हैं रखैलें तख्त की ये कीमती कलमें

हमारे देश को आजाद हुए 70 वर्ष हो गये हैं। पर दु:ख का विषय है कि देश की सबसे समृद्घ और सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा ‘हिन्दी’ स्वतंत्रता के सात दशकों में भी अपना सही स्थान और सही सम्मान प्राप्त करने में असफल रही है। देश में धर्म, संस्कृति और इतिहास की व्याख्या करने का ठेका कुछ ऐसे लोगों ने ले लिया है जो भारत के धर्म, संस्कृति और इतिहास से दूर का भी संबंध नहीं रखते है। उन्हें चीजों की सही जानकारी नहीं है और तेरी मेरी चीजों को चुराकर उन लोगों ने डिग्रियां प्राप्त कर ली हैं। उदाहरण के रूप में वेदों की आलोचना वे लोग करते हैं, जिन्हें वेद और वैदिक भाषा का कोई ज्ञान नहीं है। अब जो लोग वैदिक भाषा को नहीं जानते और वेद के एक भी मंत्र का अर्थ नहीं कर सकते हैं-वे वेद की आलोचना के अधिकारी कैसे हो जाते हैं? तर्क दिया जाता है किदेश के संविधान ने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को दी है, इसलिए आलोचना का उन्हें अधिकार है। ऐसे आलोचक भारतीय धर्म की आलोचना करें-यह भी उनका अधिकार है और शिवाजी को या महाराणा प्रताप को ‘पहाड़ी चूहा’ या ‘डाकू’ सिद्घ कर दें-यह भी उनका अधिकार है। ये सब चलेगा।
अब यदि कोई विद्वान कहे कि वेद अपौरूषेय हैं, ईश्वरीय वाणी है, संस्कृत वेद भाषा भी है और देव भाषा भी है-संस्कृत से संसार की सारी भाषाओं का जन्म हुआ है इत्यादि तो उसका यह निष्कर्ष तार्किक होकर भी भारत के संविधान की भावना के विपरीत ठहरा दिया जाएगा। कहा जाएगा कि यह भारत की भाषा का और बहुलतावादी तथाकथित संस्कृति का भगवाकरण करने का सुनियोजित षडय़ंत्र है जो कि भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को समाप्त कर देगा। इस प्रकार की व्याख्या को भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 के विरूद्घ माना जाएगा जो अल्पसंख्यकों को धार्मिक अधिकार देता है। ऐसी मानसिकता के चलते पिछले 70 वर्षों में इस देश की संस्कृति, धर्म और इतिहास को गाली देकर शोधपत्र तैयार करने का एक फैशन सा बन गया है।
परिणामस्वरूप देश के बड़े नेता भी अपने देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास की बड़ी सावधानी से प्रशंसा करते हैं। अभी पिछले दिनों हिंदी दिवस पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने कहा है कि हिंदी भाषी लोग हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं को सम्मान दें। अब यदि देश के राष्ट्रपति ऐसा कहते हैं तो ठीक है, इससे तो देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष स्वरूप की रक्षा होती है और यदि राष्ट्रपति ऐसा न कहकर यदि ये कह जाते कि हिंदी में राजकीय या शासकीय कार्य अनिवार्य किया जाए और क्षेत्रीय भाषाओं का सम्मान करके भी भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका यथोचित सम्मान मिलना चाहिए। साथ ही यह भी हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी को अपनाने की प्रवृत्ति देश के लिए घातक है-तो राष्ट्रपति का यह बयान देश के लिए गौरवप्रद न होकर विवादित बयान हो जाता। देश की स्वतंत्रता के बीते सत्तर वर्षों में हमने बयानों को विवादित कहने की परम्परा बड़ी तेजी से विकसित की है। इसे मीडिया ने अधिक हवा दी है। देशभक्ति भरे बयानों को भी देश में मीडिया फटाफट विवादित कह देती है। उसके ऐसा कहने या मानने के मानक कौन से हैं, यह आज तक स्पष्ट नहंी हो पाया है। आप कह दें कि देश में मांसाहार निषिद्घ किया जाता है- अब चाहे इस बात के कितने ही प्रमाण क्यों न हों कि मांसाकार वास्तव में ही मानव स्वास्थ्य के लिए घातक है और पश्चिमी देश भी बड़ी तेजी से शाकाहार की ओर आ रहे हैं-तो भी इस प्रकार के बयान को मांसाहारी लोगों की भावनाओं पर किया गया कुठाराघात मानकर इसे विवादित बयान की श्रेणी में डाल दिया जाएगा। विवादित बयान की श्रेणी में कोई बयान है या नहीं-इस पर किसी न्यायालय में कोई सुनवाई नहीं होती। इसे वे लोग बना डालते हैं जो मांसाहार और शाकाहार के लाभ हानि के विषय में कुछ नहीं जानते या जो स्वयं मांसाहारी है और इसीलिए वे देश की मूल विचारधारा के अर्थात शाकाहार के विरोधी हैं। इसका अभिप्राय है कि देश के उन बहुसंख्यक शाकाहारी लोगों की भावनाओं पर मांसाहारी लोागों के वे मुट्ठी भर लोग व्यंग्य कसते हैं-जिनकी एक ही विशेषता है कि वे मीडिया में मांसाहारियों के मुखौटे बनकर बैठे हैं। मुट्ठी भर लोगों का बहुसंख्यकों पर यह अत्याचार है। जिसे हम सहन कर रहे हैं। यदि इस अत्याचार के विरूद्घ आवाज उठायी गयी तो भी ऐसी आवाज पर ही बिजली पड़ेगी। तब इसे देश की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक गलियों की ओर से असहिष्णुता कहकर लताडि़त व प्रताडि़त किया जाएगा, कहा जाएगा कि कौन क्या खाता है-यह तय करना आपका काम नहीं है-अपितु यह उसी का काम है-जो खा रहा है। इससे देश का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप खतरे में आता है-इसलिए आप मौन रहो और जो कुछ हो रहा है उससे मुंह फेर लो।
