अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपनी नियुक्ति के तुरंत बाद सबसे पहला कार्य अपने देश में सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर रोक लगाने का किया है। उन्होंने कहा है कि यह रोक फिलहाल 90 दिन के लिए रहेगी। जिसे बाद में बढ़ाया भी जा सकता है। ट्रम्प के प्रशासन की नीति है कि ईरान, इराक, सीरिया, लीबिया, यमन, सूडान और सोमालिया जैसे मुस्लिम देशों के नागरिकों को अमेरिका में घुसने से रोका जाए। क्योंकि इनके प्रवेश से देश में अस्थिरता फैलती है और अमेरिका को अनचाहे में ही अपनी सुरक्षा पर मोटी धनराशि खर्च करनी पड़ती है। श्री ट्रम्प  का यह कार्य सुविचारित और सुनियोजित था। जिसे उन्होंने अपने लिए वोट मांगने के दौरान ही लोगों के सामने स्पष्ट कर दिया था कि यदि वह अमेरिका के राष्ट्रपति बनते हैं तो वे अपने देश की पवित्र भूमि पर आतंकवाद की फसल बोने से रोकने के लिए कठोर कदम उठाएंगे। वह नही चाहेंगे कि अमेरिका की पवित्र भूमि पर कोई बाहरी शक्ति अमेरिका के ही विनाश का खेल खेले।
वैसे देखा जाए तो किसी भी देश की भूमि पर उसका अपना अधिकार होता है वह उसका जैसे चाहे प्रयोग करें। यह उसका अपना निजी मामला है। किसी भी आतंकी संगठन को या उस देश से शत्रुता मानने वाले किसी देश को उसी देश की भूमि पर रहकर उसी का खाकर उसी के विनाश के लिए ‘बम फैक्टरी’ बनाने या स्थापित करने के लिए खुला नहीं छोड़ा जा सकता। हर देश के लिए यह प्राथमिकता होनी ही चाहिए कि उसकी एकता, अखण्डता और संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाली शक्तियों से वह अपनी सुरक्षा कर सके।
कुछ लोग अमेरिकी राष्ट्रपति के इस निर्णय को नस्लभेदी कहकर इसकी आलोचना कर रहे हैं। उनका मानना है कि इस प्रकार के उग्र निर्णयों से विश्व में तनाव बढ़ेगा और हो सकता है कि विश्व को तीसरे विश्व युद्घ का सामना करना पड़ जाए। ऐसे लोगों की आलोचना भी निराधार नही है, परंतु उनकी आलोचना पूर्णत: स्वस्थ हो यह नहीं कहा जा सकता। उन्हें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि अमेरिका के राष्ट्रपति के उग्र निर्णय से पूर्व जिन लोगों ने अपने उग्रवादी संगठन बनाकर विश्व को नष्ट करने का ठेका ले लिया है और उनके इस कार्य में उनके देशों की सरकारें भी अपना सहयोग कर रही हैं विश्व के लिए पहला उग्रवादी निर्णय उनका है। जब सरकारें अपनी मर्यादाएं भूल जाती हैं और मानवता के प्रति अपने कत्र्तव्य की अनदेखी करने लगती हैं तब यह माना जा सकता है कि उन देशों की सरकारों ने अपने लोगों को विदेशों की दृष्टि में स्वयं ही संदेहास्पद बनाने का कार्य कर दिया है। इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण पाकिस्तान है। जहां की सरकारें भी उग्रवाद पोषण की नीतियों का अनुगमन करती रही हैं? इस देश ने उग्रवाद की खेती अपनी भूमि पर करनी आरंभ की और आतंकवाद की तैयार फसल का निर्यात करना इसका सबसे बड़ा राष्ट्रीय धंधा बन गया। इसे अमेरिका सहित कई बड़ी शक्तियों को आतंकवाद के नाम पर मूर्ख बनाने का अवसर मिला। जिससे इसने भारत के विरूद्घ हथियारों की बड़ी खेप प्राप्त करने में भी सफलता प्राप्त कर ली। धीरे धीरे इस देश का साहस इतना बढ़ा कि इसने आतंकवाद की फैक्टरी दूसरे देशों में भी लगाने के टैंडर जारी कर दिये।
