देन है जिनके संबंध में हमारे पास यह मानने के प्रचुर कारण हैं कि वे लोग पूर्व के संबंध में सभी बातों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता थे। इसके साथ-साथ वह एक वैज्ञानिक तथा कवितामय साहित्य हैं।”
प्रो. मैक्समूलर का कथन है-”संस्कृत साहित्य के गं्रथों की संख्या जिनकी पाण्डुलिपि आज भी उपलब्ध है, दस हजार के लगभग है, मैं समझता हूं कि ग्रीक और इटली के सभी ग्रंथों की एक साथ रखने पर भी यह संख्या उनसे अधिक होगी।”
सरविलियम जोंस का कहना है-”मनुष्य का पूरा जीवन भी हिंदू साहित्य के किसी एक भाग से भी पूर्णतया परिचित होने के लिए पर्याप्त नही हैं।” श्रीमती सोनिया कहती हैं-”हिंदुओं के मस्तिष्क इतने अधिक विकसित थे जितना कि एक मानव के लिए संभव है।”
रोवे वार्ड का कहना है-”कोई भी युक्तिवान पुरूष प्राचीन काल के हिंदुओं की महान विद्वता की प्रशंसा किये बिना नही रह सकता। उन विषयों की विविधता जिन पर उन्होंने लिखा है, को देखकर यही कहा जा सकता है कि वे लोग प्रत्येक ज्ञान विज्ञान से पूर्ण रूपेण परिचित थे।” संस्कृति की प्रशंसा में विदेशियों ने जितना लिखा है उतना बताने के लिए यह आलेख उतना ही छोटा होगा। जितना एक सागर के लिए एक गागर छोटा पड़ जाया करता है। हमारे संस्कृत साहित्य की विशेषता है कि यह हमें उत्कृष्टतम चिंतन देता है और बताता है कि विश्व में हम कितने उत्कृष्ट ज्ञान के स्वामी रहे हैं।
एक हम ही रहे हैं जो आदि मानव समाज को उत्कृष्ट ज्ञान का स्वामी मानते हैं और आज के वर्तमान वैज्ञानिकयुग को उस ऋषियुग के समक्ष बहुत ही तुच्छ मानता है। हम उन्नति में रहे। मानव समाज को अवन्नति से निकालकर पुन: उन्नति के सोपानों की ओर बढ़ाने का प्रयास करते हैं और वे आज की उन्नति को ही मानव की अभूतपूर्व उन्नति मानते हैं। इसका कारण है कि आज आर्थिक उन्नति को ही मनुष्य की वास्तविक उन्नति मान लिया गया है, हमारे यहां मनुष्य की आत्मोन्नति को ही वास्तविक उन्नति माना जाता था। आत्मोन्नति में भावों की पवित्रता और निर्मलता को अधिक वरीयता दी जाती है जबकि अर्थोन्नति में भाव चाहे जितने प्रदूषित हों पर वाणी में वाकचातुर्य झलकना अनिवार्य है यहां आशय (इरादा-ढ्ढठ्ठह्लद्गठ्ठह्लद्बशठ्ठ) छिपाया जाता है और हमारे द्वारा आशय को समझाया जाता है, यह मौलिक अंतर है-वैज्ञानिक भाषा और बनावटी भाषा में, और आत्मान्नति एवं अर्थोन्नति में। भारत स्वतंत्रता के पश्चात भाषा को लेकर जिस संशय के पालने में झूलता रहा है, वह संशय ही इस आध्यात्मिक राष्ट्र की वर्तमान दुर्दशा का कारण है।
यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें विदेशी बताते हैं कि सर आपकी भाषा विश्व की समस्त भाषाओं की जननी है, यह ज्ञान विज्ञान का अक्षय स्रोत है और मानवता इसके बिना अपंग है, लंगड़ी है, अपाहिज है।ज्.और हम स्वीकृति में इस प्रकार ग्रीवा हिलाते हैं कि कोई देख ना ले। क्योंकि यदि स्वीकृति में ग्रीवा हिलाते भी देख लिया तो कहीं ऐसा ना हो कि हम पर साम्प्रदायिक या भगवावादी होने का आरोप लग जाए। इसी भय और संकोच के कारण हमने अपनी भाषा को साम्प्रदायिक बना दिया, जबकि विश्व का शुद्घतम और उत्कृष्टतम मानवतावाद यदि कहीं है तो वह संस्कृत साहित्य में है। अन्य ग्रंथों में ‘साम्प्रदायिक मानवतावाद’ है। ‘साम्प्रदायिक मानवतावाद’ एक नया शब्द हो सकता है, पर यह सच है कि ऐसी विचारधाराएं भी हैं, जो साम्प्रदायिक मानवतावादी हैं, और वह विश्व को नष्ट करने पर तुली हैं।
यह अत्यंत प्रशंसनीय कार्य होगा कि संस्कृत को विश्वात्मा भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए भारत में सम्मान दिया जाए। हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी हो सकती है, पर विश्व को योग का रहस्य समझाकर आत्मा परमात्मा का मिलन कराने वाली भाषा तो संस्कृत ही हो सकती है। यदि विश्वपटल पर ‘योगरहस्य’ की बात भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उठा सकते हैं तो उनसे आगे के लिए आशा की जाती है कि वह संस्कृत को ‘विश्वात्मा भाषा’ के रूप में भी मान्यता दिलाने की बात करेंगे। कितने गौरव की बात है कि जर्मनी का महान संस्कृत प्रेमी डा. लुडविग अपने जीवन भर की कमाई (लगभग साठ लाख रूपया) को संस्कृत केे विकास के लिए दे गया। यह राशि उस महान आत्मा ने डी.ए.वी. कालेज कमेटी को और विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान होशियारपुर को प्रदान की थी। सेंट पीटर्स वर्ग लैक्सिकन ने (सात खण्डों के लगभग पंद्रह हजार पृष्ठों में) संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी के संस्कृत प्रचार में जो महान योगदान दिया वह भी हम भारतीयों के लिए शिक्षाप्रद है। भारत में संस्कृत का विरोध नही है, विरोध है-भारत की निजता का और भारत के गौरवपूर्ण अतीत का। इसलिए प्रयास किया जाता है कि भारत को निजता और आत्मगौरव का बोध होने से रोका जाए। शेर सयारों में घास दाना तो चुगता रहे पर उसे अपने शेरत्व का बोध ना हो। देखते हैं कि यह षडयंत्र कब तक चलता है?

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