मन की शक्ति असीम है, करके देख तू एक

बिखरे मोती-भाग 215
गतांक से आगे….
उसके हृदय की सात्त्विकता, आर्वता (सरलता) और पवित्रता प्रभु का भी मन मोह लेती है। ऐसी अवस्था बड़ी तपस्या के बाद आती है, बड़ी मुश्किल से आती है और यदि कोई व्यक्ति इस अवस्था को प्राप्त हो जाए, तो समझो वह वास्तव में ही प्रभु से जुड़ गया है। इस सन्दर्भ में भगवान कृष्ण गीता के अठारहवें अध्याय के 65वें श्लोक में कहते हैं-”मान्यमना भव मद्भक्तो” अर्थात हे पार्थ! मेरे जैसे मन वाला हो जा, मेरा भक्त हो जा। मन यदि इस अवस्था को प्राप्त हो जाए तो समझिये कि मन-सुमन हो गया है, परमपिता परमात्मा के रंग में रंग गया है, उसके कृपा-कवच से रक्षित हो गया है, उसके चित्त में आत्मज्ञान हो गया है, प्रज्ञा का द्वीप जल गया है, जड़ता (अज्ञान और अहंकार) का अंधकार मिट गया है क्योंकि उसे अपने आत्मस्वरूप का प्रतिबोध हो गया है।
‘हमारा मन अपरिमित शक्ति का खजाना है’
मन की शक्ति असीम है,
करके देख तू एक।
मन से मोक्ष को पा गये,
हो गये सन्त अनेक ।। 1149 ।।
व्याख्या :-मन की शक्तियों पर प्रकाश डालने से पूर्व यह बताना प्रासंगिक होगा कि (1) ‘मन’ का अस्तित्व क्या है? (2) मन की उत्पत्ति कैसे होती है? (3) मन का स्वरूप क्या है? (4) मन का निवास स्थान कहां है? (5) मन का सम्बन्ध क्या है? (6) मन का स्वभाव चंचल क्यों है? (7) मन को काबू में कैसे किया जा सकता है। (8) मन का कार्य क्या है? (9) मन का लक्षण क्या है? पहले प्रश्न का उत्तर-न्याय तथा वैशेषिक दर्शनकार ‘मन’ को ‘अणु’ मानते हैं, तथा इसके अस्तित्व का लक्षण इस सूत्र से देते हैं-युगपन्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम्। (न्याय दर्शन अ. 3, आ. 2, सूत्र 63)
अर्थात एक समय में इकट्ठे दो ज्ञानों को न होने देने वाला तत्व ‘मन’ कहलाता है।
दूसरे प्रश्न का उत्तर है-सृष्टि के रचना क्रम में महत्तम के बाट, समष्टि अहंकार से रज, सत्व के संयोग से मन की उत्पत्ति होती है। इसलिए मन का पिता अहंकार कहलाता है।
तीसरे प्रश्न का उत्तर-यह ‘मन’ अनुद्भूत-प्रकाश का एक लघु सा पिण्ड है जिसमें दाह तथा स्पर्श नहीं है।
चौथे प्रश्न का उत्तर-आत्मा का निवास स्थान हृदय (चित्त) है जबकि मन का निवास स्थान मानव-मस्तिष्क के ब्रह्मरन्ध्र नामक स्थान में हैं, जिसे सहस्रार या सहस्रदल-कमल अथवा ‘दशम् द्वार’ भी कहते हैं। यहीं पर मानव का सूक्ष्म शरीर रहता है। यहीं पर स्थित स्वर्णिम ज्योतिगर्मय अण्डाकृति पिंड ‘बुद्घिमण्डल’ के शिखर में ‘मन’ स्थित है।
पांचवें प्रश्न का उत्तर :-मन का सम्बन्ध विशेष रूप से इन्द्रिय समूह, बुद्घि तथा स्थूल शरीर के साथ है, उसके कार्य व्यापार के साथ है। छठे प्रश्न का उत्तर-मन का स्वभाव चंचल इसलिए है क्योंकि ‘मन’ की उत्पत्ति तरंग से होती है। मन अनन्त तरंगों का समुच्चय है जैसे-आशा, तृष्णा, कल्पना, लालसा, वासना, कामना, सुकोमल, सद्भाव (प्रेम, प्रसन्नता, श्रद्घा, स्नेह, लज्जा, सन्तोष इत्यादि) दुर्भाव, अहंकार, संकल्प-विकल्प इत्यादि इसके उत्पत्ति के कारक हैं, जिनमें मुख्य उपादान कारक अहंकार है। मन कोई ठोस वस्तु नहीं है, अपितु वह तो सूर्य की सतरंगी किरणों से भी अतिसूक्ष्म है। जिस प्रकार इसके उत्पत्ति के कारण सदा चलायमान रहते हैं, ठीक इसी प्रकार मन भी सर्वदा चलायमान रहता है। क्रमश:

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