गीता का चौथा अध्याय और विश्व समाज

अर्जुन! तुझे याद रखना चाहिए कि जो व्यक्ति सहज प्राप्त वस्तु से सन्तुष्ट है, सुख-दु:खादि द्वन्द्वों से दूर है उनसे परे हो गया है अर्थात उन्हें अपने पास फटकने तक नहीं देता और न स्वयं उधर कभी जाता हुआ देखा जाता है अर्थात चोरी करते हुए देर सवेर स्वयं भी इन द्वन्द्वों के द्वार पर दुष्टकर्मों की दारू खरीदता हुआ नहीं देखा जाता और जो ईष्र्या भाव से रहित हो गया है, जिसे किसी से कोई ईष्र्याभाव नहीं है, सफलता असफलता में सदा एक सा रहता है, अर्थात समभाव बरतता है, वह कर्म करता हुआ भी कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि अपने कर्मों को यज्ञीय बनाओ। यज्ञीय भाव से जीवन जीने के अभ्यासी बनो। फल के संग का त्याग करो। अपने चित्त को सदा ज्ञान में अवस्थित रखने की साधना करते रहो। यदि ऐसा करते रहोगे तो तुम्हारे सब कर्म विलीन होते जाएंगे। फलस्वरूप जीवन सुख और आनन्द का पर्याय बन जाएगा।
जो लोग साधनाशील होते हैं, तपे-तपाये और सधे-सधाये होते हैं, उनके सामने संसार के लोग शीश झुकाते हैं।
सधे-सधाये नरन को करे नमन संसार।
ऊंची होती साधना ऊंचे होत विचार।।
आजकल के भगवाधारी सन्तों के (जो कई बार दुश्चरित्र और आचरण हीन ही होते हैं) सामने लोग झुकते ही नहीं हैं, उनके चरणों में लोट जाते हैं। जैसे कि संसार से मुक्ति इन्हीं के द्वारा मिल सकेगी। लोगों की ऐसी प्रवृत्ति का एक सकारात्मक पक्ष भी है और वह ये कि लोगों के भीतर एक सच्चे तपस्वी सन्त की आज भी चाह है। उन्हें कोई ‘योगेश्वर श्रीकृष्ण’ चाहिए जो उन्हें उनके ‘महाभारत’ में ‘गीता’ का सन्देश और उपदेश सुना दे और उन्हें जीवन्मुक्त कर दे। वे किसी कृष्ण के श्रीचरणों में अपने बोझ बन गये जीवन को अर्पित कर देना चाहते हैं। यही कारण है कि उन्हें जब भी कोई सन्त, महात्मा या भगवाधारी पुरूष दिखायी देता है वे उसके चरणों में लेट जाते हैं। संसार के सब के सब लोग ‘अर्जुन’ बने घूम रहे हैं पर उन्हें ‘श्रीकृष्ण’ नहीं मिल रहा। मिलेगा भी क्यों? जब उन्होंने अपने कृष्ण को छलिया बना दिया है तो उनके सामने अब जितने भी ‘भगवाधारी कृष्ण’ आ रहे हैं वे सबके सब छलिया सिद्घ होते जा रहे हैं। हम अपवादों का सम्मान करते हैं, उनके दिल को चोट पहुंचाना हमारा लक्ष्य नहीं है। हमारा लक्ष्य उन लोगों पर है जिन्होंने उन अपवादों को भी हेय बना दिया है। कैसा दुर्भाग्य है इस देश का और मानव जाति का भी किजहां से यथार्थ ज्ञान की गंगा बहती थी वहां आज ‘छलियों’ की उपासना सिखाई जा रही है। ऐसे दुष्टों के विनाश के लिए श्रीकृष्णजी को निश्चय ही जन्म लेकर अपना सुदर्शनचक्र घुमाने की आवश्यकता है।
यज्ञ में लोगों की भावनाएं
श्रीकृष्ण जी का कहना है कि सब कुछ ईश्वर को अर्पण करके कर्म करने से ही आनन्द की प्राप्ति होती है। अर्जुन यज्ञ में स्रुवा, हवि, होम आदि जो भी कुछ तुझे दिखायी देता है-उसे ब्रह्म ही जान। सब ओर ब्रह्म ही का नाद और ब्रह्म ही का घोष होता सुन। ब्रह्म रूपी कर्म की समाधि द्वारा ब्रह्म ही को प्राप्त करने का अभ्यासी बन। जिससे तू कर्मबन्धन की शिथिलता का आनन्द लेने लगेगा। ब्रह्माग्नि में यज्ञ द्वारा ही यज्ञ करने का अभ्यासी बन।
व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों को संयमित करने व रखने का अभ्यासी बने। ‘संयमाग्नि’ में यज्ञ करने के अभ्यासी बनें। कुछ लोग संसार में ‘इन्द्रियाग्नि’ को जलाये रखते हैं। जिससे वह झुलसते जाते हैं और अपना सर्वनाश करके ही चैन लेते हैं। इनसे उत्तम वही होते हैं जो ‘आत्मसंयमाग्नि’ में इन्द्रियों के तथा प्राणों के सब कर्मों को ज्ञान से प्रदीप्त कर होम कर देते हैं।
