गीता का पांचवां अध्याय और विश्व समाज

कर्मयोग श्रेष्ठ या ज्ञानयोग श्रेष्ठ है
जैसे आजकल विभिन्न सम्प्रदायों की तुलना करते समय एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति सभी धर्मों अर्थात सम्प्रदायों को श्रेष्ठ बताकर अपना पल्ला झाड़ लेता है और वह उनमें से किसी के भी अनुयायी या मानने वाले को निराश नहीं करना चाहता, ऐसे में एक साधारण व्यक्ति के मन में यह स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि इन सभी धर्मों या सम्प्रदायों में सर्वश्रेष्ठ कौन सा है? बस ऐसी ही कुछ समस्या इस समय अर्जुन की हो गयी है। वह कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों की प्रशंसा श्रीकृष्णजी से सुनकर भ्रमित सा हो गया है। तभी तो उसने श्रीकृष्णजी से पूछ लिया कि कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों में से श्रेष्ठ कौन सा है? तुम एक बार में तो कर्मयोग की प्रशंसा करते हो, तो दूसरे ही क्षण में तुम ज्ञान योग की प्रशंसा करते हो। ऐसी मिली जुली बातें क्यों करते हो? अर्थात मुझे यह स्पष्ट बताओ कि इन दोनों में से उत्तम कौन सा है? गीता का पांचवां अध्याय अर्जुन की इसी भ्रान्ति के समाधानार्थ विरचित किया गया है। अर्जुन के मुंह से ऐसी बात कहलवाकर गीताकार ने आज के साधारण व्यक्त की मानसिक परेशानी या द्वन्द्व भाव को प्रकट करने का प्रयास किया है।
अर्जुन भ्रमित हो गया करने लगा सवाल।
कर्म बड़ा या ज्ञान बड़ा बतलाओ गोपाल।।
इस स्वाभाविक प्रश्न को सुनकर श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन की शंका का समाधान करते हुए उसे समझाने का प्रयास किया। वह कहने लगे कि अर्जुन मैंने जो तुझे ज्ञानयोग और कर्मयोग के विषय में बताया है ये दोनों ही मनुष्य को नि:श्रेयस की सिद्घि या प्राप्ति कराने वाले हैं। नि:श्रेयस परमकल्याण अर्थात मोक्ष का नाम है। यदि पूर्ण श्रद्घा से व्यक्ति इन दोनों योगों में से कोई से एक को भी करने का अभ्यासी हो जाता है तो उसे परमकल्याण की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु तूने पूछा है तो मैं तुझे बताना चाहूंगा कि इन दोनों में से कर्म को त्याग देने की शिक्षा देने वाले ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग अर्थात निष्काम कर्म कहीं अधिक अच्छा है।
इससे अगले श्लोक में श्रीकृष्णजी अर्जुन को बता रहे हैं कि अर्जुन जो व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता, अपितु सबको अपना मानकर प्रेम करता है-सभी के प्रति सहिष्णु और सहयोगी रहता है, सहृदयी और प्रेमभाव का प्रदर्शन करने वाला रहता है, वह व्यक्ति द्वन्द्वों से परे रहता है अर्थात वह परम तपस्वी होता है। उसे किसी व्यक्ति की या वस्तु की चाह नहीं रहती। ऐसे व्यक्ति को कर्मयोगी ही समझो। क्योंकि उसके सारे कर्म निष्कामता से परिपूर्ण हैं। भाव ये है कि उसमें ईश्वर का अकामी गुण आ जाता है। वह कामनाओं को जीत लेता है। कामनाओं का अन्त कर लेना ही निष्काम भाव को अपना लेना है। ईश्वरीय गुण का अंगीकार कर लेना स्वयं में दिव्यता उत्पन्न कर लेना है।
इसे आज के सन्दर्भ में इस प्रकार समझो कि जैसे कोई व्यक्ति देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के पास कार्य करते हुए स्वयं को शक्ति का पुंज समझने लगता है या अपने आप में विशिष्टता उत्पन्न कर लेता है-वैसे ही ईश्वर का सामीप्य पाने वाले व्यक्ति भी वैशिष्ट्य की अनुभूति करने लगते हंै। यद्यपि संसार में किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के साथ कार्य करने वाले व्यक्ति की स्वयं के विषय में विशिष्टता की अनुभूति उसे घमण्डी भी बना सकती है और उससे गलत कार्य भी करा सकती है, पर ईश्वरीय सामीप्य की अनुभूति करने वाला व्यक्ति तो द्वन्द्वातीत हो जाता है। उसमें अहंकार न बढक़र अहंकारशून्यता बढ़ती है। जिससे वह अन्य विकारों की केंचुली से भी मुक्त होता जाता है और अन्त में संसार की केंचुली (आवागमन का चक्र) से भी छूट जाता है। इसे श्रीकृष्णजी कर्म बन्धन से मुक्ति कहते हैं।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि पंडित लोग ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को अलग न मानकर एक ही मानते हैं। इसलिए ऐसे लोग अपनी जीवन नैया को भवपार लगाने के लिए इन दोनों में से किसी एक को कसकर पकड़ लेते हैं। अन्त में उन्हें दोनों का ही फल प्राप्त हो जाता है।
