सोये शेर के मुखन में, हिरण कभी नहीं आय
प्रेम का शाश्वत नियम है- “प्रेम यदि हृदय में हो तो नेत्र में उतरता है, नेत्र से फिर वह सामने वाले के हृदय में उतरता है।”
यश धन अदने को मिलै,
तो अपनों से कट जाए।
ज्यों गुब्बारे में हवा,
अधिक आय फट जाए ॥786॥
‘अपनों से कट जाए’ से अभिप्राय है- निम्न श्रेणी के व्यक्ति यदि धन-यश मिल जाते हैं तो उसकी खोपड़ी खराब हो जाती है।
वह अहंकारी हो जाता है और उसकी वाणी में उद्वेग आ जाते हैं। वाणी और व्यवहार असंख्यात होने से वह झगड़ालू हो जाता है। स्वजनों के समझने पर भी वह मानता नहीं है। परिणाम यह होता है की वह अपनों से शनै: शनै: दूर हो जाता है।
अग्नि छिपी ज्यों काठ में,
संतन में क्षमा तेज।
अवसर पर प्रकट होवें,
भूलकै सभी गुरेज ॥787॥
संतन- सत्पुरुष
मानस में क्या घाट रहा,
सब चेहरे पर आ जाए।
मन की तरंगे मूक हैं,
दिल से दिल की कह जाए ॥788॥
मूक- शब्द रहित भाषा
पुरुषार्थ ही वो सीढ़ी है,
जो मंजिल पै पहुंचाय।
सोरे शेर के मुखन में,
हिरण कभी नहीं आय ॥789॥
चंचल चित और मूर्ख हो,
अमित्र से करै विचार।
परिणाम दुखद पावै सदा,
हंसी करै संसार ॥790॥
पुण्य कर्म के कारनै,
मनुष्य स्वर्ग में जाए।
पाप कर्म के मार तै,
घोर नरक में जाए ॥791॥
जिसके मनोगत भाव को,
जानना टेढ़ी खीर।
नेतृत्व टिकता है वही,
जो धीर वीर गंभीर ॥792॥
जो निज ज्ञान के कोश पर,
करता हो विश्वास।
राज्य धन और कीर्ति,
रहते उसके पास ॥793॥
‘निज ज्ञान के कोश’ से अभिप्राय है- अपने बल पर ही भरोसा करना।
आश्रितों में ऐश्वर्य,
जो बांट करै उपभोग।
स्वामी वही सुखी रहै,
शत्रु बनै न लोग ॥794॥
भाव यह है कि परिवार का मुखिया हो अथवा स्वामी (राजा) हो, उसे अपने आश्रित जनों और भृत्यों सेवकों के साथ ऐश्वर्य (धन संपत्ति) का भोग करना चाहिए, त्याग की भावना रखनी चाहे, अन्यथा आश्रितजन अथवा भृत्य शत्रु बन जाते हैं। सारांश यह है कि बांटकर खाने वाला सदा खुशी रहता है।
जिसका जिसके साथ में,
होता है व्यवहार।
वही हकीकत जानता,
बाकी बात निराधार ॥795॥
क्रमशः

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