आज अमेरिका प्रशासन के लिए पाकिस्तान का यह दोगला और खतरनाक चरित्र कोई छिपी हुई बात नहीं है, फिर भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस देश के साथ कोई कार्यवाही न करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। अमेरिकी प्रशासन ने पाकिस्तान पर भी नजर रखने की बात कही है फिर भी इस बात पर आश्चर्य ही व्यक्त किया जाना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने पाकिस्तान को अपने यहां पाक नागरिकों को भेजने की छूट देकर फिलहाल उसकी विनाशकारी नीतियों को संरक्षण ही दिया है। जिससे अमेरिकी प्रशासन का दोगलापन एक बार पुन: उजागर हुआ है।
जहां तक भारत और आतंकवाद की बात है तो अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्णय से भारत को भी शिक्षा लेनी चाहिए। इसकी पवित्र भूमि पर पाकिस्तान ही नहीं बांगलादेश भी आतंकी गतिविधियों में लगा हुआ है। इस देश ने बांगलादेश में रह रहे हिंदुओं पर अत्याचार कर करके उन्हें लगभग समाप्त कर लिया है। हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकारों ने अपनी आपराधिक तटस्थता का परिचय देते हुए पाक व बांगलादेश में हिंदुओं का विनाश होने दिया। यह भारतीय नेतृत्व की नपुंसकता ही थी कि इसने इन दोनों पड़ोसी देशों में हिंदुओं के विनाश को केवल इसलिए होने दिया कि यदि हम हिंदुओं की रक्षा की बात कहेंगे तो हम विश्व में साम्प्रदायिक कहलाएंगे। हां, यदि पाकिस्तान में कोई ईसाई मारा जाए तो उस पर हमारा नेतृत्व अवश्य सक्रिय सा हुआ दिखाई दिया। उसमें उसे लगा कि यदि इसका विरोध किया जाएगा तो इससे भारत मानवीय भावनाओं के प्रति संवेदनशील देश बनेगा। क्या मूर्खता है कि अपने हिंदू कटें-घटें तो उस पर प्रतिक्रिया देते समय हमारे नेताओं को साम्प्रदायिक होने का डर लगता है और एक ईसाई मरे तो इन्हें अपने मानवतावाद की याद आने में कोई देर नहीं लगती। लगता है कि हमारी सरकारों की दृष्टि में हिंदुओं में कोई आत्मा नहीं होती। किसी देश की सरकार जब ऐसी पराजित मानसिकता से भर जाती है तब वह ‘स्व’ की रक्षा करने में असफल हो जाती है।
अमेरिका के राष्ट्रपति का उक्त निर्णय विश्वयुद्घ को निकट लाएगा या उसे भगाएगा। आज इस पर चर्चा की आवश्यकता नहीं है। देखना केवल ये है कि जो लोग विश्व के विनाश की योजनाओं में लगे हैं उनके प्रति विश्व के 10-20 देश यदि ट्रम्प  जैसी नीति को ही अपना लें, तो जो लोग इस्लाम के नाम पर खूनी खेल खेलकर इस संप्रदाय को बदनाम करने में लगे हैं-उनकी नीतियों पर अंकुश लग सकता है। ‘बचाव में ही बचाव है’ का अभिप्राय छुपकर बचते बचते निकलने की पराजित मानसिकता का प्रदर्शन करना नहीं है, अपितु मजबूती से अपनी सुरक्षानीति के लिए कदम उठाना और उन्हें लागू करना है। मजबूती से जिस दिन विश्व आतंकियों के विरूद्घ और उनके आश्रयदाताओं के विरूद्घ उठ खड़ा होगा, उस दिन विश्व आतंकवाद भी मुक्ति का मार्ग ढूंढ़ लेगा, भारत को अमेरिकी राष्ट्रपति के निर्णय से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।

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