भारतीय संस्कृति: आत्मा का ब्रह्मरंध्र और कर्म चक्र से संबंध

बहुत सुना है आपने क्या लेकर तू आया जग में क्या लेकर तू जाएगा ?
उपरोक्त के अतिरिक्त सुना है कि न कुछ लेकर के आए ना कुछ लेकर जाना। खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाना है।
क्या यह कहना सत्य है?
हम ले करके आते भी हैं और लेकर के जाते भी हैं। खाली हाथ न तो आते हैं और न खाली हाथ जाते हैं। जन्म के साथ ना तो मुट्ठी बंद आती है जिसमें कुछ हो और मृत्यु के समय न मुट्ठी खाली होती है जिसमें कुछ भी ना हो।
यह केवल भौतिक हाथों के विषय में कहा जाता है।
लेकिन भौतिक हाथ मृत्यु के समय जाते ही नहीं ।
हाथ कर्मेंद्रीय होते हैं और कर्मेंद्रीय सूक्ष्म रूप में आत्मा के साथ जाती हैं।

ऐसे में एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आत्मा जब इस शरीर को त्यागता है अथवा जन्मांतर करता है तो कौन – कौन सा पदार्थ या द्रव्य इस आत्मा के साथ जाता है। ज्ञानी , विद्वान एवं ऋषि तथा दार्शनिक आचार्यों ने इसका उल्लेख देते हुए कहा है कि जब यह आत्मा इस शरीर को त्यागता है तो पांच कर्मेंद्रियों का सूक्ष्म स्वरूप अंतःकरण में व्यापक हो चुका होता है और इस शरीर को त्यागने के बाद जिसे हम सूक्ष्म शरीर कहते हैं इसमें पांच ज्ञानेंद्रियां मन , बुद्धि , पांच प्राण और पांच प्रकृति के सूक्ष्म महाभूत(एक अंतः करण को मिला लो) इन 18 तत्वों को माना जाता है । उस समय यह सभी आत्मा के साथ सूक्ष्म रूप में साथ जाते हैं। मृत्यु के समय जैसी भावनाएं होती हैं जो भी अंतःकरण में अंकित हो चुका होता है उन अंकित हुए कर्मों को भोगने की यह इच्छा आत्मा करता है । जैसी इस शरीर में मनुष्यों की भावना होती है , जैसी प्रवृत्ति होती है और जिस समय उसके प्राण शरीर से निकलते हैं तो यह आत्मा अंतरिक्ष में उन्हीं विचारों वाली आत्माओं में रमण किया करता है।

आत्मा का सूक्ष्म शरीर द्वारा अंतरिक्ष में रमण कैसे होता है ?

