हिंदू राष्ट्र स्वप्न दृष्टा : बंदा वीर बैरागी, अध्याय-4

गुरु गोविंद सिंह जी और उनके सुपुत्रों का बलिदान

पंजाब में सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी के काल में ही हमारे चरितनायक बंदा वीर बैरागी जी का उद्भव हुआ । यही वह काल था जब परिस्थितियों ने एक संन्यासी को भी राष्ट्र के कार्य के लिए उठा लिया और उससे वह महान कार्य कराए जो इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम अक्षरों से लिखने योग्य माने जाते हैं।
गुरु तेग बहादुर के सुपुत्र गोविंद राय का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना ( बिहार ) में हुआ था।

गुरु तेग बहादुर के पश्चात दशम गुरु बने गोविंद राय को इतिहास में हम गुरु गोविंद सिंह जी महाराज के नाम से जानते हैं। गुरु गोविंद सिंह जी के काल में ही खालसा पंथ की स्थापना 1699 ई0 में की गई थी । उनकी माता का नाम गुजरी था । जिस समय गोविंद राय का जन्म हुआ, उस समय गुरु तेग बहादुर जी आसाम में थे । वहां पर एक संदेश वाहक के द्वारा उन्हें बालक गोविंद राय के जन्म की सूचना मिली थी । उन्होंने असम से ही उस संदेशवाहक के हाथ संदेशा भेजा कि बच्चे का नाम गोविंद राय रखा जाए । जन्म के ढाई वर्ष पश्चात पिता ने असम से लौटकर अपने बच्चे को पहली बार देखा था।
बालक गोविंद राय बचपन से ही बहुत निर्भीक था । गुरु तेग बहादुर जी ने बालक गोविंद राय की शिक्षा – दीक्षा के लिए देवनागरी , गुरुमुखी तथा फारसी भाषा का ज्ञान कराने के साथ-साथ संस्कृत का ज्ञान कराने की भी उचित व्यवस्था की । उन्होंने फारसी के लिए मुंशी मीर मोहम्मद , संस्कृत के लिए पंडित कृपाराम जी तथा गुरुमुखी सिखाने के लिए मुंशी साहिबचंद को नियुक्त किया ।

लगभग 9 वर्ष की अवस्था में गुरु तेग बहादुर के स्थान पर गुरु गद्दी के उत्तराधिकारी के रूप में गुरु गोविंदसिंह जी ने कार्यभार संभाल लिया। अभी उनकी बालक अवस्था थी , पर यही बालक था जिसने अपने पिता को कश्मीरी पंडितों के समर्थन में उठ खड़ा होकर अपना बलिदान देने के लिए प्रेरित किया था । अपने पिता के कटे शीश को देखकर या लखीशाह द्वारा किए गए पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप आई पिता की सिर कटी लाश को देखकर भी यह बालक विचलित नहीं हुआ था। उसका यह असीम धैर्य बता रहा था कि उसके भीतर दिव्य आत्मा थी , जो देश ,धर्म के लिए बड़े काम करने के लिए इस धर्म धरा पर आई थी । वह जानता था कि :—

मैं त्याग का भी त्याग हूं और
त्याग के लिए उद्यत सदा ,
मां भारती को सर्वस्व समर्पित
करता रहूंगा सर्वदा ।
विकल्पविहीन संकल्प लेकर
बढ़ते रहेंगे पग मेरे ,
गुरुपुत्र होना सौभाग्य मेरा
इससे नहीं कुछ अन्यथा।।

बालक गोविंद सिंह गुरु बन गया तो उसने कई महत्वपूर्ण निर्णय भी लिए । सर्वप्रथम उन्होंने देखा कि इस समय मुगल सत्ता की क्रूरता व निर्दयता से जूझते हिंदू समाज के लोगों का मनोबल बढ़ाने के लिए ‘ भक्ति मार्ग ‘ के स्थान पर ‘ शक्ति मार्ग ‘ की आवश्यकता है । इसलिए उन्होंने हिंदू धर्मावलंबियों को ‘ शक्ति मार्ग ‘ का अनुयायी बनाकर सत्ताधारियों की क्रूरता और अत्याचारों का सामना करने के लिए तैयार रहने की शिक्षा दी।

