गीता का अठारहवां अध्याय

अठारहवें अध्याय में गीता समाप्त हो जाती है। इसे एक प्रकार से ‘गीता’ का उपसंहार कहा जा सकता है। जिन-जिन गूढ़ बातों पर या ज्ञान की गहरी बातों पर पूर्व अध्याय में प्रकाश डाला गया है, उन सबका निचोड़ इस अध्याय में दिया गया है।
एक अच्छे लेखक की अपनी विशेषता भी यही होती है कि वह अपनी पुस्तक के प्रतिपाद्य विषय को अन्त में उपसंहार के रूप मे अवश्य स्पष्ट करे, जिससे कि हर पाठक पर अच्छा प्रभाव जा सके।
इस अन्तिम अध्याय में अर्जुन ने ‘संन्यास’ तथा त्याग का पृथक तात्विक रूप क्या है? यह कहकर चर्चा आरम्भ कर दी है। अर्जुन के इस प्रश्न पर श्रीकृष्णजी ने कहा कि बुद्घिमान लोग काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास कहते हैं और सब कर्मों के फलों के त्याग को विद्वान लोग त्याग कहते हैं।
गीता यद्यपि युद्घ के मैदान में दिया गया ज्ञानोपदेश है, परन्तु इस सबके चलते भी गीता में आश्चर्यजनक ढंग से समन्वयात्मक दृष्टि दिखायी देती है। इसमें सर्वत्र समन्वय का भाव है। युद्घ के मैदान में भी किसी प्रकार की पूर्वाग्रही बुद्घि का गीता में न दिखना और न्याय संगत बुद्घिसंगत, तर्कसंगत और विवेकसंगत बातों का और संवादों का होना गीता को विश्व का दुर्लभ ग्रन्थ बनाती है। युद्घ की परिस्थितियों में ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान विश्व के किसी भी देश के पास नहीं है, जैसा गीता में दिया गया है। यदि गीता जैसा ज्ञान विदेशों में किसी ‘कृष्ण’ द्वारा वहां के ‘अर्जुन’ को दिया जाता तो उसकी बुद्घि पूर्वाग्रही हो सकती थी, यह उत्तेजक परिस्थितियों में शत्रु पक्ष के जनसाधारण के संहार की शिक्षा भी दे सकता था या शत्रु पक्ष के लोगों के घरों में आग लगाने की खुली छूट अपने अर्जुन को दे सकता था, उन्हें लूटने और उनकी पत्नियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने की सलाह दे सकता था। पर कृष्णजी ने कहीं भी ऐसी कोई सलाह अर्जुन को नहीं दी। इससे गीता युद्घ के बीच में भी मर्यादा और संतुलन बनाये रखने की शिक्षा देती है। युद्घ में मर्यादा और संतुलन का बनाये रखना ही महाभारत को धर्मयुद्घ बनाती है। ऐसी उत्कृष्ट नैतिक व्यवस्था केवल भारत में ही मिलना सम्भव है।
अपनी इसी विशिष्टता के कारण गीता विश्व के सभी धर्मग्रंथों में उत्कृष्ट है। इसका कारण यही है कि ये ईश्वरीय वाणी वेदवाणी जैसे उत्कृष्टतम धर्मग्रन्थ के अमृत मोतियों से बनी हुई माला है। जिसे जिस गले में भी डाला जाएगा वही सज उठेगा।
श्रीकृष्णजी कहते हैं कि कुछ मनीषियों का कथन है कि कर्म सदा दोषमुक्त होता है-उनका मानना है कि कर्म में दोष रहना ही है, उसे दोषमुक्त किया ही नहीं जा सकता अत: दोषयुक्त कर्म का त्याग कर देना ही उचित है। जो लोग भक्ति के नाम पर निकम्मे और निठल्ले होकर बैठते हैं वे गलती ही करते हैं। इससे वह यज्ञ, दान, तप और कर्म का त्यागकर निकम्मे होकर बैठ जाते हैं। जबकि गीता की दृष्टि में यह निकम्मापन सर्वथा अक्षम्य है। श्रीकृष्ण जी का कहना है कि यज्ञ, दान, तप और कर्म का कभी भी और किसी भी स्थिति में त्याग नहीं करना चाहिए।
