युवा जीयें भविष्य में, ऐसा विधि-विधान
जो जन आसक्ति रहित,
अपनी सिद्धि में लीन।
भूसुर ज्ञानी तपस्वी,
मिलें दुर्लभ ऐसे कुलीन ॥813॥
स्वयं को करता माफ तू,
गैरों से प्रतिशोध।
ये तो आत्मप्रवंचना,
कब जागेगा बोध ॥814॥
आत्मप्रवंचना- अपने आपको धोखा देना।
कब जागेगा बोध से अभिप्राय है- अपनी गलती को मानने का विवेक कब जगेगा?
बृहस्पति बोलै असामयिक,
निज वाणी से बोल।
अपमानित होता सदा,
लोग ऊड़ावें मखोल ॥815॥
बृहस्पति: बुद्धि का देवता, देवगुरु भाव यह है की असामयिक वचन बोलने वाला बेशक देवगुरु बृहस्पति ही क्यों न हो लेकिन लोग फिर भी उसे अपमानित करते हैं, उपहास करते हैं और मूर्ख समझते है।
द्वेष के कारण श्रेष्ठ के,
गुण भी लगते दोष।
सहज भाव से देखिए,
फिर होगा अफसोस ॥816॥
हृदय कटुता से भरा,
सूखी करुणा की धार।
ऊसर खेत में बीज ज्यों,
क्या समझें वे प्यार ॥817॥
अर्थात जिनका हृदय कटुता यानि कि घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर, अहंकार इत्यादि शत्रुता के भाव से भरा हुआ है तथा सद्भावों से रहित है इसके अतिरिक्त हृदय को स्निग्ध करने वाला सुकोमल और पवित्र धारा भी सूखी हुई है। ऐसे निष्ठुर हृदय में प्रेम के अंकुरण की अपेक्षा करना वैसे ही व्यर्थ होता, जैसे किसी ऊसर जमीन में बीज बोना और फसल की अपेक्षा करना व्यर्थ होता है।
बूढ़े, जीयें अतीत में,
बच्चे वर्तमान।
युवा जीयें भविष्य में,
ऐसा विधि-विधान ॥818॥
श्रद्धा मेधा से श्रेष्ठ है,
दोनों के भिन्न हैं काम।
मेधा मिलावै जगत से,
श्रद्धा से मिलें राम ॥819॥
केचुली त्याग कै सर्प ज्यों,
मन ही मन हर्षाय।
अधर्म की राशि त्याग कै,
सत्पुरुष खुशी मनाय ॥820॥
पक्षी के अंडे खाय कै,
सर्प बहुत इठलाय।
दौलत मिलै हराम की,
खल फूला नहीं समय ॥822॥
आत्मश्लाघा असूया से,
निज कल्याण का नाश।
अपयश का भागी बनै,
हो अवरुद्ध विकास ॥823॥
आत्मश्लाघा- अपनी शेख़ी बघारना
असूया- दूसरों के गुणों में भी दोष देखना
आलसी व्यसनी लालची,
चपलता जड़ता में लीन।
अनर्गल बातें करै,
ऐसा छात्र हो विद्याविहीन ॥824॥
व्यसनी- मादक पदार्थों का सेवन करने वाला तथा अश्लीलता में रुचि रखने वाला।
चपलता- एकाग्रचित न होना
अनर्गल बातें- अप्रासंगिक बातों में समय को व्यर्थ बिताना।
विद्याविहीन- विद्या से वंचित।
क्रमशः

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