गीता का कर्मयोग और आज का विश्व, भाग-2

वैदिक गीता-सार सत्य
गीता की उपयोगिता इसलिए भी है कि यह ग्रन्थ हमें अपना कार्य कत्र्तव्य भाव से प्रेरित होकर करते जाने की शिक्षा देती है। गीता का निष्काम-भाव सम्पूर्ण संसार को आज भी दु:खों से मुक्ति दिला सकता है। परन्तु जिन लोगों ने गीता ज्ञान को साम्प्रदायिकता का प्रतीक मान लिया, उनके स्वयं के लिए गीता ज्ञान उपलब्ध न होने से वे स्वयं ही संसार की आसाक्तियों में फंसते-धंसते चले गये। जिससे उनका जीवन अंधकारमय हो गया और वे अन्धकारपूर्ण जीवन को जीते-जीते भौतिकवाद के जंगल में कितनी दूर निकल गये हैं?-यह सम्भवत: वे स्वयं भी नहीं जानते। वे इतने अभागे हैं कि यदि उन्हें यह समझाया भी जाए कि तुम कहीं भटक रहे हो, तो वे यह मानने को भी तैयार नहीं होंगे।
कितनी देर दिया गीता ज्ञान?
अब प्रश्न यह है कि महाभारत के युद्ध में जब दोनों सेनाएं आमने-सामने खड़ी थीं-तब श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को गीतामृत का पान कितनी देर कराया? वह संवाद कई दिनों तक चला या कुछ घंटों में सिमट गया या फिर कुछ मिनटों में ही सिमट गया था? यह प्रश्न विचारणीय है। इसी प्रश्न के दृष्टिगत हमारी यह लेखमाला आगे बढ़ेगी।
यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि जब युद्ध के मैदान में एक ओर दुर्योधन जैसा दुराग्रही और उतावला व्यक्ति खड़ा हो और उधर श्रीकृष्ण जी अर्जुन को इतना लम्बा गीता ज्ञान देने लगे कि जो कई घंटों या कई दिनों तक चलता रहे, तो क्या दुर्योधन इतने लम्बे संवाद को जारी रखने की अनुमति श्रीकृष्ण जी को दे सकता था? कदापि नहीं। क्योंकि वह अधीर और अविवेकी था, इसलिए वह गीता ज्ञानामृत की धारा को बीच में ही तोडक़र कुछ भी कर सकता था। ऐसे में योगीराज श्रीकृष्ण जी जैसे महाबुद्घिमान व्यक्ति से भी यह आशा नहीं की जा सकती कि वे गीता ज्ञानामृत को इतना लम्बा चला दें कि वह समाप्त होने का नाम ही न ले। इसके अतिरिक्त अर्जुन भी कम बुद्घिमान नहीं था-वह भी महाबुद्घिमान था। विषय को खोल-खोलकर समझाना, उदाहरण दे-देकर समझाना तो बच्चों के लिए किया जाता है। बुद्घिमान और विवेकशील लोगों के लिए सूत्रवाक्य ही पर्याप्त होते हैं। जैसे प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थियों को तो अध्यापक उदाहरण दे -देकर सवाल समझाता है, परन्तु वही बच्चा जब बड़ी कक्षाओं में जाता है तो उसे उदाहरणों की आवश्यकता नहीं पड़ती, तब वह सूत्रों से ही या संकेतों से ही गम्भीर विषय को समझ लेता है।
योगीराज श्रीकृष्ण जी के लिए अर्जुन प्राथमिक विद्यालय का विद्यार्थी नहीं था। अर्जुन बड़ी कक्षाओं का विद्यार्थी था, जिसके लिए आज के युद्ध के समय एक प्रश्न आ खड़ा हुआ कि निज बन्धु-बान्धवों का वध करके राज भोगना उनके लिए कितना उचित होगा? उनकी आत्मा ने उन्हें बताया कि यह तो घोर अनर्थ हो जाएगा। तब उनके मुंह से अनायास ही निकल गया कि-‘केशव! मैं युद्ध नहीं करूंगा।’
आसुरी वृत्तियों के नाश से इस प्रकार पलायनवादी बने अर्जुन के मुंह से ये शब्द सुनकर कृष्णजी अवाक रह गये। तब उन्होंने अर्जुन को कत्र्तव्य मार्ग पर लाने के लिए उन्हें संकेत से सूत्रात्मक शैली में समझाया कि-” अर्जुन! ऐसा मत कहो, क्योंकि यह तुम्हारे क्षात्रधर्म के अनुकूल नहीं है। यदि तुम जैसा योद्घा युद्ध से भागेगा या आसुरी वृत्तियों के समक्ष आत्मसमर्पण करेगा तो संसार के सामान्य लोगों का क्या होगा? तुम जैसे महायोद्घा के लिए यही उचित है कि तुम संघर्ष करो और संसार के साधारण पुरूषों के लिए इतिहास बनाओ, एक उदाहरण बनो। ”
श्रीकृष्ण जी का यह व्याख्यान निश्चय ही अधिक से अधिक10 से 15 मिनट चला होगा। जिसे अर्जुन जैसे बुद्घिमान शिष्य ने हृदय से स्वीकार किया होगा और तत्पश्चात युद्ध आरम्भ हो गया होगा।
