भाई दयालाजी, भाई सतीदास और गुरू तेगबहादुर के बलिदान

वैदिक धर्म की महानता
मूलत: इस्लाम हिंदू विरोधी है। वह संसार में केवल इस्लाम की सत्ता चाहता है। औरंगजेब इसी इस्लामिक सोच को व्यावहारिक रूप देना चाहता था इसीलिए वह गुरू तेगबहादुर को मुसलमान बनाकर इस्लाम को सार्वभौमिक धर्म बना देना चाहता था। यह अलग बात है कि कोई भी मत या संप्रदाय सार्वभौमिक नही हो सकता। वैदिक धर्म अपने आप में मत या कोई संप्रदाय ना होते हुए भी और सार्वभौमिक सनातन रहकर भी लेागों की मतभिन्नता को समाप्त नही कर पाया। पर उसने यह माना कि संसार में विभिन्न भाषाभाषी और विभिन्न संप्रदायों के लोग रहते हैं तो उन्हें जीने का और अपना समग्र विकास करने का पूर्ण अधिकार है। बस, यही वैदिक धर्म की महानता कही जा सकती है। इसीलिए वह सनातन है क्योंकि उसमें प्रवाहमानता है। जबकि एक मत का संप्रदाय व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास को संकीर्ण और सीमित करता है, लोगों के मध्य भेद करता है। इस्लाम ने तो प्रारंभ से ही यह नीति अपनायी है।
हिंदू विरोधी इस्लाम
एम.आर.ए. बेग का कहना है-”वास्तव में औरंगजेब हिंदू विरोधी नही था किंतु इस्लाम था (और औरंगजेब इस्लाम का कट्टर अनुयायी था) और अभी भी वह हिंदू धर्म का विरोधी है।
औरंगजेब के इतिहास और उसकी ख्याति से यदि मुस्लिम भारतीय कुछ सीखना चाहें तो यह पाठ सीख सकते हैं कि कुरान का रूढि़वादी और दार्शनिक इस्लाम गैर-मुस्लिम ढांचे में फिट नही बैठ सकता, जिसके कारण भारतीय मुस्लिम भारत में रहते हुए भारत के नही हैं। इस स्थिति से निपटने का एक मात्र उपाय है-भारत के गैर मुस्लिम ढांचे को ही इस्लामी ढांचे में पूर्णत: परिवर्तित कर देना। वह यही करने जा रहे हैं।”
तब आज न भारत होता न भारतीयता
गुरू तेगबहादुर के काल में औरंगजेब यही करना चाहता था, अर्थात एक महापुरूष का अंत करके भारत के गैर इस्लामी ढांचे को ही इस्लामी ढांचे में परिवर्तित कर देना चाहता था। गुरूजी औरंगजेब की इस धारणा को परिवर्तित कर देना चाहते थे। इसलिए वह लाखों करोड़ों लोगों के धर्मांतरण को रोकने के लिए स्वयं का बलिदान करने को तत्पर थे। उनके बलिदान से औरंगजेब का एक बहुत ही क्रूर सपना टूटने जा रहा था। यदि उसका वह सपना (भारत का इस्लामीकरण) सच हो जाता तो आज न भारत होता और न भारतीयता। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरू तेगबहादुर का बलिदान हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण होने जा रहा था? इसलिए हमारी दृष्टि में गुरू तेगबहादुर का जीवन इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है।
भाई दयाला जी को दे दिया गया प्रस्ताव
भाई मतीदास जी की शहादत से उपजी वेदना और पीड़ा से लोग अभी उभर भी नही पाये थे कि क्रूर बादशाही ने भाई दयाला जी की शहादत की योजना बनानी आरंभ कर दी। भाई दयालाजी को अगले दिन ही मारने की तैयारी कर ली गयी। उनको मारने के लिए भी वही प्रस्ताव रखा गया जो अब तक के लाखों हिंदू वीरों के और बीते हुए कल के योद्घा भाई मतीदास जी के सामने रखा गया था-इस्लाम या मौत में से किसी एक को चुन लेना।
