तालमेल विश्वास हो, बने प्रगति का प्रभात

बिखरे मोती-भाग 198

ठीक इसी प्रकार हमारी जीवनी नैया के भी दोनों तरफ चप्पू लगे हैं। एक है लौकिक उन्नति, भौतिक उन्नति का और दूसरा है पारलौकिक उन्नति (आध्यात्मिक उन्नति) का, कैसी हास्यास्पद स्थिति है? पाना चाहते हैं ‘आनंद’ को और चप्पू चलाते हैं, माया का, रात-दिन एक ही रट हाय माया? हाय रूपया पैसा!!! तो माया के संसार में सुकून कैसे मिलेगा? आनंद कैसे मिलेगा? इस संदर्भ में कवि कितना सुंदर कहता है :- 
सुकून-ए-दिल जहाने
बेशो-कम में ढूंढऩे वाले।
यहां हर चीज मिलती है,
सुकून-ए-दिल नही मिलता।।
व्याख्या :-इसलिए हे भोले भाई यदि आनंद को पाना चाहते हो तो लौकिक उन्नति (भौतिक उन्नति) के साथ-साथ पारलौकिक उन्नति (आध्यात्मिक उन्नति) पर विशेष ध्यान दें। जीवन का लक्ष्य केवल मात्र धनार्जन नहीं, अपितु ‘आनंद प्राप्ति’ बनायें, पुण्यार्जन (भक्ति और भलाई) बनायें ताकि आनंदांश आत्मा को पूर्णानंद मिल जाए, परमानंद मिल जाए, अन्यथा तो माया के फंदे में फंसकर बार-बार जन्म लेते रहोगे और मरते रहोगे, आवागमन के क्रम से मुक्त नहीं हो सकोगे। इसलिए बंधुवर! जीवन का लक्ष्य माया-प्राप्ति नहीं, अपितु आनंद प्राप्ति रखिये। न जाने कितने पुण्यों के बाद, कितने जन्मों के बाद यह मानव जीवन मिला है जो परमपिता परमात्मा का अनुपम उपहार है। इसे सार्थक करो, निरर्थक नहीं। भाव यह है कि जीवन का अंतिम लक्ष्य आनंद प्राप्ति रखो, केवल भोग प्राप्ति (माया) ही नहीं। 
कार्य और व्यवहार में,
जो नर हो निष्णात।
तालमेल विश्वास हो,
बने प्रगति का प्रभात ।। 1131।।
व्याख्या :-इस संसार में कौन नहीं चाहता कि मेरा व्यक्तित्व आकर्षक हो, प्रभावशील हो, प्रेरणादायक हो, जननायक हो, लोकनायक हो? अर्थात ऐसा बनना तो सभी चाहते हैं, किंतु ऐसा होना खाला जी का घर नहीं है, बड़ी टेढ़ी खीर है। इस संदर्भ में पाश्चात्य विचारक डा. ग्रेगरी के ये शब्द बड़े ही प्रेरक हैं-”आत्मविश्वास, कार्यकुशलता, व्यवहारकुशलता, परिस्थिति से तालमेल, सकारात्मक दृष्टिकोण, लक्ष्य के प्रति समर्पण दृढ़ संकल्प शक्ति, साहस और प्रसन्नचित स्वभाव, मंगल कामना स्वच्छ आत्मछवि इत्यादि सदगुणों का समुच्चय जिस व्यक्तित्तव को अलंकृत करता है, उसका प्रभुत्व सबके दिलों पर ऐसे छा जाता है जैसे सूर्य निकलने पर पृथ्वी पर स्वर्णिम प्रभात छा जाता है। अत: मनुष्य को उपरोक्त सद्गुणों को अर्जित करने के लिए सर्वदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।”
मनुष्य के अंदर आत्मविश्वास तो अपने विषय के गंभीर ज्ञान से आता है, जबकि संसार उस पर विश्वास तब करता है- जब कसौटी पर खरा उतरता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह आत्मविश्वास के साथ-साथ समाज अथवा संसार का विश्वास-पात्र भी बने। इसके अतिरिक्त अपने कार्य में दक्ष (श्व3श्चद्गह्म्ह्ल) होना चाहिए, माहिर होना चाहिए तथा तुम्हारा काम तुम्हारी पहचान बन जाए। लोग दूसरों से पूछें कि इतना सुंंदर काम किसने किया? तुम्हारा व्यवहार मन-मोहक होना चाहिए। वाणी बड़ी मधुर (सरस) और परिष्कृत (मंजी हुई) होनी चाहिए, क्योंकि व्यवहारिक आधार वाणी होती है। इतना ही नहीं उसके व्यवहार में अकड़ नहीं, अपितु लचीलापन होना चाहिए अर्थात विषम परिस्थितियों से तालमेल बैठाने की कला में वह निपुण होना चाहिए। निस्संदेह ऐसे व्यक्ति के जीवन में प्रगति और प्रतिष्ठा का प्रभात होता है अर्थात सुख, समृद्घि, सुयश का सबेरा होता है तथा दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बनता है। क्रमश:

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