गुरु गोविंद सिंह यह जानते थे कि मुगल सत्ताधीशों की क्रूरता और निर्दयता का यदि इस समय शक्ति के साथ मुकाबला नहीं किया तो यह निरंतर बढ़ती जाएगी और हिंदू धर्म का विनाश कर डालेगी । जिसका परिणाम यह होगा कि बड़े प्रयत्नों से पंजाब में जिस गुरु परंपरा के माध्यम से वैदिक शिक्षाओं की सुरक्षा करने में सफलता मिली है , उस पर भी पानी फिर जाएगा । गुरुदेव के अनुयायी सिक्खों और उनके प्रति आस्थावान हिंदू लोगों ने अपने नए गुरु के आदेशों का पालन करना आरंभ कर दिया। सारे देश में गुरुजी के प्रति विशेष श्रद्धा का भाव था , राष्ट्रीयता सिर चढ़कर बोल रही थी और सबको अपने देश व धर्म की रक्षा के लिए गुरु जी के भीतर एक ऐसी दिव्य आत्मा का आभास हो रहा था जो उनका बेड़ा पार कर सकती थी और मुगल शासकों से उनकी रक्षा कर सकती थी ।

मुगलों से युद्ध की तैयारियां आरम्भ कीं

गुरु गद्दी पर विराजमान होते ही गोविंद राय जी ने भी भविष्य में आने वाली सभी प्रकार की समस्याओं का सामना करने के लिए अपनी ओर से तैयारियां आरंभ कर दीं । आनंदपुर में गुरुदेव ने युद्ध प्रशिक्षण केंद्र स्थापित कर दिए । संगत को तैयार रहने , शस्त्र धारण करने और शस्त्रों का अभ्यास करने की आज्ञा दे दी गई।इन आदेशों को सुनकर सिक्ख युवक शस्त्र और अपना यौवन गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित करने के लिए आनंदपुर साहिब पहुंचने लगे । देश भक्ति का उफनता यह लावा बहुत कुछ बयां कर रहा था । चारों ओर देशभक्ति की ऐसी छटा बिखरी थी कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी साहस और वीरता की बातें करने लगता था । उन्होंने अपने युवाओं में उत्साह भरने के लिए कई प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया और विजयी युवकों को प्रोत्साहन देने के लिए उन्हें पुरस्कारों से भी सम्मानित करने की परंपरा आरंभ की।

गुरुदेव ने सिखों और हिंदुओं को शासकीय ढंग से पढ़ाना व समझाना आरंभ किया । गुरु जी ने अब इन लोगों को धार्मिक शिक्षा के साथ – साथ सैनिक शिक्षा देने का प्रबंध भी किया । यही कारण था कि उन्होंने दरबार में बैठने के नियम बनाए । जहां पहले माला लेकर संगत बैठती थी , वहाँ अब योद्धाओं को शस्त्र धारण करके बैठने का आदेश दिया गया । कहने का अभिप्राय है कि अब माला के साथ – साथ भाला भी पूजनीय हो गया । उन्होंने स्वयं भी ताज , कलंगी आदि राजाओं जैसी वेशभूषा पहनकर सिंहासन पर विराजमान होना आरंभ किया । जिससे पूर्ण राजकीय परिवेश से दरबार सुसज्जित हो उठा । ऐसा करने का विशेष प्रयोजन यही था कि दरबार में आने वाले सभी लोगों को इस बात का पूर्ण आभास हो कि देश व धर्म की रक्षा के लिए कभी भी माला फेंककर भाला उठाया जा सकता है , और भाला हाथ में होगा तो अचानक आई किसी भी आपत्ति से निपटने के लिए हमें कोई असुविधा नहीं होगी। एक प्रकार से गुरुजी ने भारत की उसी परंपरा से देश के हिंदुओं और सिखों को जोड़ दिया जो क्षत्रिय बल और ब्रह्म बल दोनों का समन्वय करके चलने वाली परंपरा थी , अर्थात शस्त्र और शास्त्र का उचित समन्वय स्थापित कर उन्होंने आगे बढ़ने के लिए अपने अनुयायियों को प्रेरित करना आरंभ किया।

