अपनी वीरता के कारण बालक त्यागमल बन गया था तेगबहादुर

भारतीय वीर परंपरा का मूल स्रोत
पंजाब की गुरूभूमि के प्रति औरंगजेब और उसके अधिकारियों की कोप-दृष्टि बढ़ती ही जा रही थी। पर पंजाब की गुरू परंपरा जनता में औदास्यभाव को समाप्त कर स्वराज्य भाव की ज्योति को ज्योतित किये जा रही थी। मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है :-
”आने न दो अपने निकट औदास्यमय उत्ताप को,
आत्मावलंबी हो, न समझो तुच्छ अपने आपको।
है भिन्न परमात्मा तुम्हारे अमर आत्मा से नही
एकत्व वारि तरंग का भी भंग हो सकता कहीं?”
यह भाव वास्तव में भारतीय वीर परंपरा का मूल स्रोत है। जिजीविषा के साथ जीवन जीना और उसके साथ-साथ जीवन को उत्कृष्टता प्रदान करना भारतीय वीरों की अदभुद जीवन शैली रही है। अपनी इसी जीवन शैली के कारण इस वीरजाति ने सैकड़ों वर्ष तक अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
वीरता की ध्वनि गुंजरित हो चुकी थी
पंजाब की ‘गुरू परंपरा’ ने इस जीवनशैली को बड़े आदर से भारत की मुख्यधारा बनाकर पंजाब में प्रवाहित किया, मानो पंजाब की पांचों नदियों का जल कल-कल करके जिस संगीत का गुंजार उस समय कर रहा था-उससे उस काल में प्रतिक्षण बलिदान और त्याग का संगीत गुंजायमान हो रहा था। चारों ओर वीरता की ध्वनि गुंजरित हो चुकी थी। रामनरेश त्रिपाठी की ये पंक्तियां अपना अलग ही संगीत निकाल रही थीं :-
एक घड़ी की भी परवशता कोटि नरक के सम है।
पलभर की भी स्वतंत्रता सौ स्वर्गों से उत्तम है।
जब तक जग में मान तुम्हारा तब तक जीवन धारो।
जब तक जीवन है शरीर में तब तक धर्म न हारो।।
…..और भारत अपनी इसी महान परंपरा का निर्वाह करते हुए अपने गंतव्य-पथ पर निरंतर आगे बढ़ता जा रहा था, भारत को ‘जयचंदी परंपरा’ यदि कहीं क्षति पहुंचा रही थी तो इसकी सनातन वीर परंपरा इसे निरंतर आगे बढऩे के लिए प्रेरित कर रही थी।
पंजाब में आ गये तेग बहादुर
पंजाब की गुरू परंपरा में गुरू तेगबहादुर जी का नाम विशेष सम्मान और आदरभाव के साथ लिया जाता है, उनका जन्म एक अप्रैल 1621 ई. को गुरू हरिगोबिन्द जी के घर में हुआ था। इनका बचपन का नाम त्यागमल था। त्यागमल अपने बहन भाईयों में सबसे छोटे थे। इनके सबसे बड़े भाई का नाम गुरदित्ता, दूसरे का सूरजमल, तीसरे का अणीराम और चौथे का अटलराम था। जबकि इनकी एक कुमारी वीरो जी नाम की एक बहन भी थी। बालक त्यागमल की शिक्षा की व्यवस्था और पालन पोषण का समुचित प्रबंध किया गया था।
विधि का विधान बड़ा अदभुत होता है
विधि का विधान बड़ा अदभुत होता है व्यक्ति कुछ और करना चाहता है तो विधि का विधान उससे कुछ और कराना चाहता है। कभी-कभी बचपन में बच्चा अपना लक्ष्य कुछ निश्चित करता है तो विधि की व्यवस्था या परिस्थितियों का प्रवाह उसे कहीं और ही उठाये ले जाता है।
संसार के अधिकांश महापुरूषों के साथ ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं कि जिन पर उनका अपना कोई वश नही रहा, वे घटनाएं उनके जीवन में घटीं और उन्हें कोई न कोई ऐसी शिक्षा दे गयीं कि उनका जीवन क्रांतिकारी परिवर्तनों की ओर बढ़ चला।