अंतरिक्ष में कई प्रकार की आत्मा रमण करती हैं। एक तो वह आत्माएं हैं जो मोक्ष के निकट पहुंचने वाली होती है ।एक वह जो तमोगुणी होती हैं ।तीसरे प्रकार की रजोगुण वाली होती हैं ।इनमें से जो मोक्ष के निकट जाने वाली आत्माएं होती हैं उन्हें हम सतोगुण की आत्मा कहा करते हैं ।जो निर्मल और पवित्र होती हैं। जैसा हम इस संसार में कर्म करते हैं वैसी ही आत्माओं का संग हमको मिला करता है। यदि हम देवत्व कर्म करते हैं तो देवत्व आत्मा में रमण करते हैं ।जब हमारा देवत्व कर्म समाप्त हो जाता है तो जो कर्म अंतः करण में अंकित है ,उन्हें भोगने के लिए संसार में पहुंचते हैं।इस प्रकार तमोगुण आत्माओं के साथ तमोगुण की आत्माओं का मिलन होता है। रजोगुण की आत्माओं के साथ रजोगुण आत्माओं का मिलन होता है। सतोगुण आत्माओं के साथ सतोगुण आत्माओं का मिलन होता है ।मिलन से तात्पर्य एक साथ घूमना होता है।
मृत्यु के पश्चात बहुत से परिवारों में देखने को मिला है कि वह तेरहवीं करते हैं। 13 वीं का मृतक आत्मा के साथ कोई संबंध नहीं होता , क्योंकि अंत्येष्टि कर्म संस्कार जब हमने किया था तो वह अंतिम संस्कार था। उसके पश्चात कोई संस्कार नहीं होता ।इसलिए तेरहवीं का कार्यक्रम संसार में गलत प्रचलित है।
13 दिवस के सिद्धांत को मान लेना उचित नहीं है। क्योंकि अधिकांश आत्माओं के द्वारा शरीर को त्यागते ही दूसरा शरीर धारण करना अनिवार्य होता है। परंतु श्रृंग ऋषि द्वारा अपने उपदेशों में कहा गया है कि जैसी भी भावनाएं हो, जैसे भी कर्म करके जाएंगे ,उसी के अनुकूल हमें जन्म प्राप्त हो जाता है।
उदाहरण के तौर पर यदि हमारे द्वारा तमोगुण प्रधान कर्म जीवन भर किए गए हैं और तमोगुण से ही शरीर त्याग दिया गया है तो उस तमोगुण आत्मा को उन तमोगुण आत्माओं में 13 दिवस रमण करके उसे जन्म लेना अनिवार्य हो जाता है , परंतु जो सतोगुण आत्माएं होती हैं और यदि उनके मन में यह विचार होता है कि शरीर को त्यागने के पश्चात ही मुझे संसार में अवश्य आना चाहिए तो उसे एक मास के पश्चात संसार में आना अनिवार्य हो जाता है और यह आत्मा” ब्रह्मने वचती: सुप्रजा मनोती कामा: “जो सतोगुण आत्मा होती हैं वह शरीर को त्याग करके सौ सौ बरस तक विमुक्त आत्माओं के निकट रमण करती रहती है।
सौ – सौ बरस तक आत्मा अंतरिक्ष में रमण करता है। एक श्रृंग केतु नाम की वायु होती है , उसमें यह तमोगुण वाली आत्मा केवल 13 दिवस रमण करती है तथा पूर्व जन्म की स्मृति को त्याग करके संसार में पुनः जन्म लेती है।
“शायद इसी के आधार पर तेरहवीं का कार्यक्रम रखा जाता है।”
लेकिन वैदिक सिद्धांत एवं शास्त्रों में उपरोक्त तथ्य अन्यत्र कहीं भी मेरे अध्ययन में नहीं आया है।
महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के अंदर श्रृंग ऋषि की बातों का उल्लेख नहीं किया है।
तथा 13 दिन के पश्चात तेरहवीं करने का तात्पर्य हुआ कि हमने अपने मध्य से गई हुई उस आत्मा को तमोगुण वाली स्वीकार कर लिया, चाहे वह रजोगुण वाली थी या सतोगुण वाली थी ,
इस के अनुसार भी तेरहवीं का सिद्धांत प्रत्येक मृतक आत्मा के लिए आवश्यक नहीं है। ऐसा करके हम गलत करते हैं।

श्रंग ऋषि आगे लिखते हैं कि ” जो सतोगुण वाली आत्मा होती हैं वह इंद्र नाम की वायु में रहती हैं। और दूसरी मृच़ा नाम की वायु होती है तथा तीसरी सौमभाम नाम की वायु होती है , इन तीन प्रकार की वायु में सतोगुण की आत्मा रमण करती रहती है और जो वायु में पंचमहाभूत सूक्ष्म रूप से रमण करते हैं , उन पंचमहाभूतों पर यह आत्मा शासन करता हुआ विमुक्त आत्माओं में विनोद करता रहता है अर्थात आनंद का भोग करता है और जो इस शरीर में अनिष्ट कर्म किया उस कर्म को भोगने के लिए संसार में जन्म को प्राप्त होता है , ऐसा माना जाता है।
आत्मा में वह गुण अंकित है जिन गुणों से प्रकृति को अपने अधीन बना लेता है। जैसा सूक्ष्म स्वरूप आत्मा का हुआ वैसे ही आगे प्रकृति भी इतनी सूक्ष्म बन जाती है। दोनों एक दूसरे पर शासन करने लगते हैं। आगे चलकर के आत्मा भी सूक्ष्म और प्रकृति भी सूक्ष्म हो जाती है ।अब सूक्ष्म पर सूक्ष्म शासन करता है ।संसार में स्थूल पर स्थूल शासन करता है ।जैसे कृषि करने वाला वैश्य कृषि पर शासन करता है । अणु को ,वायु को, अग्नि को, अग्नि और स्थूल का जानने वाला स्थूल को ही जानता है। सूक्ष्म वस्तु सूक्ष्म को जाना करती है।
आत्मा के जन्म लेने से पहले उसके विचार संसार में आने के होते हैं । उनके विचार संसार के लिए होते हैं इसलिए वह माता के गर्भ स्थल में प्रवेश होता है और माता से जन्म धारण करता है । जब माता ने पालन-पोषण किया तो वह उन कर्मों को करने के लिए उद्यत हो गया यह प्रवृत्ति उसकी रहती है।”
अब विचार करते हैं कि मृत्यु के पश्चात क्या प्रवृत्ति रहती है ?
जब यह आत्मा शरीर को त्यागता है ,आत्मा को ऐसा विदित होता है कि अब तेरा शरीर रूपी वस्त्र पुराना हो गया है और इस शरीर रूपी वस्तु को त्यागना अनिवार्य है । इस शरीर को त्याग करके उन आत्मा में रमण करता है जो उस आत्मा के विचार वाली आत्मा होती हैं । जैसे पूर्व में कहा गया है कि तमोगुणी आत्मा तमोगुणी आत्माओं में ,सतोगुण वाली सतोगुण ,रजोगुण वाली रजोगुण आत्मा में यह आत्मा रमण करती हैं।

ब्रह्मरंध्र किसे कहते हैं ?