गुरु गोविंद सिंह जी की देशभक्ति अत्यंत उच्च कोटि की थी । उनके हृदय में कश्मीरी पंडितों के प्रति विशेष अनुराग था। अपने इसी प्रबल संस्कार के कारण गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता को मुगलों के अत्याचारों का सामना करने और बलिदान होने की प्रेरणा दी थी ।आज वह स्वयं गुरु के रूप में जब गद्दी पर विराजमान थे तो उनका यह संस्कार और भी प्रबलतर होता जा रहा था। उन्होंने अपने शिष्यों को सिक्ख के साथ-साथ सिंह बनने की प्रेरणा भी दी । इससे लोगों में और भी अधिक देशभक्ति का भाव भर गया । सिक्ख बनने का अभिप्राय था ब्रह्म बल को अपने भीतर धारण करना और सिंह बनने का अर्थ था क्षत्रिय बल को अपने भीतर अनुभव करना , साथ ही समय आने पर अपना प्राणोत्सर्ग करने के लिए भी तैयार रहना । गुरु जी की इस प्रकार की शिक्षाओं का पालन हिंदू और सिख दोनों बराबर करते थे।

सिंह बनें सब सिख मेरे देता हूं फरमान ।
देश – धर्म के वास्ते करना है बलिदान ।।

अपने अनुयायियों में उत्साह भरने के लिए उन्होंने एक रणजीत नगाड़ा भी रखा था । अपने इस नगाड़े के साथ वह शिकार पर भी जाते थे । पड़ोस में कहिलूर नगर था। जिसका राजा भीमचंद था । गुरु गोविंद सिंह जब भी कहिलूर की ओर जाते तो उनके लोग वहां के जंगलों में नगाड़ा अवश्य बजाते थे । जिसे राजा भीम चंद्र ने अपनी प्रतिष्ठा के विपरीत माना , परंतु भीम चंद को उसके मंत्री देवीचंद ने समझाया कि गुरु के शिष्य या सैनिकों का नगाड़ा बजाने का उद्देश्य आपको आतंकित करना नहीं है। हमारे संबंध गुरुओं से पीढ़ियों से रहे हैं और अतीत में इन संबंधों ने समय विशेष पर एक दूसरे की सहायता भी की है । भीमचंद अपने मंत्री की बातों से सहमत और संतुष्ट हो गया। बाद में देवीचंद मंत्री ने गुरु गोविंदसिंह से अपने राजा की भेंट कराई । गुरुदेव ने राजा के साथ जिस प्रकार प्रेम प्रदर्शन किया , उससे राजा बड़ा अभिभूत हुआ ।

गुरु गोविंद सिंह जी ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि गोविंद सिंह तभी कहलाऊंगा जब चिड़ियों से बाज तुड़वाऊंगा और एक सिक्ख सिंह को दुश्मन के सवा – सवा लाख व्यक्तियों से टक्कर लेता देखूंगा ।

इस प्रकार गुरु गोविंद सिंह चुनौती के लिए चुनौती बन कर उठ खड़े हुए । जिसका परिणाम यह हुआ कि आनंदपुर के समीप मुगलों और सिखों की सेनाओं में एक भयंकर युद्ध हुआ । गुरु गोविंदसिंह स्वयं इस युद्ध में उपस्थित हुए । दोनों ओर से भयंकर मारकाट व रक्तपात आरंभ हो गया । सिखों ने गुरु जी की उपस्थिति में अपनी रोमांचकारी वीरता का प्रदर्शन किया । उन्हें मुगलों का विशाल सैन्य दल एक टिड्डी दल की भांति दिखाई देता था । गुरुजी ने जिस प्रकार सिखों को आज तक सैन्य प्रशिक्षण दिया था , वह भी अब काम आ रहा था । भयंकर रक्तपात करते सिखों को देखकर मुगल सेना के पांव उखड़ गए और शत्रु को युद्ध भूमि से भागना पड़ा । इस युद्ध में गुरु गोविंदसिंह ने पैंदे खान को ललकारा और उसे अपने आप से युद्ध के लिए उकसाया । इतना ही नहीं गुरुदेव ने पैंदे खान को पहले वार करने के लिए दो अवसर दिए । पर खान असफल रहा । तब वह पीछे मुड़ने लगा । इस पर गुरुदेव ने उसे ललकारा और रुकने का संकेत दिया। गुरुदेव ने एक ही तीर के वार से उसका वध कर दिया । युद्धभूमि में गिरे शत्रुओं से उस दिन गुरु तेग बहादुर व उनके साथियों को पहली बार श्रद्धांजलि अर्पित कर दी गई । भागती हुई मुगल सेना का रोपड़ तक पीछा किया गया । यह लड़ाई सन 1700 में लड़ी गई थी।

