देश की संसद और हमारे माननीय

देश की संसद के प्रति पक्ष-विपक्ष की लापरवाही बढ़ती ही जा रही है। सत्ता पक्ष का कहना है कि संसद में विपक्ष अपनी सही भूमिका का निर्वाह नहीं कर रहा है, और वह संसदीय कार्यवाही में अनावश्यक व्यवधान डाल रहा है, तो विपक्ष का कहना है कि संसद को चलाना सत्ता पक्ष का कार्य है -इसलिए संसद सुचारू रूप से चले इसकी जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की है।

माना कि संसद को चलाना सत्ता पक्ष की जिम्मेदारी है, पर संसद चले और वह देश के विधायी कार्यों का सही ढंग से निष्पादन करें- यह सुनिशिचत करना विपक्ष का भी काम है। अत: संसद को चलाने में विपक्ष भी सत्ता पक्ष के बराबर ही जिम्मेदार होता है। पर संसद का चालू सत्र जिस प्रकार हंगामे, शोर-शराबे और फिजूल की बातों की भेंट चढ़ता जा रहा है -उससे लगता है कि विपक्ष को देश की चिंता नहीं है। यह कितना लज्जास्पद है कि जिस संसद की कार्यवाही पर प्रतिदिन देश की जनता का 9 करोड रुपया व्यय होता हो- उसकी कार्यवाही को सारा देश कदमताल करते देख रहा है। इस स्थिति को देखकर हमारे देश के प्रत्येक गंभीर व्यक्ति को तो लज्जा आ रही है परंतु हमारे जनप्रतिनिधियों को नहीं आ रही है।

विदुर ने महाभारत में एक स्थान पर कहा है कि सभा (संसद) में उपस्थित होकर जो धर्मदृष्टा व्यक्ति अपनी सम्मति प्रकट नहीं करता और उसके ऐसा न करने से जो असत्य निर्णय होता है, तो ऐसी सम्मति प्रकट न करने वाला व्यक्ति उसके आधे फल का भागी होता है, और जो सभा में उपस्थित होकर अपनी सही सम्मति प्रकट करके अन्यथा भाषण देता है, उसके कारण असत्य निर्णय होने पर वह उसके पूरे फल का भागी होता है। इसलिए हमारे नीतिकारों ने यह भी कहा है कि या तो सभा में जाएं ही नहीं, और यदि जाएं तो वहां सोच समझकर अपनी सम्मति प्रकट करनी चाहिए। जो व्यक्ति सभा में जाकर चुप रहता है, या असत्य बात कहता है, या केवल निंदा और अनर्गल आलोचनाओं में लगा रहता है, या अपने नेता के डर से, पार्टी के अनुशासन के भय से राष्ट्रहित में बोलने से संकोच करता है, और दलगत हितों को राष्ट्रीय हितों पर वरीयता प्रदान करता है वह पाप का भागी बनता है।

नीतिकारों की यह नीति हमारे गांव -देहात के लोगों में तो आज भी अपनाई जाती है, जहां लोग पंचायत में जाकर न्यायसंगत और तर्कसंगत बात कहने का प्रयास करते हैं- परंतु यह बात देश के जनप्रतिनिधि याद नहीं रखते। यह तो देश के विधान मंडलों में या तो मुख्य मुद्दों से अलग हटकर अर्नगल शोर मचाते हैं, या फिर अपने नेता के या पार्टी के अनुशासन के भय से सत्य बोलने से बचते हैं, और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर दलगत हितों को वरीयता देते हैं। इससे स्पष्ट है कि यह सारे के सारे ही पाप के भागी हैं, इनपर देश की जनता के धन का दुरुपयोग करने और सभाओं में मौन रहने या असत्य निर्णय होने देने में सहभागी होने का गंभीर आरोप है। माना कि इस प्रकार के आरोपों का आजकल कोई मूल्य नहीं है, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि इन लोगों की बनाई गई अदालतों से बड़ी एक अदालत और भी है- जहां दूध का दूध और पानी का पानी होता है, और वह अदालत ईश्वर की है- जहां इन्हें कोई भी अपराधी होने से रोक नहीं पायेगा।

यह पार्टीबाजी और अनर्गल शोर-शराबे की सारी बातें तो इसी अदालत (संसद) की बातें हैं -वहां तो घोर सन्नाटा होगा और उस सन्नाटे में हर व्यक्ति केवल उन्हीं शब्दों को सुन रहा होगा जो इनके अपराध को तस्दीक कर रहे होंगे।

महाभारत में ही शांति पर्व में संसद शब्द का प्रयोग किया गया है। इस संसद के विषय में युधिष्ठिर ने भीष्म से प्रश्न किया कि जब संसद में कोई मूढ़ या प्रगल्भ व्यक्ति किसी मृदु या विद्वान व्यक्ति पर तीक्ष्ण रूप से वार करें तो उसे क्या करना चाहिए? युधिष्ठिर का यह प्रश्न समझो कि आज के हमारे माननीयों के लिए ही पूछा गया था। यद्यपि उस समय संसद में ऐसे लोगों की संख्या दो-चार ही होती थी, पर आज तो वर्चस्व ही इनका हो गया लगता है। युधिष्ठिर के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भीष्मपितामह ने कहा- ऐसे गर्हित व्यक्ति के कथन की उसी प्रकार उपेक्षा कर देनी चाहिए- जैसे कि रोगी के प्रलाप की की जाती है। ऐसा व्यक्ति जनता में बदनाम हो जाता है, और उसके प्रयत्न निष्फल जाते हैं, ऐसा अल्पमति व्यक्ति जो कुछ भी कहे उसको सहना ही ठीक है, उस द्वारा की गई प्रशंसा और निंदा से क्या बनता है, और क्या बिगड़ता है? उसका प्रवचन वैसे ही निरर्थक होता है- जैसे जंगल में कौए का बोलना निरर्थक होता है।