मानव के शरीर में नौ द्वार होते हैं । जिनमें दो द्वार चक्षु, दो नाक द्वार,दो कान द्वार,एक मुख ,एक उपस्थ एक गुदा ।
परंतु दसवां द्वार योगी का होता है । जिसको ब्रह्मरंध्र कहते हैं। जिनका आत्मा उपस्थ और गुदा इंद्रियों से बाहर निकलता है वह मल मूत्र के कीड़े बनते हैं । उन्हीं में क्रीड़ा करते हैं । जिनका आत्मा मुख से निकलता है वह संसार में विषैले कीड़े बनते हैं , जैसे सर्प आदि नाना विषैले जंतु होते हैं ।
जिनका आत्मा नाक से निकलता है वह अगले जन्म में मनुष्य बनते हैं । जिनका आत्मा आंखों से जाता है वह वह जलचर प्राणी बनते हैं और जिनका आत्मा कानों से जाता है अंतरिक्ष में भी चलने वाले प्राणी बनते हैं ।
इस प्रकार परमात्मा ने इन नौ द्वारों का भी विधान बनाया है। नाक से जब आत्मा निकलती है तो वह मनुष्य प्राणी होते हैं और इसमें भी अंतर है। नाक में एक सूर्य स्वर तो एक चंद्र स्वर होता है।जिसका आत्मा चंद्र स्वर से जाता है वह तमोगुण पुरुष बनते हैं और जिनका आत्मा सूर्य स्वर से जाता है । वह सतोगुण या ऊंचे विशाल कर्म करते हैं या रजोगुण और सतोगुण ही दोनों कर्म करते हैं संसार में।
लेकिन जिनका आत्मा ब्रह्मरंध्र से जाता है , उनका आत्मा विमुक्त मोक्ष वाली आत्माएं होती हैं । उनमें वह आत्मा रमण किया करता है । इस संसार में जन्म लेता है किसी का उत्थान करने के लिए , राष्ट्र उत्थान करने के लिए या सामाजिक दृष्टि से उत्थान करने के लिए या नाना प्रकार के उत्थान करने के लिए जन्म लेता है।
ब्रह्मरंध्र से जो आत्मा जाती हैं उनके कर्म बहुत ही उच्च कोटि के और संसार के परोपकार के होते हैं।
उदाहरण के तौर पर रामचंद्र जी व कर्म योगी कृष्ण जी महाराज व महर्षि स्वामी दयानंद।
जैसी संसार की भावनाएं होती हैं ऐसे ही तत्व होते हैं जैसे तत्व होते हैं वैसे ही यहां कर्म होने लगते हैं। जब कर्म होते हैं तो उन कर्मों को भोगने के लिए यह सब आत्मा आती हैं संसार में।

कर्म चक्र क्या है?

जब मनुष्य अपनी मानवता को त्याग करके जैसे विचार बनाता है वैसे ही वाक्य अंतरिक्ष में रमण करते हैं और जैसी भावना अंतरिक्ष में रमण करती हैं वैसी वायु रमण करती है। वायु मेघों से, वैशवानरो से और प्रकृति से मिलान करती है। इनका समूह हो करके वही विचार सूक्ष्म रूप से इन पर आ जाते हैं और वे आक्रमण करने लगते हैं। जब हम उनको भोगते हैं तो कष्ट होता है।
लेकिन यदि देखा जाए तो इस सबके लिए हमारे विचार और कर्म ही तो उत्तरदायी हैं। यदि मनुष्य आत्मिक तत्व जानने का कार्य करें तो तत्ववेत्ता बन जाए , जहां ऊंचे कर्म किए जाएं। जिससे आज यह प्रकृति हमारे अधीन होकर के हमारी इच्छा अनुसार फल देने वाली बने ।इसलिए वह कर्म न करो जिससे प्रकृति हमारे ऊपर छा जाए ,बल्कि वह कर्म जो हमने किया है ,प्रकृति उसे पाप मूल बन करके हमें दे । इसलिए अपने जीवन में प्रकृति को अवसर मत दो और परमात्मा की गोद में जाने का प्रयत्न करो।