आपत्तियों का नया दौर

एक बार सिरसा नदी की बाढ़ के कारण गुरुदेव के परिवार के सदस्य आपस में एक दूसरे से बिछुड़ गए । गुरु गोविंद सिंह जी के दो पुत्र जोरावर सिंह व फतेह सिंह अपनी दादी माता गुजरी के साथ थे । इन्हीं के साथ गुरुजी का रसोईया गंगाराम ब्राह्मण भी था । उस देशघाती गद्दार ने दादी माता को अपने साथ अपने गांव सहेड़ी ले जाने की योजना बनाई । माताजी अपने दो पौत्रों के साथ उस देशघाती के साथ उसके गांव चली गईं। उस समय गुरु गोविंद सिंह के परिवार पर बादशाह ने ईनाम बोल दिया था।

माता गुजरी के पास स्वर्ण मुद्राओं से भरे थैले को देख कर उस रसोईया गंगाराम के मन में पाप आ गया । साथ ही उसे यह भी लग रहा था कि यदि वह इन तीनों को गिरफ्तार करवा देता है तो उसे बादशाह की ओर से भी भारी पुरस्कार मिलेगा । उसने अपनी योजना के अंतर्गत एक दिन रात में अपनी छत पर खड़े होकर शोर मचा दिया कि मेरे घर में चोर आ गए हैं और चोरी हो गई है ।

माताजी ने समय को देखते हुए गंगाराम को कहा कि तुम शांत रहो ,चोरी हो गई और थैला चला गया तो कोई बात नहीं , लेकिन शोर मत करिए । गंगाराम ने इसके उपरांत भी माता जी और उनके दोनों पौत्रों के विषय में निकट के थाने में जाकर सूचना दे दी । थानेदार ने माताजी के सामान की चोरी का सत्य जानकर उल्टे गंगाराम की ही पिटाई कर डाली। इस प्रकार गंगाराम को पुरस्कार के स्थान पर उचित दंड मिल गया । परंतु थानेदार ने माता जी और उनके दोनों पौत्रों को सरहिंद के नवाब वजीद खान के यहां भिजवा दिया । सरहिंद के नवाब ने बादशाह की प्रशंसा पाने के लिए माता जी और उनके दोनों पौत्रों को अपने समक्ष पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उन तीनों को निराहार रखकर ठंडे बुर्ज में बंद कर दिया । उस समय वैसे भी भयंकर शीतकाल चल रहा था।

अगले दिन प्रात: काल में नवाब वजीद खान ने उन तीनों को अपने दरबार में अपने समक्ष उपस्थित होने की आज्ञा दी । उसने इन तीनों को उनके पवित्र धर्म को त्याग कर मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करना आरंभ किया । गुरु जी का पुत्र जोरावरसिंह उस समय अत्यंत क्रोध में था । उसने नवाब वजीद खान को कठोर शब्दों में कह दिया कि मेरे पिता को मारने वाला कोई नहीं जन्मा और न ही हमें कोई अपने धर्म से डिगा सकता है । हमारे अपने परिवार के बलिदानों की गरिमा और परंपरा रही है , जिस पर हम किसी भी प्रकार का दाग नहीं लगने देंगे । गुरु पुत्रों की साहसी वाणी को सुनकर नवाब वजीद खान अत्यंत क्रुद्ध हो गया । इस प्रकार दोनों वीर बालकों ने अपनी दादी माता गुजरी के मार्गदर्शन में रहते हुए वजीद खान के समक्ष झुकने से इनकार कर दिया । कई दिन के प्रयासों के उपरांत भी जब नवाब वजीद खान अपने प्रयासों में सफल नहीं हुआ तो उसने उन दोनों वीर बालकों को कठोर दंड देने की ओर बढ़ना आरंभ कर दिया।