बालक त्यागमल भी कुछ ऐसी ही घटनाओं से प्रभावित हुआ। जब त्यागमल मात्र 6 वर्ष के थे तो उसी काल में उनकी बहन का विवाह समारोह संपन्न हुआ था। तब मुगल प्रशासक कुलीज खां ने एक बाज पक्षी को लेकर सिखों के साथ झगड़ा कर लिया। जिससे मुगलों ने आक्रोशित होकर अमृतसर पर आक्रमण कर दिया। वैसे भी मुगल गुरू परंपरा से किसी न किसी प्रकार झगड़ा करने का मन भी बना रहे थे। वे लोग किसी भी मूल्य पर पंजाब में गुरू सत्ता की उपस्थिति नही चाहते थे।
अमृतसर में दोनों पक्षों में घोर संग्राम हुआ। इस संग्राम को बालक त्यागमल की आंखें देख रही थीं। चारों ओर सिखों की वीरता और मुगलों की क्रूरता के दृश्य परस्पर विरोधाभासी स्थिति उत्पन्न कर रहे थे, इससे बालक त्यागमल को बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था। बच्चा त्यागमल के लिए यद्यपि यह अवस्था खेलने की थी, परंतु उसके लिए यही अवस्था पौधशाला की अवस्था बन गयी थी, और उसने निश्चय कर लिया कि बड़ा होकर वह अपने विशाल राष्ट्र रूपी गमले का सुगंधि युक्त पुष्प देने वाला पौधा बनेगा।
नये संकल्प के साथ आगे बढ़े
बच्चों के संकल्प ही उनके जीवन की दिशा और दशा में उल्लेखनीय परिवर्तन ला दिया करते हैं। विधि का विधान तब फलित विधान बन जाया करता है जब कोई बच्चा संकल्पित होकर कुछ नया और अनोखा करने की प्रेरणा के साथ आगे बढऩे लगता है। इन्हीं दिनों गुरू ने अपने परिवार को झबाल गांव पहुंचाने का आदेश दिया। जिस समय गुरू हरगोविन्द जी ने हरगोबिन्दपुर नामक स्थान पर मुगलों के साथ संघर्ष किया था उस समय बालक त्यागमल की अवस्था मात्र नौ वर्ष की थी। इस युद्घ में गुरू हरगोबिन्द ने अब्दुल्ला खां को पटक कर मार डाला, जिसे बालक त्यागमल ने अपनी आंखों से देखा था।
इस प्रकार की कई घटनाओं ने बालक त्यागमल के जीवन को गंभीरता से प्रभावित किया और वह राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के प्रति आकर्षित होते चले गये।
यूं पड़ा तेगबहादुर नाम
महापुरूषों का निर्माण विपरीत परिस्थितियों में हुआ करता है और विषमताओं से जो भाग खड़ा होता है उनका बना-बनाया जीवन भी नष्ट हो जाता है। यही कारण है कि विपरीत परिस्थितियों में महापुरूष हंसते हैं, और साधारण पुरूष रोते हैं।
गुरू हरगोबिन्द जी का जीवन मुगलों से संघर्ष के साथ व्यतीत हुआ। कहते हैं कि गुरू गुरू हरगोबिन्द जी ने अपने जीवनकाल में एक पैंदेखान नामक पठान को शस्त्र प्रशिक्षण दिया था, जिसने समय आने पर ‘गुरू दक्षिणा’ यह दी कि वह कुछ अन्य मुगल सैनिकों को साथ लेकर गुरूजी से युद्घ करने के लिए चला आया। गुरूजी को अपने ही शिष्य का यह कृत्य देखकर असीम दु:ख तो हुआ, पर वह अब क्या कर सकते थे? अब तो युद्घ करना आवश्यक विवशता बन गयी थी। ‘यवन चरित्र’ का यथार्थ उनके सामने था, इसलिए अपना धर्म पहचानकर गुरूजी ने युद्घ की चुनौती स्वीकार कर ली।
गुरूजी की सेना युद्घ के लिए प्रस्थान कर चुकी थी और मैदान में आकर शत्रु से दो-दो हाथ करने लगी थी। कालेखां नामक एक अन्य मुगल सेनानायक कुछ और सेना लेकर दूसरी ओर से गुरूजी की शिष्य सेना को घेर चुका था। इस युद्घ में गुरूजी की ओर से सेना की बागडोर उनके ज्येष्ठ पुत्र गुरदित्ता ने संभाली और बड़ी वीरता से शत्रु सेना का सामना किया। गुरदित्ता जी की सहायता के लिए भाई बिधीचंद व अन्य वीर सिखों ने अपना विशिष्ट योगदान दिया।