हां, इस वीर को समाप्त करने का ढंग भाई मतीदास को समाप्त करने के ढंग से भी अधिक निंदनीय और घृणित था। प्रस्ताव था कि यदि इस्लाम स्वीकार नही करते हो तो तुम्हें उबलते हुए पानी की देग में उबाल कर मार दिया जाएगा।
जब यह प्रस्ताव भाई दयालाजी को दिया गया तो उस महावीर पुरूष ने बड़ी शांति से अपने पूर्ववर्ती बलिदानी भाई मतीदास जी के बलिदान को स्मरण किया और उसे अपनी विनम्र श्रद्घांजलि अर्पित कर उसे आश्वस्त किया कि तेरे बलिदान को यह भारतमाता का सपूत व्यर्थ नही जाने देगा। परिणाम चाहे जो हो, जैसा हो पर हम मां भारती के सम्मान को ठेस नही लगने देंगे, जो परंपरा आपने अपनायी है-बलिदान की उसी परंपरा पर मेरा सिर भी प्रस्तुत है। इसलिए भाईजी ने तुरंत निर्णय ले लिया और संदेशवाहकों तथा काजियों को स्पष्ट कर दिया कि मेरे जीवन का अंत करना तो इस समय तुम्हारे हाथ में है, परंतु जब तक इस शरीर में प्राण हैं तब तब दयाला इस्लाम स्वीकार नहीं कर सकता।
सारे प्रलोभन ठुकरा दिये
काजियों ने भाई दयाला को समझाकर इस्लाम स्वीकार करने का अंतिम और एक असफल प्रयास किया। उन्होंने भाई दयालाजी को जीवन के सुख ऐश्वर्यों का लालच देकर किसी भी प्रकार से इस्लाम में दीक्षित हो जाने के लिए उपदेश देना आरंभ किया। परंतु इन सबके उपरांत भाई दयाला जी अपने मत पर अडिग रहे उन्हें भारत का विनाश रोकना था और भारत के ऋषि-मुनियों और सिख परंपरा के गुरूओं द्वारा जिस भारतीय संस्कृति का निर्माण किया गया था उसकी रक्षा करनी थी। इसलिए किसी प्रकार के प्रलोभन में आने का प्रश्न ही नही था।
भाई दयाला जी का बलिदान
जब काजी ने अपना उपदेश समाप्त कर लिया तब भाई दयालाजी ने कहना आरंभ किया-”काजी साहब जल्दी करो, वह (दयालाजी स्वयं) भी भाई मतीदास के पास पहुंचने के लिए लालायित हो रहा है। उसकी अंतिम इच्छा भी अपने गुरू श्री तेगबहादुर जी के समक्ष शहीद होने की है। तभी काजी के फतवे के अनुसार जल्लादों ने देग में पानी डालकर भाई दयालाजी को बिठा दिया और चूल्हे में आग जला दी। ज्यों-ज्यों पानी गर्म होता गया, त्यों-त्यों भाई जी गुरूवाणी उच्चारण करते हुए अपने गुरूदेव के सम्मुख अकालपुरूष के चिंतन में विलीन होते गये। पानी उबलने लगा। भाई जी के चेहरे पर दिव्य ज्योति छाई और वह शांत चित्त, अडिग, ज्योति-ज्योत समा गये और अपने विश्वास को आंच नही आने दी।” (संदर्भ श्री गुरू प्रताप ग्रंथ पृष्ठ 577)
यह थी हमारी सात्विक वीरता। यही था वास्तविक सत्याग्रह जिसमें किसी प्रकार के समझौते की कोई संभावना नही थी। इस सत्याग्रह ने भारतीयों को आगे चलकर गांधी के नेतृत्व में लडऩे की प्रेरणा दी। पर गांधी और गुरू तेगबहादुर जी व उनके शिष्यों के सत्याग्रह में जमीन-आसमान का अंतर रहा। जिसे हम आगे चलकर स्पष्ट करेंगे।
भाई सतीदासजी भी पीछे नही रहे
भाई सतीदास जी भी गुरू तेगबहादुर के साथ शहीद होने वाले तीसरे सिख थे। उनका सूर्य जैसा तमतमाता चेहरा और स्वाभिमानी मस्तक भी कुछ ऐसी ही कहानी कह रहा था कि बलिदान मुझे भी प्यारा है, और चाहे कितनी ही यातनाएं क्यों ना झेलनी पड़ें मां भारती की अस्मिता और स्वतंत्रता की रक्षा हर स्थिति में करेंगे।
तीसरे तीसरे दिन भारत माता के इस अमृत पुत्र को मुगलों ने मारने के लिए बाहर निकाल लिया। स्थान वही चांदनी चौक था।
काजी ने भाई मतीदास के सामने भी वही घिसा पिटा भाषण (सुख सुविधाएं आदि प्रदान करने संबंधी) दिया। अंत में काजी ने जब देखा कि उसके भाषण और प्रस्ताव (इस्लाम या मौत में से एक को चुनने) का कोई प्रभाव मतीदास पर नही हो रहा है तो उसने भाई जी को रूई में लपेटकर जलाकर मारने का आदेश दिया। वीर मतीदास जी ने काजी का आदेश सहर्ष स्वीकार किया और असीम यातनापूर्ण मृत्यु का आलिंगन भी इस प्रकार किया जैसे संसार की कोई अमूल्य वस्तु ही प्राप्त हो गयी है। वह वीर पुत्र हंसते-हंसते इस असार-संसार से चला गया पर अपना नाम उन अमर बलिदानियों में लिखा गया, जिन पर यह भारत माता आज तक गर्व करती है।
शब्दों की बड़ी गरिमा होती है
जिस देश में बहनें अपने भाई को वीर जी (पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘बीरा’) कहकर पुकारती हों और प्रात:काल ही इस संबोधन से उसे यह अनुभव करा देती हों कि मेरी और मां भारती की लाज तेरे हाथों है, उस देश में ही भाई मतीदासजी, भाई दयाला जी और भाई सतीदास जी हो सकते हैं। शब्दों की बड़ी गरिमा होती है, उनका मूल्य होता है। परंपरा से पुकारे जाने वाले शब्दों का अपना इतिहास है, उनके पीछे छुपा हुआ एक कटु सत्य है वीर जी या ‘बीरा’ शब्द हमारी बहनें यूूं ही नही बोलती हैं। उसका अर्थ है-जिसे समझने की आवश्यकता है और जो लोग हमें हर स्थिति में मुंह पर चांटे खाने वाली परंपरा के अहिंसावादी जीव मानकर चलते हैं, उनके लिए तो इन शब्दों का और भी अधिक महत्व है। उन्हें समझना चाहिए कि जब कोई बहन अपने भाई से ‘वीर जी’ या ‘बीरा’ कहती है तो वह यह भी कह देती है कि ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ अर्थात यह भूमि वीरों के भोग के लिए है। इसलिए इसे वीर बनकर भोगो। भाई मतीदास ने अपनी शहादत से इसी ‘वीरभोग्या वसुंधरा’ वाली महान संस्कृति की रक्षार्थ अपना बलिदान दिया।
गुरू तेगबहादुर और भारत की स्वराज्यवादी चेतना
जो परिस्थितियां बन रही थीं उनमें गुरू तेगबहादुर भारत के गुरू (सर्व समाज के नायक) भी बन चुके थे, और भारत की अस्मिता व प्रतिष्ठा के प्रतीक भी बन चुके थे, और अपने काल के सबसे बड़े बहादुर भी बन चुके थे। इसलिए उनका बलिदान भी भारत के इतिहास में उसी ऊंचाई का है जो एक गुरू ‘तेग’ और ‘बहादुर’ का बलिदान हो जाना चाहिए। औरंगजेब जीवित रहकर और अत्याचार कर करके ‘हिन्दूस्थान’ को अपना बनाना चाहता था, जबकि गुरूदेव मरण में जीवन का आनंद लेते हुए संपूर्ण मानवता को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का पाठ पढ़ाना चाहते थे। वह अपने बलिदान के लिए तत्पर थे, और अपने बलिदान से ही भारत, भारतीयता और भारतीयों को एक ऐसा संदेश देना चाहते थे जो उन्हें बताने वाला था कि जब तक ‘स्वराज्य’ का ‘सुराज’ स्थापित ना हो जाए तब तक रूकना नही है। इसलिए वह भारत की चेतना को उस समय अपने हाथ में ले चुके थे, जिसे वह बड़े साहस के साथ झंकृत कर देना चाहते थे।
औरंगजेब ने करा दी मुनादी
गुरूदेव तेगबहादुर जी को मुगल शासक और औरंगजेब के आदेशानुसार अनेकों प्रकार की अमानवीय क्रूर यातनाएं दी जा चुकी थीं। अब औरंगजेब और अधिक प्रतीक्षा नही करना चाहता था, वह गुरूदेव को यथाशीघ्र शहीदों की पंक्ति में बैठाने के लिए व्यग्र था। प्रशासनिक स्तर पर बड़ी घटना के परिणामों से बचने के लिए तैयारियां की गयीं।
”प्रशासन ने समस्त दिल्ली नगर में डौड़ी पिटवा दी कि ‘हिन्द के पीर’ गुरू तेगबहादुर को दिन बृहस्पतिवार 12 मार्गशीर्ष सुदी 5, संवत 1732 विक्रमी (11 नवंबर सन 1675 ई.) को चांदनी चौक दिल्ली चबूतरे पर कत्ल कर दिया जाएगा। इस दृश्य को देखने के लिए वहां विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा जो कि बेबस होने के कारण मूक दर्शक बना रहा। ” (संदर्भ: ‘श्री गुरू प्रताप ग्रंथ’, पृष्ठ-578)
बलिदान से पूर्व दिखाया बौद्घिक चातुर्य
जब गुरू तेगबहादुर को उनके बलिदान के लिए निश्चित चबूतरे पर ले आया गया तो उनसे काजियों ने किसी चमत्कार के दिखाने की बात कही। शांतमना बैठे गुरूजी के मन में तुरंत एक युक्ति ने कार्य किया और उन्होंने एक कागज का टुकड़ा लेकर उस पर कुछ लिखकर उसे अपने गले में डाल लिया।
काजियों ने पूछा-”यह क्या करते हो?”
गुरूजी ने शांतमना रहते हुए कहा-”आप चमत्कार देखने की बात कहते थे ना तो देखिये मेरा चमत्कार। इस कागज के टुकड़े के मेरे गले में रहते हुए आपका कोई जल्लाद मुझे मार नही सकता।”
गुरूजी की युक्ति काम कर गयी। उनके द्वारा काजियों का जिस प्रकार मूर्ख बना दिया गया था उसे वह समझ नही पाये।
गुरूजी का अप्रतिम बलिदान
काजियों ने अपने जल्लाद को शीघ्रता से संकेत दिया कि एक ही वार में गुरू तेगबहादुर का सिर कलम कर दो। जल्लादों ने संकेत पाते ही एक ही बार के वार से गुरूजी का सिर कलम कर दिया।
सिर जैसे ही उछल कर दूर जाकर पड़ा तो काजी और उनका जल्लाद व प्रशासनिक अधिकारी गुरूजी के गले में पड़े ताबीज रूपी कागज में लिखे गये शब्दों को पढऩे के लिए दौड़े। उन्होंने जितनी देर में ताबीज खोला और पढ़ा उतनी देर में गुरूजी के कटे हुए शीश को लेकर भागने का अवसर भाई जैता को मिल गया। वह वहां से बड़ी शीघ्रता से निकला और नगर के बाहर खड़े भाई उदा जी से जा मिला वे दोनों मुगल वंश में थे, इसलिए मुगलों को झांसा देते हुए बड़े वेग से आनंदपुर साहिब की ओर बढऩे लगे।
उधर जब काजियों ने गुरूजी के गले में पड़े ताबीज में लिखी भाषा को पढ़ा तो उसमें लिखा था कि-‘एक हुतात्मा कभी मरता नही है, उसके रक्त की एक-एक बूंद से अनेकों शहीद उत्पन्न होते हैं। वह अमर रहता है।’
ऐसे शब्दों को पढक़र काजी बड़े लज्जित हुए। हो सकता है कि यदि गुरूदेव उन काजियों को उन क्षणों में ऐसे भ्रामक शब्द कहकर भ्रांतियों में न डालते तो वह गुरूदेव को और भी अधिक क्रूरता और निर्दयता से मारते। पर क्रोध या आवेश तो व्यक्ति के विवेक रूपी दीपक को ही सर्वप्रथम नष्ट करता है। यही कारण था कि गुरूजी के इस वाक्य पर कि तुम्हारा कोई जल्लाद मुझे मार नही सकता, काजी लोगों का विवेक छला गया और उन्होंने गुरूजी के सिर को शीघ्रता से उड़ा देने का आदेश दे दिया। यह भी एक इतिहास है कि मरते समय भी व्यक्ति का बौद्घिक चातुर्य इतने उच्च स्तर का है कि शत्रु सरलता से छलावे में आ गया। इतना ही नहीं इतिहास यह भी है कि गुरूजी के सिर को लेने के लिए पूर्व से ही भाई जैता वहां खड़ा है और अवसर मिलते ही वह अपना काम सफलता से पूर्ण कर लेता है। कोई मुगल उसे ना तो पहचान पाता है और ना ही उसे उठाकर ले जाते देख पाता है। विश्व इतिहास की दुर्लभ घटना है-यह।
हमारे महापुरूषों ने जब स्वतंत्रता संघर्ष को लड़ा तो उनका लक्ष्य देश की सामूहिक चेतना को चेतनित किये रखना था। जिसमें वह सफल भी रहे थे। पर जब इतिहास लिखा गया तो एक षडय़ंत्र के अनुसार उन लोगों के सामूहिक चेतना के जागरण के वंदनीय कृत्य को खण्ड-खण्ड कर दिया गया और उसे इतिहास में कोई स्थान नही दिया गया।
गुरूजी आज भी ‘औरंगजेब’ की कारा में बंदी हैं
हमारी चेतना को मध्यकालीन इतिहास में खोजने के लिए हमें खण्ड खण्ड रूप में इतिहास को पढऩा पड़ता है, अर्थात राजाओं के भाटों या उनके समकालीन किसी लेखक को पढक़र हम उनके विषय में जानकारी लेते हैं। जबकि इन लोगों में से अधिकांश के कार्य ऐसे रहे जिन्हें राष्ट्रीय इतिहास में स्थान मिलना अपेक्षित था। ऐसे महापुरूष गुरू तेगबहादुर आज भी औरंगजेब की कारागार में बंदी है। यह हमारे लिए अत्यंत लज्जास्पद स्थिति है।
भाई जैसा की वीरता
मुगल प्रहरियों और अधिकारियों की आंखों में धूल झोंककर जिस स्फूर्ति और साहस के साथ भाई जैता ने गुरूदेव का शीश उठाया और उसे बाहर ले जाने में सफल रहा उसका वह कार्य प्रशंसनीय है। साथ ही वह गुरूजी के शीश को कीरतपुर ले जाने में सफल रहा। यह और भी प्रशंसनीय कार्य था। इस महान कार्य में उसके अन्य कई साथी भी साथ थे।
भाई जैता ने अपने यात्रा मार्ग को तथा अपने आप को उसी प्रकार गोपनीय और रहस्यमय रखा जिस प्रकार शिवाजी ने औरंगजेब की जेल से निकल भागने के समय स्वयं के रास्तों को और स्वयं को गोपनीय और रहस्यमयी रखा था। वह घटना भी लगभग इसी समय की थी। औरंगजेब भी इन लोगों की वीरता और बौद्घिक चातुर्य के समक्ष पानी भरता था। पूरे जीवनभर वह भारत के इन महान सपूतों के बौद्घिक चातुर्य को समझ नही पाया था कि अंतत: इनके मस्तिष्क किस मिट्टी के बने हैं?
कीरतपुर में हो गयी भारी भीड़ जमा
जब कीरतपुर में भाई जैता की वीरता का समाचार मिला कि वह गुरूदेव का शीश लेकर आ गया है तो लोग बड़ी संख्या में अपने गुरू के शीश के दर्शन करने और अपने वीर भाई जैता और उनके साथियों की वीरता को नमन करने हेतु कीरतपुर में एकत्र हो गये। गुरू तेगबहादुर के सुपुत्र गोबिन्दराय जी ने इस अवसर पर स्वयं आगे बढक़र अपने पिता का शीश भाई जैता से प्राप्त किया। भाई जैता का कबीला ‘रंगरेटा’ कहलाता था। गोविन्दराय ने भाई जैता को अपने आलिंगन में लिया और अनायास ही उनके मुंह से निकल गया-‘रंगरेटा गुरू का बेटा’।
विचार किया कि गुरू के इस कटे हुए शीश का अंतिम संस्कार कहां किया जाए? इस पर दादी मां व गुजरी मां ने इच्छा व्यक्त की कि आनंदपुर साहिब नगरी को गुरूदेव ने स्वयं स्थापित किया था। अत: उनके शीश का अंतिम संस्कार वहीं किया जाना उचित रहेगा। तत्पश्चात यही निर्णय लिया गया और भारत के आनंद के लिए जीने वाले और उसी के आनंद के लिए मरने वाले आनंदपुर के संस्थापक और आनंदलोक के आनंदमयी प्राणी रहे गुरूजी के शीश का बड़े सम्मान के साथ वहीं अंतिम संस्कार कर दिया।
इसी अवसर पर ही गुरू तेगबहादुर जी की अंतिम इच्छा के अनुसार गोविन्दराय को सिखों का दसवां गुरू बनाने की भी घोषणा करते हुए उन्हें ‘गुरूगद्दी’ पर बैठाने की औपचारिकताएं पूर्ण कर ली गयीं।
भाई लखीशाह की वीरता
उधर गुरू तेगबहादुर के सिर कटे पड़े शव को उठाना भी एक चुनौती बन गया था। औरंगजेब ने गुरू के शिष्यों के पौरूष को चुनौती दे दी थी कि देखता हूं कौन गुरू का शिष्य ऐसा है जो उसके शव को उठाकर ले जा सकता है?
गोबिन्दराय जी ने अपने पिता के शव को लाने के लिए अपने प्रस्थान की योजना बनायी, पर सिखों ने उनके ऐसा करने से उन्हें रोक दिया। तब एक गाड़ीवान लखीशाह ने अपनी सेवाएं इस कार्य के लिए दीं। लखीशाह अपने पुत्र के साथ गुरूदेव के सिर कटे पड़े शव के पास पहुंच गया। रात्रि का समय था, दोनों पिता-पुत्रों ने निर्णय लिया कि प्रहरियों को भ्रम में डालने के लिए गुरू की मृतदेह के स्थान पर एक को मरकर लेटना पड़ेगा, इसलिए कोई से एक का बलिदान दिया जाना अनिवार्य है। तब पुत्र ने अपना बलिदान देने के लिए तलवार निकाल ली। परंतु पिता ने समझाया कि गुरूजी के शव को मेरा दुर्बल वृद्घ शरीर उठाकर नही ले जा पाएगा, इसलिए मरने की हठ मत कर बेटा। मैं यहां रह जाता हूं और तू गुरूदेव के शव को लेकर चलता बन। व्यर्थ समय मत गंवा, प्रहरी इधर आ गये तो सारी योजना और पुरूषार्थ पर पानी फिर जाएगा। इतना कहकर उस वृद्घ ने अपनी कटार निकाली और उससे अपना बलिदान देकर स्वयं को गुरूदेव की बगल में लुढक़ा दिया। गाड़ीवान के पुत्र ने गुरूदेव के शव पर पड़ी चादर को अपने पिता के ऊपर डाला और एक झटके से गुरूदेव के शव को उठाकर चल दिया। रात्रि के अंधकार में उसे कोई नही देख पाया और वह वीर अपने पिता की शहादत के बदले गुरूदेव के शव को गंतव्य की ओर लेकर चल दिया। यह घटना कहीं यूं भी वर्णित है कि वह गाड़ीवान लखीशाह स्वयं ही गुरूदेव के शव को लेकर आने में सफल रहा था। कुछ भी हो भारत के स्वातंत्रय समर में एक उल्लेखनीय कृत्य के लिए लखीशाह का नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। उसने वंदनीय और वीरतापूर्ण कार्य किया और भारतीय इतिहास का एक अमर हुतात्मा बन गया।
हर भारतीय उसके इस कार्य का सदैव ऋणी रहेगा। क्योंकि भारतीयों के लिए बलिदान होने वाले गुरूजी का शव लाना भी उस समय आवश्यक था अन्यथा भारतीय वीरता अपमानित होकर रह जाती। क्रमश:
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
(-साहित्य संपादक)

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