इन दस पन्द्रह मिनटों में श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को जितना कुछ भी बताया होगा वह वेदसम्मत ही बताया होगा। जिसे वेदव्यास जी ने अपने बौद्घिक कौशल से कुछ विस्तार देकर महाभारत (तत्कालीन ‘जय’ नामक ग्रंथ में) लिखा होगा। पर वेदव्यास जी ने श्रीकृष्णजी के मूल कथन में अधिक मिलावट नहीं की होगी। क्योंकि वह एक वैदिक विद्वान थे और वैदिक विद्वान अपने प्रतिपाद्य विषय का ध्यान रखते हुए ही कुछ लिखता, या कहता है। उसे अपने प्रतिपाद्य विषय और सिद्घान्त का पूरा ध्यान रखते हुए लिखना पड़ता है।
आगे चलकर गीता को विस्तार देने की योजना भी कुछ विद्वानों ने इस दृष्टिकोण से बनायी होगी कि गीता का वैदिक रहस्य लोगों के हृदय में सरल भाषा में उतार दिया जाए और जब कभी कोई ‘अर्जुन’ किसी ‘महाभारत’ में अपने आपको फंसा हुआ पाये तो वह ये ना कह सके कि-‘केशव! मैं युद्ध नहीं करूंगा।’
लालबहादुर शास्त्री जी गीता के विषय में लिखते हैं-”सुख-दु:ख में, लाभ-हानि में, मान-अपमान में, निन्दा स्तुति में समभाव से रहना किसी भावावेश में उद्वेलित न होना, अपने आपको सन्तुलित रखना गीता की यह ऐसी सीख है-जो जीवन की पगडंडियों में भटकते मानव को जीवन के राजपथ पर डाल देती है। दु:ख को भी सुख की कोटि में, हानि को भी लाभ की कोटि में, अपमान को भी मान की कोटि में, निन्दा को भी स्तुति की कोटि में ला बैठाना इन विरोधी तत्वों को एक स्तर पर ले आना -इनमें से किसी से भी उद्विग्न न होना, यह एक ऐसा अदभुत विचार है जो विश्व की विचारधारा को गीता की अपूर्व देन कहा जा सकता है। गीता के रचयिता तो विश्व की रचना को अपनी पैनी आध्यात्मिक दृष्टि से देखते हुए सृष्टि के विधान में, अपना नहीं उसका हाथ देखते हुए दु:ख में भी सुख लेते प्रतीत होते हैं, हानि-अपमान तथा निन्दा में भी एक तरह का मजा लूटते जान पड़ते हैं, इस प्रकार की मन:स्थिति तभी सम्भव हो सकती है जब जीवन का ढांचा गीता के निष्काम कर्म के सांचे में ढला हो।”
शास्त्रीजी स्पष्ट करना चाहते हैं कि गीता किसी पारलौकिक जगत की समस्याओं के रहस्यों को या उनका समाधान देने वाला ग्रन्थ नहीं है। गीता मानव जीवन की ज्वलन्त समस्याओं का तुरन्त उपचार करने वाला ग्रन्थ है। यह बात विचारणीय है कि जब महाभारत जैसे युद्ध का साज सजा खड़ा हो-तब पारलौकिक जगत की बातें करना कहां तक उचित है? उस समय ये बातें अतार्किक सी और असामयिक लगती हैं कि श्लोक से जाकर परलोक में क्या होगा? परन्तु फिर भी आगे चलकर गीताकार ने श्रीकृष्णजी के मुखारविन्द से ऐसे रहस्यभरे प्रश्नों का उत्तर दिलवाने का सफल और सार्थक प्रयास किया है जो मनुष्य जीवन की जटिलताओं को थोड़ा सरल कर देते हैं। ये प्रश्न आज के मानव समाज के लिए भी उतने ही सार्थक हैं जितने गीताकार ने उस समय अर्जुन के मुख से कहलाये हैं। इस प्रकार गीता आज के मानव समाज के लिए भी एक मार्गदर्शक ग्रन्थ है।
युद्ध के समय अर्जुन को युद्ध में रत करना श्रीकृष्णजी ने उसका धर्म बताया, और उसे समझाया कि तेरा युद्ध से पलायन करना तेरे क्षात्र धर्म के विपरीत है। अब स्वाभाविक प्रश्न है कि अर्जुन इस समय अपने क्षात्रधर्म के विषय में प्रश्न पूछ सकता है। श्रीकृष्णजी उसे उसका क्षात्रधर्म समझाते-समझाते कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग तक ले गये, जिससे कि उसके अंतरमन में उठने वाले सभी प्रश्नों का और शंकाओं का समुचित और शास्त्र सम्मत समाधान हो सके। सम्पूर्ण गीता इन्हीं कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग में सिमटी हुई है, इसी में उसका विस्तार है। क्रमश:

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