त्यागमल अब चौदह वर्ष का किशोर हो चुका था। अब उसके लिए यह संभव नहीं था कि वह केवल युद्घ को देखता रहेगा। अब तो वह युद्घ देखते-देखते युद्घ करना भी सीख चुका था। इसलिए उसने इस बार युद्घ में ज्येष्ठ भ्राता की सहायता करते हुए राष्ट्ररक्षा में अपना योगदान देने का निर्णय लिया।
किशोर त्यागमल युद्घ क्षेत्र में कूद पड़ा और बड़ी निर्भीकता से अपनी तलवार से शत्रु का अंत करने लगा। उसने अनेकों मुगलों को धूल चटा दी और मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अदम्य साहस का परिचय दिया।
पिता गुरू हरगोबिन्द जी ने पुत्र के शौर्य प्रदर्शन को देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ अनायास ही कह दिया कि ‘तेगबहादुर’ है त्यागमल। बस, यहीं से त्यागमल का जगप्रसिद्घ नाम तेगबहादुर पड़ गया। तब से हम उन्हें इसी नाम से जानने लगे। इस प्रकार त्यागमल से तेगबहादुर बनने की उनकी कहानी भी बड़ी रोमांचकारी है।
आसाम का राजा चक्रध्वज और गुरू तेगबहादुर
अक्टूबर 1666 ई. में गुरू तेगबहादुर ढाका नगर पहुंचे। लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। यहां रहते हुए उन्होंने लोगों को धर्मोपदेशन किया। उनकी ऐसी गतिविधियां औरंगजेब के लिए नितांत असहनीय होती जा रही थीं। उसका वश चलता तो वह उन्हें घर से भी नहीं निकलने देता। गुरूजी की राष्ट्रव्यापी छवि बनते देखना और लोगों का उनकी ओर आकर्षित होना औरंगजेब के लिए कष्टप्रद था।
जिन दिनों गुरू तेगबहादुर ढाका नगर में थे, उन दिनों आसाम का राज्यशासन नरेश चक्रध्वज के हाथों में था। चक्रध्वज अपने धर्म और संस्कृति का रक्षक था, उसके भीतर प्रबल देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी और वह औरंगजेब की या किसी भी तानाशाह बादशाह की पराधीनता को स्वीकार नहीं करता था। जब देश में छत्रपति शिवाजी जैसे राष्ट्रपुरूष विचरण कर रहे हों, तो यह स्वाभाविक ही है कि उनके व्यक्तित्व की दिव्य आभा चक्रध्वज जैसे वीर देशभक्त राजाओं को भी प्रभावित करती।
अच्छाई-बुराई का विस्तार
लोगों का कहना यह होता है कि अच्छाई दस कोस फैलती है तो बुराई सौ कोस फैलती है। इसका अर्थ यह है कि समाज के लोग बुराई से घृणा करते हैं और ऐसे व्यक्ति के प्रति सचेत, सावधान और सतर्क रहना चाहते हैं जो समाज और राष्ट्र की मुख्यधारा में किसी न किसी प्रकार बाधा पहुंचाये। अत: ऐसे व्यक्ति की बात को लोग यथाशीघ्र फैलाते हैं जिससे कि अन्य लोग सावधान हो जाएं। बुराई के शीघ्र फैलने या फैलाने के पीछे का सदाशय यह होता है पर हमें ऐसा लगता है कि जैसे लोग बुराई से प्रेम करते हैं और इसीलिए वह अच्छाई की अपेक्षा शीघ्रता से फैलती है।
अब यदि हम थोड़ा और सूक्ष्मता से देखें तो ज्ञात होता है कि अच्छाई समाज में मौन रहकर फैलती है और क्रांति लाने का काम करती है। लोग मौन रहकर अच्छाई की ओर आकर्षित होते हैं और क्रांतिकारी बनकर ‘क्रांति पुरूष’ के साथ हो लेते हैं केवल बुराई के विकार का प्रतिशोध करने के लिए।