‘श्री गुरु प्रताप ग्रंथ ‘ पृष्ठ 698 पर लिखा है कि : — ” जोरावर सिंह ने नवाब वजीद खान को यह स्पष्ट कर दिया कि हम गुरु गोविंद सिंह जैसी महान हस्ती के पुत्र हैं । हमारे दादा गुरु तेग बहादुर जैसे शहीद हो चुके हैं , हम अपने कुल के नाम पर बट्टा नहीं लगने देंगे। हमारे परिवार की रीति है – सिर जावे तो जावे पर सिक्खी न जाए ,- हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकरा कर फांसी के फंदे को चूम लेंगे। ”

इसी प्रकार जोश में आकर फतेहसिंह ने भी कह दिया कि:— ” सुन रे सूबेदार ! हम तेरे दीन को ठुकराते हैं । अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे । अरे मूर्ख ! तू हमें दुनिया का लालच क्या देता है ? हम तेरे जाल में फंसने वाले नहीं । हमारे दादा जी को मारकर तुर्को ने एक अग्नि प्रज्वलित कर दी है । जिसमें वे स्वयं भस्म होकर रहेंगे। हमारी मृत्यु इस अग्नि को हवा देकर दावाग्नि बना देगी । धर्म तो हमें क्या छोड़ना है ? पर हम तुर्कों की जड़े ही उखाड़ फेंकेंगे । ”
ऐसा सुनकर नवाब के मुंह से अचानक निकल गया :- ” सांप के बच्चे सांप ही होते हैं । ”
तब काजी ने निर्णय दिया :- ” ( गुरु के ) इन दोनों बच्चों को जीवितावस्था में ही किले की दीवार में चुनवा दिया जाए । ”
काजी का निर्णय सुनकर नवाब ने उस पर अपनी सहमति प्रदान कर दी और मां भारती के इन दोनों शेर पुत्रों को जीवित ही दीवार में चुनवाने की तैयारी आरंभ हो गई। मां भारती के सच्चे सपूतों ने जब अपने लिए यह दंड सुना तो उन्हें तनिक भी भय नहीं हुआ । इसके विपरीत वह शांतभाव से प्रसन्न मुद्रा में इस प्रकार बैठे रहे कि जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो । उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि :—

” जिस परंपरा की नींव हमारे पूर्वजों ने थी रखी ,
सौभाग्य हमारा है यह जो सजा हमको मिली ।
सहर्ष हम इसे स्वीकारते किंचित नहीं भयभीत हैं ,
आर्य धर्म बलिदान से नहीं मुंह फेरता है कभी ।। “

आज उन्हें वास्तव में अपने हृदय से यह प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी कि वह अपने दादा गुरु तेगबहादुर जी के बलिदानी रास्ते का अनुगमन करने जा रहे हैं । दादी मां को भी अपने पौत्रों को मिले इस दंड को सुनकर प्रसन्नता हुई । उन्होंने बड़ी वीरता के साथ अपने दोनों पौत्रों की पीठ थपथपाई और उन्हें इस बात के लिए साधुवाद दिया कि वह अपने कुल की परंपरा का निर्वाह बड़ी वीरता के साथ करने जा रहे हैं।

दिया सर्वोत्कृष्ट बलिदान

नवाब वजीद खान के आदेश के अनुसार अब दोनों गुरु पुत्रों को जीवित ही दीवार में चुनवाने हेतु दीवार खड़ी की जाने लगी। संयोग की बात थी कि दीवार पहले छोटे भाई फतेह सिंह की ओर से ऊपर उठी और उसकी ग्रीवा तक आ गई । इस दृश्य को देखकर बड़े भाई की आंखें सजल हो उठीं ।
काजियों को भी लगा कि संभवत: जोरावर सिंह मृत्यु को साक्षात सामने देखकर भयभीत हो गया है ,इसलिए उन्हें आशा की एक किरण दिखाई दी कि दोनों गुरुपुत्र अब इस्लाम ग्रहण कर सकते हैं । बड़े भाई की आंखों में आंसू देखकर छोटे भाई ने बड़ी विनम्रता से उनसे पूछ लिया कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ? – तब जोरावर सिंह ने जो कुछ कहा वह बहुत ही गर्व और गौरव से भरा हुआ था , उसने कहा: – ” फतेह ! मुझे मृत्यु का भय तो किंचित भी नहीं है , हम जिस पिता और पितामह के वंशज हैं , उसमें मृत्यु से भय करने का तो प्रश्न ही नहीं । मुझे दु:ख इस बात का है कि :–

तू है अनुज मेरा और मेरे बाद में आया यहां ,
पहले जाना था मुझे, पर तू जाता है कहां ?
भय के नहीं आंसू मेरे , स्नेहवश छलके अनुज !
ओझल हो हिय प्रिय कोई तब यह रुकते हैं कहां ?