ऐसी मूर्खताओं कारण देश के समझदार लोगों ने कई विषयों पर बोलना बंद कर दिया है। उनके मुंह पर ताले लगा दिये गये हैं। वह पूर्णत: खामोश कर दिये गये हैं। महिलाओं को अधिकार दे देकर अब पुरूष पिटवाये जा रहे हैं। यदि आप किसी पुरूष की वकालत थाने में जाकर करेंगे तो आप महिला विरोधी कहलाएंगे। एक महिला दहेज कानून में अपनी सास, ससुर, ननद और देवरानी, जेठानियों का भी नाम लिखवाती है। एक महिला कई निरपराध महिलाओं पर अत्याचार करती है-केवल उन्हें अपमानित करने के लिए। इस आफत में बहुत से घर नष्ट हो चुके हैं। कई बहुएं केवल इसलिए आत्मदाह करती हैं कि वह अपने पति को अपने माता-पिता की सेवा करते देखना नहीं चाहती हैं। होना तो यह चाहिए कि ऐसी महिलाओं का सामाजिक बहिष्कार हो, पर होता ये है कि वह महिला ही देश के कानून की आड़ लेकर निरपराध लोगों को उत्पीडि़त कराने या सजा दिलाने में सफल हो जाती है। सारी राजनीति में फिर भी महिला सशक्तिकरण पर ही चर्चा होती है। जबकि अब कुछ अधिक ही सशक्त हो गयी नारी के नि:शस्त्रीकरण पर चर्चा होने चाहिए।
धर्मनिरपेक्षता देश के लिए कलंक हो चुकी है। अपने ही विषय में अच्छी व सच्ची बात कहने में भी लोगों को शर्म आ रही है कोई भी विचार धारा देश के लिए तब घातक बन जाया करती है-जब वह अपने ही देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास का दमन करने लगती है। विचारधारा वही उत्तम होती है जो अपने देश के धर्म, संस्कृति और इतिहास का संरक्षण करते हुए देश के सभी नागरिकों के मध्य न्याय करने वाली हो और किसी भी वर्ग को अपना विकास करने से बाधित न करने वाली हो। अब आते हैं उत्तर प्रदेश में। यहां की योगी सरकार प्रदेश के पाठ्यक्रम को परिवर्तित करने का मन बना रही है। इसको देखकर कई लोगों के पेट में दर्द होने लगा है। जिन लोगों ने भारत के इतिहास के बारे में उलटी सीधी धारणाएं बना रखी थीं, उनकी धारणाएं अब ढहने की स्थिति आने जा रही हैं। यह बहुत मूर्खतापूर्ण खेल देश में चलता रहा है कि हमें अपने ही अतीत पर सोचने और शोध करने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है। हमें वह इतिहास पढ़ाया जा रहा है जिससे हमोर भीतर आत्महीनता का बोध उत्पन्न हो और हम अपने अतीत से कटकर दूर जा पड़ें। ये कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि धर्मनिरपेक्षता के कलंक को झेलते हुए भारत में अपनी ही युवा पीढ़ी को अपने ही पूर्वजों के इतिहास को और उनके गौरवपूर्ण कृत्यों को पढऩे से यह कहकर रोका जाता रहा है कि इससे तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का भारत का स्वरूप बिगड़ जाएगा।
हमारा मानना है कि उत्तर प्रदेश सरकार का इतिहास में यथावश्यक परिवर्तन एवं संशोधन करने का निर्णय उचित ही कहा जाएगा पर सावधानी यह भी बरती जानी अपेक्षित है कि किसी भी वर्ग को देश की मुख्यधारा से अलग-थलग न किया जाए। कहने का अभिप्राय है कि जिस वर्ग ने जहां पर देश की भलाई के लिए देश का साथ दिया है या जिस राजा ने अथवा बादशाह या सुल्तान या नवाब ने भारत से विदेशी सत्ता को उखाडऩे में और भारत को स्वतंत्र कराने में जितना योगदान दिया है-उसका वह योगदान भी इतिहास में ईमानदारी से सही स्थान पाना चाहिए। इतिहास सत्य और शोध करता है और तथ्य का बोध कराता है-इस सच को स्वीकार करके ही इतिहास पर कलम चलनी चाहिए। शोध तो होना चाहिए पर प्रतिशोध न हो। इतिहास बोध भी होना चाहिए पर गतिरोध नहीं होना चाहिए। सच सामने आना चाहिए और जोरदार ढंग से आना चाहिए। जिन लोगों ने अपनी कलम बेचकर भारत के इतिहास को आज तक दूषित करने का राष्ट्रघाती कार्य किया है-उनके विषय में केवल इतना ही कहा जा सकता है-
हैं रखैलें तख्त की ये कीमती कलमें
कण्ठ में इनके स्वयं का स्वर नहीं होता।
ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा हैं
जो किसी के आंसुओं से तर नहीं होता।।

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