क्या आगे चलकर सुभाष चंद्र बोस ने किसी को घर-घर जाकर बुलाया था कि-‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा और आओ मेरे साथ अंग्रेजों से युद्घ करेंगे।’ उन्होंने किसी को नहीं बुलाया। बस, एक स्थान पर से आवाज लगायी और देश के लोगों में उनके शब्दों का विद्युत सम प्रभाव हुआ। इसका अभिप्राय है कि अच्छाई भी तेजी से दौड़ती है और बुराई से प्रतिकार करने के लिए उठ खड़ी होती है। यह नियम हर काल में यथावत लागू होता रहा है। जब हमें अपना संपूर्ण स्वातंत्रय समर का इतिहास पढ़ाया जाता है तो उसमें हमें ऐसा आभास कराया जाता है कि उस समय हिन्दुस्थान के लोगों में राष्ट्रीयता का भाव नहीं था।
हमारा मानवतावाद और राष्ट्रवाद
अब यदि एक बार कुछ क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि हममें उस समय राष्ट्रीयता का भाव नहीं था तो भी ऐसे कुतर्क प्रस्तुत करने वाले तथाकथित प्रगतिशील लेखकों को यह विचार करना चाहिए कि हममें उस समय मानवता का भाव तो था। मानवता का अभिप्राय भी राष्ट्रीयता का भाव ही होता है। क्योंकि मानवता हम सबकी सामूहिक संवेदनाओं का केन्द्र है जहां से एक की पीड़ा सारे समाज को आंदोलित और प्रभावित करती है। हमें लगता है कि जो लोग हमें केवल मानवतावादी मानकर राष्ट्रवादी न मानने की अपनी स्वनिर्मित कल्पनाओं में रहते हैं उनके लिए हमारा मानवतावादी होना ही पर्याप्त है। क्योंकि हमारा मानवतावाद ही संपूर्ण राष्ट्रवाद का आधार है।
इसी मानवतावाद ने राष्ट्रवाद का रूप लेकर हमारे देश के लोगों को परस्पर जोडऩे और बुराई का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। लोग बुराई का प्रतिकार करने वाली राष्ट्रीय प्रतिभाओं से प्रेरित होते गये और उनके प्रति संयुक्तभाव का प्रदर्शन करने लगे।
आसाम का राजा चक्रध्वज और औरंगजेब
ऐसी परिस्थितियों में आसाम का राजा चक्रध्वज अपनी समकालीन परिस्थितियों और व्यक्तित्वों से भला कैसे निरपेक्ष रह सकता था। (ऐसा किया जाना किसी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के लिए तो संभव था, परंतु राष्ट्रभक्त के लिए नही)। राजा चक्रध्वज ने राष्ट्रप्रेम से प्रेरित होकर औरंगजेब को अपनी स्वतंत्रता के गीत सुनाने आरंभ कर दिये।
औरंगजेब देश के विभिन्न भागों से उठ रही स्वतंत्रता की स्वर लहरियों को सुनते-सुनते पागल हो चुका था, उसने आसाम की ओर से भी जब ऐसी ही स्वर लहरियों को सुना तो वह राजा चक्रध्वज का ‘उपचार’ करने के लिए सक्रिय हो उठा।
औरंगजेब ने नरेश रामसिंह जैपुरिया को अपनी मुगल सेना का नायक बनाकर चक्रध्वज का ‘उपचार’ करने के लिए आसाम पर आक्रमण करने के लिए एक विशाल सेना के साथ भेजा। राजा चक्रध्वज की ओर से नरेश रामसिंह जैपुरिया की सेना का मनोबल तोडऩे के लिए मार्ग में ऐसी ‘अफवाहें’ फैला दी गयीं कि वहां (आसाम में) ऐसी जादूगरनियां रहती हैं जो पलक झपकते ही क्षण भर में बड़ी से बड़ी सेना को समाप्त कर सकती है। तब राजा रामसिंह ने इस प्रकार की शक्तियों का सामना करने के लिए गुरू तेगबहादुर से आशीर्वाद लेना उचित समझा और गुरू तेगबहादुर ने उसे अपना आशीर्वाद दिया भी। इस घटना ने आसाम के शासक चक्रध्वज के मनोबल पर यद्यपि विपरीत प्रभाव डाला परंतु उसके उपरांत भी वह अपने सीमित साधनों के साथ ही राजा रामसिंह जैपुरिया से लडऩे लगा।
राजा चक्रध्वज को झुकना पड़ गया
कुछ लोगों ने चक्रध्वज को वामपंथी माना है, पर ऐसा वास्तव में था नही। उसका अपने देश के प्रति लगाव था, प्रेम था और उसी के वशीभूत होकर वह औरंगजेब को चुनौती देने लगा था। दो दिन के संघर्ष के पश्चात यह देशभक्त शासक झुक गया और गुरूतेगबहादुर ने राजा रामसिंह और चक्रध्वज के मध्य समझौता करा दिया।