भीष्म का कथन स्पष्ट करता है कि उस समय ऐसे लोगों की जनसाधारण में बदनामी होती थी, पर क्या आजकल ऐसा है? सच बात यह है कि आजकल तो संसद में व्यवधान डालने वाले और अनर्गल बकवाद करने वाले जनप्रतिनिधियों को जनता में मुखर वक्ता कहा जाता है, उसे फूलों के हारों से इस प्रकार लाद दिया जाता है कि जैसे उसने कितना बड़ा युद्ध जीत लिया है। लोग या तो मुखर वक्ता का अर्थ नहीं जानते या अर्नगल बकवाद को ही उन्होंने मुख्य वक्ता होने का प्रमाण मान लिया है। जनता को भी अपना दोष स्वीकार करना चाहिए। यदि संसद में अनर्गल बकवाद करने वाले जनप्रतिनिधियों की जनता उपेक्षा करने लगे और उन्हें जनता के बीच आकर बदनामी झेलनी पडऩी लगे तो संसद और देश के राज्यों के विधान मंडलों में जो कुछ हो रहा है इस से बचा जा सकता है।

हमारे विधानमंडलों के लिए यह नीति बननी चाहिए कि देश के विधायी कार्यों में व्यवधान डालने वाले जनप्रतिनिधियों का वेतन काट लिया जाएगा, और जिन दिनों में वह संसद या किसी राज्य के विधानमंडल कार्यों में व्यवधान डालते पाए जाएंगे, उन दिनों के उनके भत्ते भी नहीं दिए जाएंगे। सत्ता पक्ष के लिए भी यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह विपक्ष के विचारों का, प्रस्तावों का और सुझावों का राष्ट्र हित में सम्मान करेगा, और उन्हें उचित स्थान देकर विपक्ष का सम्मान करेगा। दोनों पक्षों के लिए यह अनिवार्य हो कि संसद के भीतर पार्टी का व्हिप या अनुशासन या नेता का भय अपनी पार्टी के सांसदों या विधायकों पर नहीं होगा। उनके अन्त:करण में उभरने वाले विचारों को बिना किसी भय और पक्षपात के बिना किसी राग और द्वेष के प्रकट होने दिया जाएगा। जब लोकतंत्र में बिना किसी भय और पक्षपात के या बिना किसी राग और द्वेष के अपने विचार प्रकट करने की बात सांसदों और विधायकों के लिए कदम-कदम पर कही जाती है तो फिर उनके ऊपर पार्टी के नेता के व्यक्तित्व का भय और पार्टी के अनुशासन की तलवार क्यों लटकी रहती है? आखिर यह लोग हमारे जनप्रतिनिधि हैं या किसी नेता या पार्टी की खरीदी हुई जमीरें हैं? समय आ गया है कि अब या तो जनप्रतिनिधियों को बिना किसी भय और पक्षपात के या बिना किसी राग और द्वेष के पार्टी के नेता के भय को और पार्टी के अनुशासन को हटाकर खुलकर बोलने दिया जाए, या फिर यह स्पष्ट कह दिया जाए कि यह जनप्रतिनिधि जनता के प्रतिनिधि न होकर एक नेता की या एक पार्टी की बपौती है। यह खरीदी गई जमीरें हैं?

लोकतंत्र को बंधक बनाकर रखने की परंपरा पर अब पूर्ण रूप से विराम लगना चाहिए। प्रतिबंधों में जकड़े हुए लोकतंत्र से देश का भला नहीं हो रहा है- यह लोकतंत्र देश के लिए तो बोझ बनता जा रहा है। देश की जनता को अपने विषय में निर्णय लेने का अधिकार है, तो वह अपने प्रतिनिधियों को संसद में राष्ट्रहित में बोलते हुए भी देखना चाहती है। यदि आज भाजपा की सरकार को काँग्रेस नहीं चलने देना चाह रही है तो कल को केंद्र में उसकी सरकार आने पर भाजपा उसके साथ ऐसा ही करेगी। इस प्रकार ये दोनों पार्टियां प्रतिशोध की राजनीति में लगी रहेंगी और देश के लोगों की खून पसीने की कमाई संसद की कार्यवाही पर व्यर्थ में ही व्यय होती रहेगी। देश के लिए यह काल संक्रमण का काल है। इसमे बहुत कुछ पुराना हटाना है और नए की नींव रखनी है। अच्छी बातों की नींव रखने में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को गर्व होना चाहिए, इसलिए संसद चले और संसद के साथ साथ देश भी आगे बढ़े- दोनों पक्ष जितना शीघ्र बैठकर यह सुनिश्चित कर लेंगे उतना ही राष्ट्रहित में उचित होगा। हमें उचित और न्यायसंगत परम्पराओं के लागू करने में किसी प्रकार की झिझक का परिचय नहीं देना चाहिए।

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