संसार में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आत्म संयमाग्नि में बैठकर अपने दुर्विचारों को तथा दुष्प्रवृत्तियों को शमित करते रहते हैं। वे चुन-चुनकर अपने दोषों को और बुराईयों को आत्म संयमाग्नि में डालते जाते हैं और अपने जीवन को सोने से कुन्दन में बनाते जाते हैं। वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर धीरे-धीरे चोट मारते जाते हैं और जैसे स्वर्णकार सोने-चांदी पर धीरे-धीरे चोटों का प्रहार कर उनसे नये-नये आभूषण तैयार कर लेता है वैसे ही विवेकशील लोग अपनी दुष्प्रवृत्तियों के सोने को सद्प्रवृत्तियों के कुन्दन में परिवत्र्तित कर लेते हैं।
इनका जीवन बहुत ही पवित्र और अनुकरणीय होता है। ऐसे साधक लोगों की उपस्थिति से सभा की गरिमा बढ़ती है। उनके रहने से उनका कुल, परिवार, समाज और राष्ट्र उन्नति करते हैं और सम्पूर्ण मानवता उनसे लाभान्वित होती है। उनकी उपस्थिति से जीवन और जगत दोनों ही लाभान्वित होते हैं, उनका कल्याण होता है। आज के संसार में ऐसे ‘आत्म संयमाग्नि’ में तपते लोगों का लगभग अकाल सा ही पड़ गया है। जिससे मानवता इस समय उत्पीडऩ का शिकार हो रही है। सर्वत्र अशान्ति और कोलाहल व्याप्त है।
जिन लोगों के तप, संयम और त्याग से मानवता लाभान्वित होती है उनके ऐसे व्रत को श्रीकृष्ण जी ने ‘तीक्ष्णव्रत’ कहा है। वह कहते हैं कि कुछ यति लोग अपनी भौतिक संपत्ति का होम करके द्रव्य यज्ञ करते हैं, कुछ यति तपस्या करके तपो यज्ञ करते हैं, तो कुछ यति योग विद्या का अभ्यास करके ‘योग यज्ञ’ करते हैं। जबकि कुछ यति लोग स्वाधाय करके ज्ञान यज्ञ करते हैं। इन सबके इन पवित्र कार्यों से सबका भला होता है, सबका लाभ होता है, इसलिए ऐसे पवित्रात्मा ज्ञानीजनों का सदा बने रहना संसार के लिए अति आवश्यक होता है।
श्रीकृष्णजी यज्ञ को रूढिग़त अर्थों और सन्दर्भों से मुक्त कर उसे विस्तार दे रहे हैं। उनके मत में यज्ञ को सीमित और संकीर्ण अर्थों में न लेकर उसकी वास्तविक भावना के अनुरूप लेने और समझने की आवश्यकता होती है। यज्ञ को सभी रूप से समझने से संसार में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। जिससे सांसारिक परिवेश को सकारात्मक बनाने में सहायता मिलती है। गीता का मानना है कि प्राणायाम के माध्यम से भी प्राणायाम में प्रवीण लोग यज्ञ करते हैं। उस अवस्था में प्राण और अपान की गति को रोक कर प्राण का अपान में तथा अपान का प्राण में होम करते हैं। गीता की इस मान्यता का अभिप्राय ये है कि यज्ञ का वास्तविक उद्देश्य मानव कल्याण है। अत: जिस कार्य से मानव का और मानवता का कल्याण हो वह यज्ञ ही है। प्राणायाम की साधना से व्यक्ति जितेन्द्रियता की स्थिति को धीरे-धीरे प्राप्त करने लगता है। उसका अपने मन पर अधिकार स्थापित होने लगता है। फलस्वरूप यज्ञ जैसा ही लाभ उस साधक को प्राणायाम के माध्यम से मिलने लगता है। प्राणशक्ति के माध्यम से मन वश में आने लगता है और सारे विषय विकारों का मचता हुआ ताण्डव धीरे-धीरे शान्त होने लगता है। विषय विकारों के शान्त होने से मानसिक शान्ति और आत्मिक बल की प्राप्ति होती है। प्राणशक्ति की प्रबलता से शरीर सुदृढ़ होने लगता है, आत्म विश्वास में आशातीत बढ़ोत्तरी होती है और व्यक्ति आत्मबल से सराबोर होने लगता है।
क्रमश:

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