कर्मों को त्यागने वालों को श्रीकृष्णजी ने ज्ञज्ञन योग का पथिक कहा है तो कर्मों को करते रहने वालों को वे कर्मयोगी कहते हैं, अर्थात कर्म योग मार्ग का पथिक मानते हैं। जो व्यक्ति इन दोनों को एक समान देखता है-श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि वही ठीक-ठीक देखता है।
ज्ञानयोगी मुनि कर्म मार्ग में निष्ठापूर्वक लगे रहकर शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं। कर्मयोगी को योगेश्वर श्रीकृष्ण जी आत्मा से पवित्र मानते हैं। उसके विषय में उनका यह भी मानना है कि वह मन और इन्द्रियों के आधीन न होकर इन्हें ही अपने आधीन कर लेता है। सब प्राणियों का आत्मा उसे अपना आत्मा दिखने लगता है। वह सभी के भीतर एक ही परम ज्योति को ज्योतित होते देखने का अभ्यासी हो जाता है। वह कर्म तो करता है पर उसमें लिप्त नहीं होता।
वास्तव में गीता की यह निष्काम कर्मयोग की साधना बड़ी ही उत्तम साधना है। इसे समझना बड़ा कठिन है और यदि समझ में आ जाए तो जीवन में उतारना या अपनाना तो और भी कठिन है। संसार के अधिकांश योगी, मुनि, सन्त, महात्माओं के आचरण जीवन व्यवहार को देखने से लगता है कि कर्म छोड़ दो और मुक्ति पा लो। पर योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि कर्म करते रहो और उसके बाद भी मुक्ति को प्राप्त करो-यह जीवन साधना बड़ी ही अजीब है। साधारण लोग कर्म के बन्धन को शिथिल नहीं कर पाते, उनसे चूक होती रहती है और वे कर्म के बन्धन को अपने ऊपर और भी अधिक मजबूती से कसते जाते हैं। यह एक अजीब पहेली है कि प्रयास तो बन्धनों को शिथिल करने का किया जा रहा है और बन्धन हैं कि और भी अधिक कसते जा रहे हैंं।
श्रीकृष्ण जी महाराज का कहना है कि पार्थ! जो व्यक्ति योगी होते हैं और जिनकी कर्मयोग में निष्ठा होती है वही तत्वदर्शी होते हैं, इसलिए उसे देखते समय, सुनते समय, स्पर्श करते समय, सूंघते समय, खाते समय, चलते समय, सोते समय और श्वांस लेते समय यही समझना चाहिए कि मैं कुछ नहीं कर रहा। जब जीवन की छोटी से छोटी क्रिया और बड़ी से बड़ी क्रिया इसी ‘मैं कुछ नहीं कर रहा हूं’- के भाव से बंध जाती है या उससे ओतप्रोत हो जाती है तो जीवन में अमृत वर्षा होने लगती है। हमारी आत्मा को अपने लिए आत्मरस या अमृतरस या आनंद रस मिलने लगता है-जिससे आत्मा बलवान होता है और व्यक्ति स्वयं को आत्मबल का धनी अनुभव करने लगता है।
एक कर्मयोगी व्यक्ति आसक्ति को त्यागकर ब्रह्म में अर्पण करके अपने सारे कर्मों को करता है-जिससे वह पाप में वैसे ही लिप्त नहीं होता जैसे कमल का पत्ता पानी में रहकर भी पानी से अलिप्त रहता है। ऐसा व्यक्ति आत्मशुद्घि के लिए इंद्रियों, शरीर और मन, बुद्घि से कार्य करता है। ऐसा व्यक्ति नैष्ठिक अर्थात परमशान्ति को प्राप्त व्यक्ति कहलाता है। उसके हृदय की पवित्रता उसे सदा ही आनन्दित किये रखती है और सांसारिक दु:ख या कष्ट क्लेश उसे किसी भी स्थिति परिस्थिति में तंग नहीं करते। एक प्रकार से उसके लिए सांसारिक दु:ख, कष्ट क्लेशादि भी दग्धबीज हो जाते हैं अर्थात जैसे चनों को भून देने से वे उपजने योग्य नहीं रहते वैसे ही एक कर्मयोगी की स्थिति हो जाती है। वह अपनी इंन्द्रियों से, शरीर से, मन से और बुद्घि से कार्य करता है-पर उनकी परछाईं आत्मा पर नहीं पडऩे देता, जिससे उसके लिए वासना और रसना दोनों ही दग्धबीज बन जाती हैं, मिट जाती हैं समाप्त हो जाती हैं।
क्रमश:

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