श्रीकृष्णजी की मान्यता है कि त्याग भी सत्व, रज और तम इन तीन प्रकार का होता है। यज्ञ, दान, तप और कर्म कभी भी त्याग करने योग्य नहीं होते हैं। अत: इनका त्याग करने के विषय में मनुष्य को सोचना भी नहीं चाहिए। इन्हें करने में किसी प्रकार के आलस्य या प्रमाद का सहारा नहीं लेना चाहिए। इन्हें तो करना ही चाहिए। क्योंकि यज्ञ, दान, तप और कर्म के करने से तो विद्वान भी पवित्र हो जाते हैं।
सभी कर्मों को फल की आशा से मुक्त होकर अर्थात अनासक्ति भाव से यदि किया जा सकता हो तो उन्हें अवश्य ही पूर्ण करना चाहिए। हे पार्थ यह मेरा निश्चित और अन्तिम मत है।
हमारे शास्त्रों ने ब्रह्मचारियों, गृहस्थियों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए जिन कर्मों को विहित कर दिया है अर्थात यह कह दिया है कि ये कर्म तो इन्हें करने ही चाहिएं-वे कर्म उन्हें त्यागने नहीं चाहिएं। यदि फिर भी उन्हें कोई व्यक्ति त्यागता है तो उसका यह कार्य तामस त्याग कहलाता है।
जो व्यक्ति किसी भी नियत कर्म का इसलिए त्याग करता है कि उसके करने से उसे मानसिक कष्ट होता है-या शारीरिक कष्ट होता है, या ऐसे किसी कष्ट के होने की सम्भावना है, भय है तो वह राजस त्याग कहलाता है। ऐसे व्यक्ति को त्याग का कोई लाभ नहीं मिलता है।
योगेश्वर श्रीकृष्णजी ने कहा है कि हे पार्थ! जो व्यक्ति अपने लिए शास्त्रविहित कर्म को इसलिए करता है कि ऐसा करना उसका कत्र्तव्य है और अपने कत्र्तव्य कर्म के करने में आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा को वह बाधा मानता ही नही है, कष्ट को कष्ट नहीं मानता, अपितु अपने कत्र्तव्य कर्म को फलाशा और आसक्ति से मुक्त होकर कर डालता है-उसका यह त्याग सात्विक त्याग कहलाता है।
‘फलाशा’ और ‘आसक्ति’ को गीता कर्म का दोष मानती है। यदि इन दोनों का त्याग कर दिया जाए तो ‘सात्विक त्याग’ का भाव उत्पन्न हो जाता है।
जो व्यक्ति किसी अप्रिय कर्म से अर्थात न करने योग्य कर्म से घृणा नहीं करता, ऐसे कर्म को हेय और त्याज्य भाव से नहीं देखता और ऐसे घृणा के योग्य कर्म को छोडक़र किसी प्रिय कर्म में अनुरक्त नहीं हो जाता है-
वह व्यक्ति ही वास्तविक अर्थों में त्यागी है, सत्वगुणी है और संशय से रहित मेधावी बुद्घि का धनी है।
गीता का मानना है कि व्यक्ति को अपने कत्र्तव्य कर्म के प्रति सदैव सावधान और सचेत रहना चाहिए। यह देखते रहना चाहिए कि कौन सा कर्म मेरे लिए किये जाने योग्य है और कौन सा नहीं? यदि अन्तरात्मा किसी कार्य को करने में भय और लज्जा की अनुभूति कराता है तो ऐसे कार्य को नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत जिस कार्य को करने में आत्मा उत्साह और प्रसन्नता का अनुभव करे उसे निस्संकोच कर डालना चाहिए। इस प्रकार हमारा अन्तरात्मा हमारे भीतर एक न्यायाधीश बनकर बैठा है। यह न्यायाधीश ही हमारे लिए वास्तविक धर्माधीश है। ज्ञान धन देने वाला धनाधीश है। हमें इसी न्यायाधीश, धर्माधीश और धनाधीश की आज्ञा का पालन करना चाहिए। इसका कारण ये है कि हमारे आत्मा का आत्मा परमात्मा भी इसी आत्मा में रहता है। अत: आत्मा वही कहता है जो उसका मित्र परमात्मा उससे कहलवाता है। अपने भीतर से उठकर आने वाली वाणी को हमारे ऋषि लोग आत्मा के आत्मा परमात्मा की आवाज इसीलिए मानते थे कि आत्मा अपने मित्र परमात्मा से अलग किसी की सुनता ही नहीं है। 
क्रमश:

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