गुरू तेगबहादुर ने दोनों में संधि करायी और संधि की शर्तों को निष्ठापूर्वक पालन करने के लिए दोनों को निर्देशित किया। तदुपरांत गुरू तेगबहादुर ने दोनों राजाओं की पगड़ी परिवर्तित करा कर दोनों को ‘पगड़ी-बदल’ धर्म भाई के सूत्र में बांध दिया।
राजा चक्रध्वज की आत्मा उसे धिक्कार रही थी, भीतर से वह नही चाहता था कि किसी प्रकार का संधि अथवा समझौता इन मुगल लोगों से किया जाए पर परिस्थितिवश उसके लिए अब यही उचित और अपेक्षित था। इसलिए उसने ‘आपदधर्म’ को स्वीकार कर तदनुसार आचरण किया।
इसके पश्चात गुरू तेगबहादुर को यह लाभ अवश्य हुआ कि वे अपने उपदेशामृत के लिए पूरे आसाम और बंगाल में प्रसिद्घ हो गये, बहुत से लोगों ने उनसे भेंट की और उनके प्रवचनों का आनंद लिया। त्रिपुरा नरेश रामराय भी ऐसे लोगों में से एक था।
अपने ढाका के सफल अभियान से प्रसन्नचित गुरू तेगबहादुर पंजाब लौट आये। वह पटना में कई माह रहे।
औरंगजेब के अत्याचार और हिंदू समाज
औरंगजेब अपनी क्रूरता और निर्दयता के लिए प्रसिद्घ था। उसके समय में किसी भी विधर्मी का सुरक्षित, संरक्षित होकर जीवन यापन होना सर्वथा असंभव था, क्योंकि धार्मिक असहिष्णुता उसके भीतर कूट-कूटकर भरी थी। हिंदुओं के प्रति उसका दृष्टिकोण नितांत, पशुवत होता था, उसने हिंदुओं के मंदिरों को ध्वस्त करने के लिए विधिवत एक राजाज्ञा जारी कर दी थी, देश के विभिन्न भागों में उसकी राजाज्ञा का पालन करते हुए हिंदुओं के मंदिरों का विनाश कर दिया गया, जिससे हिंदू समाज में बड़ी व्याकुलता उस समय फैल रही थी।
अनेकों मंदिरों का हुआ विध्वंस
औरंगजेब की राजाज्ञा मिलते ही हिंदू समाज के लोगों पर आपदा टूट पड़ी। इतिहासकारों ने माना है कि इस राजाज्ञा के परिणामस्वरूप मथुरा का केशवराय मंदिर, बनारस का गोपीनाथ मंदिर, उदयपुर के 235 मंदिर, अम्बेर के 66 मंदिर, जयपुर, उज्जैन, गोलकुण्डा, विजय नगर और महाराष्ट्र के अनेकों मंदिरों का विध्वंस कर दिया गया। सन 1669 ई. के एक अन्य शाही फरमान के द्वारा दिल्ली के हिंदुओं को यमुना किनारे मृतकों का दाह संस्कार करने की भी मनाही कर दी गयी। हिंदुओं के धार्मिक रीति रिवाजों पर औरंगजेब का यह सीधा हमला था। इसके साथ ही विशेष आदेश इस प्रकार जारी किये गये कि सभी हिंदुओं को एक विशेष कर पुन: देना होगा। जिसे जजिया कहते थे।
हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया गया
कुछ नरेशों को छोडक़र सभी हिंदुओं को घोड़ा अथवा हाथी की सवारी करने से वर्जित कर दिया गया। इस प्रकार के कुछ अन्य फरमान भी जारी किये गये, जिससे हिंदुओं के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचे। इन सभी बातों का तात्पर्य यह था कि हिंदू लोग तंग आकर स्वयं ही इस्लाम स्वीकार कर लें, अर्थात हिंदुओं को बादशाही अत्याचारों के माध्यम से धर्मांतरण के लिए बाध्य किया गया। तब हिंदुओं की ओर से इस प्रकार के आदेशों से कई स्थानों पर विद्रोह हुए। इनमें मध्य भारत के स्थानों की संख्या अधिक थी। सरकारी सेना ने विद्रोह कुचल डाले और हिंदुओं का कचूमर निकाल दिया।
(संदर्भ : ‘श्री गुरू प्रताप ग्रंथ’, लेखक-भाई जसवीर सिंह पृष्ठ-569)
औरंगजेब ने बनाईं दमनकारी नीतियां