मुक्ति में पांच ज्ञानेंद्रियां , पांच कर्मेंद्रीयां मन और बुद्धि और पांच प्राण साथ होते हैं जब यह आत्मा सूक्ष्म रूपों से अंतरिक्ष में रमण करता है तो इन 18 तत्वों का शरीर माना जाता है।इसके पश्चात भी एक कारण शरीर होता है जिसमें केवल ज्ञान और प्रयत्न रह जाता है। यह मन बुद्धि और दसों इंद्रियां तथा पांच प्राण सभी शांत हो जाते हैं । केवल आत्मा का स्वाभाविक गुण ज्ञान और प्रयत्न शेष रह जाते हैं ।उसी को मुक्ति कहते हैं।
क्योंकि मन तभी तक साथ रहता है। जब तक मानव के अंतः करण में कर्म है और कोई वस्तु अंतःकरण पर अंकित है ,L परंतु जब वह अंकित नहीं रहेगी तो मन भी नहीं रहेगा । मन अनादि तब तक है जब तक यह आत्मा जन्म लेने वाला है । जब तक यह संसार में बार बार आने जाने वाला है , जब तक यह आवागमन में पड़ा है । मुक्त होने के पश्चात इस आत्मा से मन अर्थात चित का संबंध पृथक हो जाता है ।यह आनंद में आत्मा रमण करता है ।इसलिए मन( चित्त) मुक्ति में साथ नहीं होता। इसके विषय में पूर्व में कह आए हैं कि मन प्रकृतिजन्य है ,जो जड़ है।
मन प्रकृति का स्वरूप माना जाता है तो वह मुक्ति में प्रकृति में भ्रमण कर जाता है और जो आत्मा निर्मल और पवित्र है , वह ब्रह्म में रमण करने लगता है। इसलिए मुक्ति में जाकर के प्रकृति अलग हो जाती है और केवल ब्रह्म के साथ आत्मा रहती है। , ब्रह्म का अनुभव करती है , ब्रह्म की तरह विचरती है – सभी लोकों में।
परंतु ध्यान रहे कि ईश्वर परमब्रह्म है , आत्मा कभी परब्रह्म नहीं हो सकती।
यहां तक यह बिंदु भी स्पष्ट हो चुका है कि जो आत्मा का परिवार प्रकृति जन्य था , मुक्ति में वह परिवार भी अलग हो जाता है। इस प्रकार आत्मा के परिवार की जो सीमा थी ,वह भी समाप्त हो जाती है।
स्पष्ट किया जाता है कि मन सुख-दुख को अनुभव करता है परंतु कौन से सुख-दुख को ?

वे सुख-दुख जो प्रकृति से होने वाले होते हैं और इंद्रियों के द्वारा अनुभव किए जाते हैं उनको वह मन अनुभव करता है।
हमें यह भी स्पष्ट हो चुका है , लेकिन जो ब्रह्म में आनंद का रमण करता है उसको यह आत्मा स्वाभाविक ही अनुभव कर सकती है। अतः स्पष्ट हुआ कि मन प्रकृति से बनता है और प्रकृति के सुख-दुख को ही अनुभव करता है। मन का संबंध केवल आत्मा से रहता है और आत्मा का मिलन परमात्मा से रहता है। जब तक इसे वह स्थिति जीव की प्राप्त नहीं हो जाती , तब तक यह आत्मा के साथ रहता है। मन का संबंध कर्म से है। कर्म बद्धता के साथ-साथ मन रहता है। लेकिन जब तक आत्मा के साथ प्रकृति का मिलन है।
परंतु जहां चैतन्य का मिलन हुआ , (परमात्मा का मिलन हुआ ,) चैतन्य का चैतन्य से मिलन हुआ तो प्रकृतिजन्य मन से आत्मा का संबंध स्वयं छूट जाता है। उदाहरण के लिए,जैसे मां के गर्भ में गर्भाशय परिपक्व हो जाता है तो उन नाड़ियों से गर्भ में रहते हुए बच्चे का जो संबंध रहता था ,पंचम नाम की नाडी माता की लोरियों से चलती थी। जिसका संबंध बालक की नाभि से होता है । माता की लोरीयों में जो रस बनता है वह पंचम नाड़ी के द्वारा बालक के उदर में जाता है। जिससे माता का गर्भाशय बढ़ता है ,परंतु जहां गर्भाशय पूर्ण हुआ ,परिपक्व हुआ, इन नाड़ियों का संबंध स्वयं छूट जाता है।
इसी प्रकार यह आत्मा जब परमात्मा के गर्भ में चला जाता है तो प्रकृति से इसका संबंध स्वयं छूट जाता है।
अतः यह भी स्पष्ट होता है सुख और दुख केवल मन के द्वारा अनुभव किए जाते हैं , आत्मा के द्वारा नहीं। तथा मुक्ति में आत्मा का स्वभाव आनंद स्वरूप है और वह अपने स्वभाव से आनंद ही भोगता है।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन उगता भारत समाचार पत्र, ग्रेटर नोएडा ,गौतम बुध नगर चलभाष 98 1183 8317

Comment: