बंदा बैरागी ने इतिहास को करवट दिला दी
वीर सावरकर ने लिखा है-”सत्रहवीं शती के प्रारंभ से अर्थात प्राय: शिवाजी के जन्म से ही हिंदू मुसलमानों के संघर्ष में रणदेवता के निर्णय में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन देखा जाने लगा। पहले जहां हिंदू मुस्लिम संघर्ष में अंतिम पराजय हिंदुओं की हुआ करती थी, वहीं अब ठीक उसके विपरीत अंतिम पराजय मुसलमानों की और अंतिम विजय हिंदुओं की देखी जाने लगी।”
युद्घभूमि बनाम छलभूमि
हिंदुओं की इस अंतिम विजय को सुनिश्चित किया बंदा वैरागी जैसे वीर योद्घाओं के महान नेतृत्व ने। पर अब कहानी कुछ दूसरी ओर घूमती जा रही थी। भारतवासी हिंदू वीर रहे हैं, स्वतंत्रता के लिए वे सदा संघर्षशील भी रहे इसमें भी दो मत नही है, पर शत्रु ने उनमें तोड़ फोडक़र उनकी फूट का लाभ उठाने का जब-जब प्रयास किया तो अधिकांश बार ऐसा देखा गया कि अंतिम जीत शत्रु की हुई। हमें कितनी ही बार जो शत्रु युद्घभूमि में परास्त नहीं कर सका उसने हमें छलभूमि में परास्त कर दिया। युद्घभूमि से अधिक छलभूमि हमारी स्वतंत्रता के हनन का कारण बनी। फूट एक आग होती है जो हमारे विश्वास के उन विशाल वृक्षों को जलाकर राख कर देती है, जिनसे हमारे लिए इमारती लकड़ी मिल सकती थी, और बहुत से लाभ होने संभावित थे। यह आग हमारी भावनाओं को तुषारापात से शांत कर देती है। कितनी ही बार व्यक्ति का साहस, शौर्य और उसकी वीरता एक ओर रखी रह जाती है और शत्रु हमारी फूट का लाभ उठाकर सफल मनोरथ हो जाता है। हमारे विषय में यह तो पूर्णत: सत्य नहीं है कि हम सदा ही फूट के कारण परास्त हुए या फूट ही हमारी पराधीनता का कारण बनी, पर यह भी सत्य नहीं है कि हम कभी फूट का शिकार ही नहीं बने।
सिखों की अफवाह
फर्रूखसीयर जैसा दुर्बल शासक इस रहस्य का पता लगाने में सफल हो गया कि इस देश के हिंदुओं को परास्त करने का सही उपाय क्या है? उसने अपनी योजना को जिस प्रकार सिरे चढ़ाने का प्रयास किया उसमें वह सफल होने लगा था। सिखों ने वैरागी के विषय में यह अफवाह फैलानी आरंभ कर दी, कि वह गुरू का शिष्य नहीं है। उसका गुरू परंपरा में कोई किसी प्रकार का विश्वास भी नहीं है। वह ढोंगी और पाखण्डी है और जो कुछ भी कर रहा है वह ‘खालसा’ के लिए न करके अपने लिए कर रहा है।
इस प्रकार की अफवाहों ने पंजाब में वीर वैरागी के लिए नकारात्मक परिवेश निर्मित करना आरंभ किया। लोगों में मिथ्या बातें कानों कान फैलती हैं पर उनका विष सारे समाज की मानसिकता को दूषित कर डालता है। यह ऐसा विष होता है जिसका किसी को पता भी नहीं होता है, पर वह समाज को भीतर ही भीतर दीमक की भांति खोखला कर डालता है। यह मानना पड़ेगा कि हमारे भीतर ऐसे कई दुर्गुण आ गये थे जिन्होंने समय-समय पर हमारी राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फर्रूखसीयर गुरू परिवार की दो महान महिलाओं को अपनी ओर लाने में सफल हो गया तो गुरू परिवार का सम्मान सिखों में होने के कारण लोगों पर भी उसका प्रभाव पड़ा।
बैसाखी का पर्व और फर्रूखसीयर
पंजाब में वैशाखी का पर्व मनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। इस दिन लोग विशेष कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। फर्रूखसीयर के शासन काल में 1770 ई. की वैशाखी भी यूं तो हर बार की भांति वैसे ही आयी थी जैसे अन्य वैशाखियां आती रही थीं, पर इस वैशाखी का कुछ विशेष महत्व था। क्योंकि गुरू परिवार की दोनों प्रमुख महिलाओं ने इस पर्व को कुछ अन्य प्रकार से मनवाने की तैयारियां आरंभ करा दी थीं। उन्होंने अपने लोगों को वैरागी के विरूद्घ परिवेश निर्माण करने में विशेष सफलता प्राप्त कर ली थी। उन लोगों ने देशधर्म के लिए और गुरू परंपरा की गरिमा की रक्षा के लिए अपना जीवन होम करने तक की प्रतीक्षा करने वाले वीर वैरागी को अपमानित करने की योजना पर कार्य कर लिया था।
सारे पंजाब में उत्साह और उत्सव का वातावरण था। अमृतसर में इस पर्व को मनाने के लिए विशेष तैयारियां की गयी थीं, सारा शहर वैशाखी के रंग में रंग चुका था। सभी लोगों में उत्साह अपने चरम पर था। वैरागी भी हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी वैशाखी पर्व को मनाने के लिए पूर्णत: उत्साहित था। वह सिर पर कलंगी लगाकर अच्छी वेशभूषा में अमृतसर आया। उसके लोगों ने उसका स्वागत भी अच्छे और भव्य ढंग से किया। वैरागी दरबार में आकर अपने लिए निर्धारित स्थान पर आकर बैठ गया।
दरबार में माता के पत्रों का प्रभाव
इस घटना पर प्रकाश डालते हुए भाई परमानंद जी ने लिखा है कि-”माता के पत्रों का प्रभाव हो गया था। इससे वीर वैरागी के विरूद्घ एक दल बन गया था जो अपने आपको तत्तखालसा कहता था। वैरागी का विश्वस्त सरदार विनोदसिंह इसका नेता था। इसके बैठते ही वह क्रोध में आ गया। बाबा विनोदसिंह और काहन सिंह ने वैरागी को बांह से पकडक़र उठा दिया। उसी समय शोर मच गया। आवाजें आने लगीं-”जो गुरू का सिख है वह इससे हट जाए।” ततखालसा पृथक हो गया बहुत से सिख अलग हो गये और वैरागी के शत्रु बन गये। कुछ सिखों ने इसका सामान लूटना आरंभ कर दिया। इस पर वैरागी ने पंजाबी कहावत स्मरण की बिल्ली शेर पढ़ाया, शेर बिल्ली नूं खान आया।
फूट इस देश का रोग है। बादशाह यह समाचार सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। जो कार्य लाखों प्राणियों की कुर्बानियों से न हो सका, वह उसे एक छोटी सी चालाकी से होता दिखने लगा। मुसलमानों के घरों में खुशियां होने लगीं। वैरागी ने हिम्मत न हारी। अभी तक इसने सब राजकाज सिखों पर छोड़ा हुआ था-अब इसे साधारण हिंदुओं की सहायता की आवश्यकता हुई। इसने अपने तरीकों में परिवर्तन किया। पहले तो इसने यह प्रसिद्घ किया कि कलियुग में मैं निष्कलंक कल्कि अवतार हुआ हूं। दूसरे इसने युद्घ ध्वनि ‘जय धर्म की’ कर दी और घोषित कर दिया कि मैं देश में चक्रवर्ती राज्य स्थापित करूंगा।”
चक्रवर्ती राज्य का उद्घोषक-बैरागी
यद्यपि वैरागी की शक्ति अब उतनी नहीं रह गयी थी-जितनी शक्ति की उस समय आवश्यकता थी। परंतु उसकी ओर से ‘जय धर्म की’ उद्घोष को स्थापित करना तथा देश में चक्रवर्ती राज्य की स्थापना का सपना बुनना अपने आप में एक महत्वपूर्ण चिंतन को प्रकट करने वाला तथ्य है। ‘जयधर्म’ की से उसका अभिप्राय इस देश में सत्य सनातन वैदिक धर्म की उन मान्यताओं और सिद्घांतों को इस देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन का आधार स्तंभ बना देना था जिन्हें कुछ लोगों ने कालांतर में हिंदुत्व के नाम से अभिहित किया है। वह धर्म के वैज्ञानिक नियमों, ऋत सिद्घांतों और सत्य सनातन स्वरूप का पुजारी था। उसका चिंतन संकीर्ण नहीं था और उसका धर्म किन्हीं रूढिय़ों या जंग लगी परंपराओं का मुखापेक्षी नहीं था। इसलिए उसने धर्म के विस्तृत अर्थों और संदर्भों को परिभाषित करते हुए उन्हें भारत के सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन का एक अंग बनाने का संकल्प लिया। उसकी राजनीति राष्ट्रनीति का पर्याय थी और वह राष्ट्रनीति की पवित्रता की अग्नि में प्रचलित दूषित व्यवस्था को जला डालना चाहता था। इसलिए उसका कल्कि अवतार हुआ या नही हुआ यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है पर हर महापुरूष की भांति वह संकटों में विचलित नहीं हुआ और नई परिस्थितियों में अपने आपको नये अवतार के रूप में अवतरित करने में सफल रहा। उसके लोगों ने उसके नये स्वरूप का अभिनंदन किया और उसके द्वारा चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने की घोषणा का समर्थन किया।
कोई कुछ भी कहे और चाहे जिस प्रकार से वैरागी की असफलताओं का या उसके पुराषार्थी स्वरूप का जिस प्रकार अवलोकन करे पर यह सत्य है कि वैरागी के ‘चक्रवर्ती राज्य’ की अवधारणा को लोगों ने सदियों तक मरने नहीं दिया। आगे चलकर महर्षि दयानंद ने आर्यों के ‘चक्रवर्ती राज्य’ की स्थापना की बात कही। कांग्रेस ने 1930 ई. में पूर्ण स्वराज्य की मांग की। लाला लाजपतराय ने 1905 ई. में-‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्घ अधिकार है’-कहा। हमारा मानना है कि भविष्य की ये राष्ट्रप्रेमी भावनाएं और उद्घोष एक प्रकार से वैरागी के 1773 ई. के उसी चिंतन को दी गयी विनम्र श्रद्घांजलि थी, जिसमें उसने चक्रवर्ती राज्य की स्थापना का संकल्प लिया था।
शब्द दूर तक जाते हैं
शब्दों की गति को मनुष्य पहचानने में असफल रहता है। पर शब्दों के विषय में यह अकाट्य सत्य है कि शब्द दूर तक और देर तक चलता है, जाता है। उसका प्रभाव व्यक्ति के जाने के सैकड़ों और कभी-कभी तो युग युगों तक रहता है। वैरागी ऐसे ही व्यक्तित्व का स्वामी था-जिसके शब्दों ने और जिसके चिंतन ने इस पवित्र राष्ट्र को सदियों तक प्रभावित किया और कर रहा है।
रामकृष्ण परमहंस का शिक्षाप्रद प्रसंग
रामकृष्ण परमहंस के नाम से भला कौन परिचित नहीं है? उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सैकड़ों युवक उनसे मिलने के लिए आया करते थे। जो उनसे देश और धर्म के प्रति सेवाभाव की शिक्षा लेते और अपने जीवन को कल्याणमार्ग पर डालते। एक बार एक ऐसा ही जिज्ञासु युवक उनके पास आया। उसने स्वामी जी से कहा-”महाराज आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। मुझे ऐसा गुरूमंत्र दीजिए जिससे मैं संसार से वैराग्य लेकर मुमुक्ष हो जाऊं।”
इस पर स्वामी जी ने कहा कि-‘तुम्हारे परिवार में कितने सदस्य हैं?’ ‘मैं और मेरी बूढ़ी मां के सिवाय और कोई नहीं है।’ युवक ने इस आशा से स्वामी जी से कहा कि कम सदस्यों की बात सुनकर स्वामीजी उसे शीघ्र ही संसार से विरक्त होने का उपाय बता देंगे।
स्वामी जी ने कहा-‘मुझसे गुरूमंत्र लेकर तुम संन्यासी क्यों बनना चाहते हो?’ युवक ने कहा-‘मैं इस संसार के मायाजाल से ऊब चुका हूं और अब अधिक इसमें रमना नहीं चाहता हूं, इसलिए संन्यस्त होकर इससे मुक्ति का मार्ग खोजना चाहता हूं।’ रामकृष्ण ने युवक से कहा-”अपनी असहाय वृद्घा माता को छोड़ दोगे तो तुम्हें मुक्ति साथ जन्म भी नहीं मिल सकती। तुम्हें मुक्ति तभी मिलेगी जब तुम अपनी वृद्घा माता की सेवा करोगे, इसी में तुम्हारा कल्याण है। मुक्ति कहीं बाहर नहीं है। सेवा करो और मुक्ति का आनंद लो।”
गुरू आज्ञा और बैरागी
जैसा उद्घार रामकृष्ण परमहंस ने उस जिज्ञासु का किया था वैसा ही गुरू गोविंद सिंह ने वैरागी का किया था। उसे बताया था कि तेरी वृद्घ असहाय भारत माता इस समय कष्टों की बेडिय़ों का दुख झेल रही है। उसे उन बंधनों से मुक्त कर और देश में हिंदुओं के आर्य चक्रवर्ती राज्य की स्थापना कर। इसलिए गुरू के उस सच्चे शिष्य का अंतिम क्षणों तक गुरू आज्ञा से भ्रष्ट होना संभव नहीं था। इसके उपरांत भी लोगों ने उस पर अविश्वास किया तो इसे इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।
वैरागी ने धैर्य का परिचय दिया और शांतमना वह आगे बढऩे के लिए कृत संकल्प हो उठा। उसने प्रतिज्ञा कर ली थी कि वह जीवन भर मां भारती की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करेगा और किसी भी स्थिति-परिस्थिति में अपने मार्ग से विचलित नहीं होगा।
फर्रूखसीयर की प्रसन्नता
शत्रु को अपने साथियों से अलग देखकर बादशाह को बड़ी प्रसन्नता हो रही थी। उसे लगने लगा था कि यदि अब वैरागी पर हाथ डाला गया तो उसे बात की बात में ही पकडक़र समाप्त किया जा सकता है। भाई परमानंद जी लिखते हैं-”इधर बादशाह ने देखा कि अवसर बड़ा अच्छा है। वैरागी अब बेबसी की अवस्था में है। शीघ्र ही दिल्ली की सेना भेजी, जो पूरी तेजी से नैनाकोट के समीप आकर रूक गयीं। वहां वैरागी की ंिहन्दू सेना कड़े मुकाबले के लिए तैयार थी। शाही सेना ने अल्लाहो अकबर की युद्घ ध्वनि से हमला किया। किंतु हिंदुओं ने जयध्वनि की ध्वनि से गगन तल गुंजा दिया। नरसिंगे फूंके जाने लगे। शंख ध्वनि से कर्णपुट भर गये। वे युवक जो कल तक दुकानदार थे आज शाही सेना के मुकाबले में जान तोडक़र घमासान युद्घ कर रहे थे। मृतकों के ढेर लग गये। शाही सेना कुछ और सोचकर आयी थी। इसने समझा था कि जाते ही वैरागी को गिरफ्तार कर लेंगे। परंतु यहां तो मुकाबले की चोट थी। अंत में शाही सेना के पांव उखड़ गये और वह अपने साथियों के शवों और बहुत से सामान को छोडक़र भाग निकली। लाहौर सूबा आलमखां की सहायता लेकर आया, वैरागी ने उसे बटाला के समीप पराजित किया।
ततखालसा के न होने पर भी वैरागी की यह वीरता देखकर बादशाह के दिल में आश्चर्य की कोई सीमा न रही। वह अपने मंत्रियों से इस विषय में परामर्श करने लगा। किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इस फूट से वैरागी की शक्ति बहुत कम हो गयी और सिखों के अंदर हिंदुओं से पृथकत्व का विचार इस समय से जोर पकडऩे लगा।
इस घटना से हमें एक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। वह यह है कि थोड़ी सी धार्मिक विभिन्नता देश की एकरूपता के मार्ग में कितनी बड़ी रूकावट उत्पन्न कर सकती है।”
हिंदू और सिख दो अलग-अलग विचार धाराएं हैं, या उन दोनों का एक समान लक्ष्य नहीं है। फर्रूखसीयर कुछ इस प्रकार की धारणा को वैरागी के विरोधी लोगों की दृष्टि में स्थापित करने में सफल रहा। इसके कारण उसे यह भ्रांति हो गयी थी कि वैरागी को उसके सिपाही जब चाहेंगे तब बड़ी सरलता से पकडक़र ले आएंगे। उसने इसी भ्रांति के कारण वैरागी पर आक्रमण कर दिया। पर वैरागी के हिंदू सैनिकों ने अपने अदभुत पराक्रम का परिचय देते हुए मुगल सेना को युद्घभूमि से भागने के लिए विवश कर दिया।
हिन्दू अपने नायक के साथ डटे रहे
वेद का आदेश है-”आरे बाधस्व दुच्छुनाम् (यजु. 35-36) अर्थात विपत्ती को दूर भगाओ।
यह आर्यों के लिए सृष्टि प्रारंभ में दी गयी ईश्वरीय आज्ञा थी। जिसे हिंदू-आर्य ने सदा स्मरण रखा है। इसलिए परिवर्तित परिस्थितियों में भी हिंदू ने विपत्ती को दूर भगाने के लिए अर्थात स्वतंत्रता के भक्षकों के विनाश के लिए अपने महानायक वैरागी का साथ देना ही श्रेयस्कर समझा। वैसे जिस देश की प्रार्थना में-‘दुर्गुण दूर हों सदगुण नही’ (‘पाप्मा हतो न: सोम:’ यजु. 6-35) का राष्ट्रीय सामूहिक बोध देश के लोगों का पग-पग पर नेतृत्व करता हो, उस देश में सदगुण (देश, जाति और धर्म के लिए मर मिटने की भावना) का कभी विनाश होना भी संभव नहीं है।
यहां अग्नि (अग्रणी-सदा आगे-आगे-नेतृत्व प्रदान करते हुए चलना) की पूजा का विधान यूं ही नहीं रहा है। अग्नि (जननायक) विनाश करती है-दुष्टता का, दानवता का और संपूर्ण दुर्गुणों का। इसका अभिप्राय है कि अग्नि सदगुणों की प्रसारक है, अग्नि (जननायक) सदगुणों की प्रचारक है। जिस देश का नायक या जननायक अग्नि धर्म से तैयार हुआ होता है वहीं वैरागी जैसे लोग उत्पन्न होते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वैरागी का निर्माण अग्नि धर्म से तपे हुए जननायक गुरू गोविन्दसिंह ने किया था। इसलिए उससे किसी भी परिस्थिति में अपने कत्र्तव्य धर्म से विमुख होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। गुरू के सच्चे अनुयायी हिंदुओं ने और सिखों ने गुरू आज्ञा का पालन करते हुए राष्ट्र और धर्म की रक्षा में तत्पर वैरागी का साथ देते रहना अपना धर्म समझा। उनकी इसी भावना के कारण मुगल सेना को इस युद्घ में परास्त होना पड़ा।
भाई जी ठीक ही लिखते हैं
”गुरूओं ने अपना कार्य धार्मिक रूप में आरंभ किया। उनके धर्म की उन्नति इस्लाम की उन्नति की विरोधिनी थी। इस्लाम एक राजशक्ति थी। इस शक्ति के घमंड के विरूद्घ तथा धार्मिक स्वतंत्रता के आंदोलन में गुरूओं ने महान कुर्बानियां दीं और अंत में प्रजा पीडक़ों की राजनीतिक शक्ति को नष्ट करने का निश्चय कर लिया। यह बात पूर्ण होने को थी, कि एक धार्मिक अड़चन खड़ी कर दी गयी कि वैरागी का साथ तब तक न दो जब तक वह अमृत चखकर नियमेन सिख न बन जाए। इससे प्रकट होता है कि चाहे वैरागी की इच्छा थी या न थी उसकी श्रद्घा थी, या न थी इसका अमृत चखना इतना आवश्यक था कि इसके मुकाबले पर सिख आंदोलन का नाश भी कुछ अर्थ नहीं रखता था। छोटी सी विभिन्नता को सामने लाकर बने बनाये काम को नष्ट कर दिया गया। परंतु दोष किसका? इस देश में लोगों की बुद्घि उलटे काम करती रही है। इन्हें इस बात का ज्ञान नहीं कि मानव स्वतंत्रता और समता विचार जातीय जीवन की जड़ है। अन्य विषयों में मन की विभिन्नता इसके आगे कुछ महत्व ही नहीं रखती। इस विभिन्नता के मामले में प्रत्येक अपने आपको ठीक और दूसरों को गलत समझता है। इसमें किसी का न कुछ बनता है और न बिगड़ता है। परंतु जो लोग इस मतभिन्नता पर समाज के प्रति पवित्र नियम ‘मनुष्य की स्वतंत्रता’ की बलि चढ़ा देते हैं। वे अपने देश के नाश के उत्तरदायी होते हैं। इसके साथ वे अपने आपको भी नष्ट कर लेते हैं। इसी कारण देश के साथ धोखा करने वाले का अपराध अक्षम्य होता है, चाहे धार्मिक दृष्टि से वह मनुष्य कितना ही उच्च क्यों न हो।”
‘तू तपस्या के साथ तप कर’
देश मानव समाज का एक विस्तृत रूप है और राष्ट्र उस स्वरूप की एक भावना है। देश के साथ घात करने वाला व्यक्ति समाज की सामूहिक चेतना को मारकर राष्ट्रीय भावना का सामूहिक संहार करता है। इसलिए ऐसे लोगों का अपराध अक्षम्य होता है। देश तपस्या है तो राष्ट्र स्वयं में एक तप है। वेद कहता है कि तपसा तप्यध्वम्=(यजु. 1-18) अर्थात ‘तू तपस्या के साथ तप कर।’ वैरागी तपस्या के साथ तप कर रहा था, इसीलिए उसका व्यक्तित्व महान बना।
(लेखक की पुस्तक प्राप्ति हेतु डायमण्ड पॉकेट बुक्स प्रा. लिमिटेड एक्स-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेस-द्वितीय नई दिल्ली-110020, फोन नं. 011-40712100 पर संपर्क किया जा सकता है।
(साहित्य सम्पादक)
-राकेश कुमार आर्य

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