हे प्रिय अनुज ! संसार में तुमसे पहले मैं आया था , इसलिए संसार से पहले जाने का सौभाग्य भी मुझे मिलना चाहिए था । पर मैं देख रहा हूं कि मुझसे पहले तुम जा रहे हो । छोटे भाई के पहले जाने का दुख मुझसे देखा नहीं गया। जिसे मैं अपना दुर्भाग्य समझता हूं , बस इसी बात पर ही आंखें सजल हो गई हैं। बलिदान होने के जिन क्षणों पर पहला अधिकार मेरा होना चाहिए था, विधि के विधान ने वे क्षण मुझसे छीन लिए है । ”

इस प्रकार क्रूर और निर्मम नवाब वजीद खान और उसके काजी ने हमारे शेर पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हुए इस्लाम की सेवा करने का भाव मन में पैदा कर लिया । उन्हें पता नहीं था कि हमारे इन वीर पुत्रों के बलिदान से भारत का क्रांतिपथ और भी चमकीला हो गया है। उधर माता गुजरी ने जब अपने दोनों पोतों के बलिदान की कहानी सुनी तो उस शेरनी ने अपना नाशवान चोला प्रभु चरणों में ऐसे रख दिया जैसे कोई पुजारी मन्दिर में बड़ी श्रद्धा से अपने इष्ट के श्री चरणों में अपना कोई पुष्प चढ़ा देता है ।
सरहिंद में उस समय टोडरमल नाम का एक व्यक्ति रहता था । जिसकी गुरु गोविंदसिंह के प्रति असीम श्रद्धा थी । जब उस देशभक्त और गुरुभक्त को यह सूचना प्राप्त हुई कि गुरुदेव के पुत्रों को यातनाएं दे दे कर समाप्त किया जा रहा है तो वह गुरु पुत्रों को छुड़ाने के लिए सरहिंद पहुंचा । परंतु जब तक वह पहुंचा , तब तक गुरु पुत्रों का बलिदान हो चुका था । टोडरमल ने दुख के उन क्षणों में धैर्य का परिचय देते हुए नवाब से उन तीनों दादी पोतों के शव मांग लिए । इस पर नवाब ने कहा कि तुम जितने क्षेत्र में स्वर्ण मुद्राएं बिछा सकते हो , उतनी भूमि तुम्हें इस कार्य के लिए दी जा सकती है । तब उस गुरु भक्त ने उन तीनों के दाह संस्कार को एक साथ पूर्ण करने के लिए अपेक्षित भूमि में स्वर्ण मुद्राएं बिछाकर नवाब से उनके शव प्राप्त कर लिए और श्रद्धा भावना के साथ मां भारती के लिए बलिदान हुए उन तीनों देशभक्तों का दाह संस्कार कर दिया ।

यह घटना 27 दिसंबर 1704 ई0 की है । उधर गुरु गोविंद सिंह जी को जब बलिदानों की सूचना प्राप्त हुई तो उन्होंने एक पौधे को उखाड़ते हुए कहा कि जैसे यह पौधा जड़ से उखड़ आया है , वैसे ही एक दिन हिंदुस्तान से तुर्की शासन को जड़ से उखाड़ दिया जाएगा । मेरे सिक्ख एक दिन सरहिंद की ईंट से ईंट बजा देंगे ।
और गुरु गोविंद सिंह जी महाराज की इस भविष्यवाणी को एक दिन हमारे चरित्र नायक वीर बंदा बैरागी ने साकार कर दिखाया , जिसका हम यथा स्थान आगे चलकर वर्णन करेंगे।
मां भारती के इन दोनों बलिदानी गुरु पुत्रों के लिए बस हम इतना ही कहेंगे :–

” बलिदान उठाते देश को , बलिदान देना धर्म है , स्वसंस्कृति की रक्षार्थ हमारा सबसे उत्तम कर्म है ।
आदर्श हेतु संघर्ष करें और आदर्श हेतु हो मरण ,
सौभाग्य जब जिसको मिले समझो यही उत्कर्ष है ।। “

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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