ऐसी परिस्थितियों में औरंगजेब ने अपनी हिंदू प्रजा को और भी अधिक प्रताडि़त और उत्पीडि़त करने के लिए अपनी नीतियों में परिवर्तन किया। उसने कश्मीर की ओर से हिंदुओं को पूर्ण इस्लामीकरण करने की योजना बनाई।
वह चाहता था कि जो हिंदू अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते-लड़ते उसकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन रहा है, यदि वह ही नही रहेगा तो देश में स्वतंत्रता के नाम पर होने वाले नित्य प्रति के संघर्ष और विद्रोहों का अंत तो स्वयं ही हो जाएगा। यह बड़ा मनोरंजक तथ्य है कि बादशाह औरंगजेब (हर मुस्लिम सुल्तान की भांति) हिंदुओं से अपनी मुक्ति चाहता था और हिंदू बादशाह से अपनी मुक्ति चाहते थे।
बादशाह ने कश्मीर की ओर से अपनी इस धर्मान्धतापूर्ण योजना को सिरे चढ़ाना आरंभ कर दिया। उसने इफ्तारखान को शेर अफगान की उपाधि देकर कश्मीर में अपनी योजना को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से भेज दिया। इफ्तारखान ने शेर अफगान बनकर भारत की संस्कृति के प्राचीन गढ़ कश्मीर को हिंदूविहीन करने के लिए कठोर अभियान चलाया। उसने कश्मीर में जाते ही कश्मीरी पंडितों पर घोर अत्याचार करने आरंभ कर दिये। उसके अत्याचार नितांत क्रूरता पर आधृत होते थे। उसका लक्ष्य एक ही था-इस्लाम का प्रसार करके अपने बादशाह का कृपापात्र बनना। औरंगजेब ने इफ्तारखान को पूर्णत: खुली छूट देकर कश्मीर भेजा था। इसलिए उसके यहां शेर अफगान के किसी भी प्रकार के कुकृत्य को सुनने या उसके विषय में की गयी किसी शिकायत पर कोई न्यायपूर्ण निर्णय लेने या कार्यवाही करने का तो प्रश्न ही नहीं था। वह चाहता था कि पूरा हिंदुस्थान हिंदू विहीन हो जाए और चारों ओर केवल इस्लाम ही इस्लाम दिखाई दे।
कश्मीरी पंडित किंकत्र्तव्यविमूढ़ की स्थिति में
शेर अफगान के अत्याचार जितने बढ़ते जाते थे कश्मीर के पंडित (कश्मीर में पंडित किसी जाति का सूचक शब्द नही है, अपितु इसका सीधा सा अर्थ था हिंदू विद्वानों से। कश्मीर प्राचीनकाल से ही हिंदू विद्वानों के लिए पवित्र स्थली रही है, जहां इन लोगों ने तप करके अपने लिए मोक्ष प्राप्त किये हैं, इसलिए इन विद्वानों के लिए एक शब्द ‘पंडित’ रूढ़ हो गया ) उतने ही आतंकित होते जाते थे। ये लोग अपना धर्म त्यागने के लिए कदापि उद्यत नही थे। क्योंकि वह अपने धर्म की उत्तमता और पवित्रता को भली भांति जानते थे। उनका मानना था कि संसार समर के कलह-क्लेशों से मुक्त कर पूर्ण विश्रांति दिलाने वाला यदि कोई धर्म है तो वह वैदिक धर्म ही है। अत: उसकी रक्षा जिस सीमा तक की जा सके, उतना ही उचित होगा।
इस प्रकार की आतंकी स्थितियों में कश्मीरी पंडित फंस गये थे कि शेर अफगान उन्हें समाप्त करने पर लगा था और शेर अफगान के विरूद्घ बादशाह कुछ भी सुनने या कुछ भी करने को कदापि तैयार नही था। बादशाह से शिकायत करने का अर्थ भी मौत था और शेर अफगान तो साक्षात मौत का पर्याय बन ही चुका था। कश्मीरी पंडित किंकत्र्तव्यविमूढ़ की स्थिति में फंस चुका था। वह मार्ग खोज रहा था बाहर निकलने का पर निकल नहीं पा रहा था।
क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
-साहित्य संपादक)

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